आदरणीय साथिओ,
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सोसल मिडिया के इस रूप को बहुत ही सफलता से उकारा है आदरणीया । स्त्रियों को इंगित कर दी जाने वाली गलियों से पुरुष वर्ग सबसे अधिक आहत होते है तभी शायद ये गालियां बकी जाती है, मैंने तो औरतों को भी औरतों को इंगित करती गलियों का प्रयोग करते देखा और सुना है. बहरहाल विमर्श पर मजबूर करती एक अच्छी लघुकथा हुई है, बधाई स्वीकार करें आदरणीया दिव्या जी.
सर आपकी बात बिल्कुल सत्य है।महिलाएं भी गालियां देने में संकोच नहीं करती।आभार आपका।
धार्दार रचना के लिये बधाई दिव्या
हार - जीत
गाँव के प्रधान हरीश च॔द की इकलौती बिटिया की शादी थी ! बारात पंचायत घर में ठहरी थी ! वरमाल का समय रात आठ बजे हरीश च॔द के दरवाजे पर तय था ! सो घर तो घर पूरे गली - मौहल्ले को दिलफरेब ढंग से तरह-तरह की बंदनवार से सजाया गया था ! बिजली की जलती बुझती लड़ियाँ मनमोहक छटा बिखेर रही थीं !
सारे घर में खुशियों की धमा-चौकड़ी लगी थी ! सभी सगे-सम्ब॔धी अपने-अपने दायित्व के तहत व्यवस्था को बेहतर बनाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे ! बारात हरीश च॔द के दरवाजे आठ बजे पहुँचने वाली थी !
लेकिन यह क्या,,,,! रात्रि के आठ तो बज चुके थे ! और, बारात का कोई अता-पता नहीं था ......! आखिर हुआ क्या ...! भातई राम जी लाल दौडते-दौड़ते बारात ढूंढ़ने निकले...! यह क्या....सारे बाराती और दूल्हा अपने पिता समेत हरीश चंद प्रधान के चुनाव में पराजित प्रतिद्वन्दी रमेश मिश्रा के प्रतिष्ठान पर आवभगत का आनंद उठा रहे थे! कोई रसमलाई पर टूट पड़ा था तो कोई रबड़ी खाए जा रहा था ! और कुछ अन्य मेवा वाले कढ़ाई दूध पर लट्टू थे ... राम जी लाल ने लौट कर जो सूचना दी ...मास्टर हरीश च॔द समझ गये, इस प्रतियोगिता का विजेता हारा हुआ उनका प्रतिद्वन्द्व रमेश मिश्रा था ! बेटी उनकी ब्याह रही थी , और आवभगत की जिम्मेवारी उनका प्रतिस्पर्धी ले उड़ा था .....!
मौलिक एवम् अप्रकाशित
जी नहीं, दिव्या, लघुकथा, निवेदित है, एक बार फिर पढ़े ! कहना न होगा कि ग्रामीण परिवेश , कम से कम जहाँ मैं पिछ्ले पैंतालीस वर्ष से जीवन-यापन कर रहा हूँ, इसी तरह का है ! यहाँ गाँवों में एक अलिखित किन्तु सुदृढ परम्परा है कि ग्राम इकाई के तौर पर परिवार का ही वृहद स्वरूप है! सो ग्रामीणों के आपसी विवादों के फैसले न्याय पंचायत से पहले छत्तीस बिरादरियों / जातियों की पंचायत करती है ! अत: गाँव की बेटी, अपने जैविक माँ-बाप की ही
नहीं, सभी जातियों -धर्मों की बहन- बेटी होती है ! अंततोगत्वा लघुकधा का एक मात्र संदेश यही है कि रस्मो- रिवाज पर कोई 'हार जीत' हावी नहीं हो सकती ! साभार
सादर नमस्कार। घटनाओं के तानेबाने पर विवरणात्मक बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय चेतन प्रकाश जी। शेष गुरुजन बतायेंगे।
आदान, Sheikh Shahzad Usmani !"घटनाओं का ताना- बाना" आप को कैसे दिखाई पड़ा जहाँ लघुकथा का केन्द्र बिन्दु मात्र बारात की आवभगत पर टिका है, जो वरमाल पर हरीश चंद के दरवाजे होने के बजाय रमेश मिश्रा के प्रतिष्ठान पर हुई !
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, नमस्कार, मैं भी गाँव में पैदा हुआ।पला बढ़ा।अभी भी जाता हूँ। दो दो महीने रहता हूँ ।शादी ब्याह भी बहुत देखे हैं और शामिल भी हुआ हूँ। लेकिन आपने जो विवरण प्रस्तुत किया है। वह अकल्पनीय है।शादी ब्याह में हर कार्यक्रम पूर्व निर्धारित होता है। बारात कहाँ रुकेगी, कहाँ स्वागत होगा, कहाँ जलपान होगा , कहाँ बारात ठहराई जायेगी। सब पहले से तय होता है। और सबसे मुख्य बात यह होती है कि बारात के मार्ग दर्शन हेतु भी पहले से आदमी नियुक्त होते हैं। बिना लड़की वाले के सलाह मशविरे के बारात ऐसे ही किसी के यहाँ नाश्ता करने नहीं रुक सकती। यह बिल्कुल असंभव और मिथ्या प्रसंग है। इससे लड़की वाले की व्यवस्था में बद इंतजामी फैल जायेगी। दूसरी बात, बारात को ढूंढ कर लाना भातई का कार्य नहीं होता। उसके लिये नाई को भेजा जाता है। जो उस गाँव की गली गली से परिचित होता है। आपकी लघुकथा में सत्यता का अभाव है। कोरा बनावटी तथा अविश्वसनीय कथ्य है। सादर।
तेजवीर सिंह जी, आदाब, आप लघुकथा की समीक्षा कर रहे है, जो विशेष अंचल की परम्परागत शादी-ब्याह की पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी है! और, नाई की भूमिका शादी-ब्याह में सदैव से ही सीमित रही है! आकस्मिक परिस्थितिजन्य अवसर पर भातई ही नहीं कोई भी चिंतित सम्बन्धी कुछ भी करने को तत्पर रहता है! वैसे भी जीवन आपकी किताब मे लिखी व्यवस्था अथवा सनक से नहीं अपनी गति से चलता है, जनाब ! और कोई भी कथा साहित्य, कहना न होगा, यथार्थ की पृष्ठभूमि पर किचिंत कल्पना का समन्वय ही है, जिस रचना / सर्जना प्रक्रिया का कदाचित आपको ज्ञान नहीं है !
वैसे, आपकी प्रथम प्रतिक्रिया / समीक्षा मेरी लघुकथा के सम्बन्ध मे उत्साहवर्धक थी ! साभार !
आदरणीय चेतन जी, आप जैसे अति विद्वान पुरुष को समझना और समझाना बहुत टेढ़ी खीर है। जो व्यक्ति अपने आपको सदैव सही दर्शाने की चेष्टा करता है, अपनी भूल कभी स्वीकार नहीं करता। उसे ईश्वर भी नहीं सुधार सकता। वैसे आपने जिस गुरू से या पुस्तक से लघुकथा विधा का ज्ञान प्राप्त किया है उसका नाम अवश्य जाना चाहूंगा। यदि आपको कोई ऐतराज ना हो।
जनाब, तेजवीर सिंह, सर्जनात्मक तथ्यों पर बात कीजिए, बेहतर होगा ! हाँ, आपकी जिज्ञासा शांत करने के लिए बता दूँ, जीवन पर्यन्त मैंने लघुकथा ही नहीं, साहित्य और काव्य विभिन्न विधाओं का अध्ययन / अध्यापन / आलोचना ही की है ! सो, आदरणीय, विशेष रूप से मेरा अध्ययन / विश्लेषण ही मेरा गुरु है! साभार
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