रह कर अपनी मौज में, बहना नित चुपचाप
सीख सिन्धु से सीख ये, जीवन पथ को नाप।।
*
जन सम्मुख जो दे रहे, आपस में अभिशाप
सत्ता को करते मगर, वो ही भरत मिलाप।।
*
शासन भर देते रहे, जनता को सन्ताप
सत्ता बाहर बैठ अब, करते बहुत विलाप।।
*
बचपन से ही बन रहे, जो गुण्डों की खाप
राजनीति की छाँव में, रहे नोट नित छाप।।
*
दुख वाले घर द्वार पर, सुख देता जब थाप
उड़ जाते हैं सत्य है, बनकर आँसू भाप।।
*
कह लो चाहे तो बुरा, चाहे अच्छा आप
खान पान के रंग अब, गये आचरण व्याप।।
*
काट पीट नित पेड़ जब, दिया धरा को ताप
अब क्यों करता फिर रहा, छाँव-छाँव का जाप।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई वृजेशजी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति व प्रशंसा के लिए धन्यवाद।
वाह वाह आदरणीय धामी जी...उत्तम दोहे...
आ. भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
वाह वाह वाह वाह हर इक दोहा दिल में उतर गया बेहद सुंदर दोहे कहे आ धामी सर आपने दिल से बधाई
आ. भाई शरद जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय भाई दयाराम जी, सादर अभिवादन। दोहा सप्तक पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
सबसे पहले यह बात स्पष्प तौर पर समझ लीजिए कि यह मंच हम सभी के लिए सीखने सिखाने का माध्यम है। उसके अंतर्गत एक पाठक के तौर पर किसी भी रचना पर अपने विचार रखना ही परम्परा है। आप वरिष्ठ हैं। आपके सुझावों का तहेदिल से स्वागत है।
1.
//. सीख सिन्धु से सीखिये ....करके देखिये।//
वस्तः सुझाव उचित है किन्तु इससे मूल भाव और कहन प्रभावित हो रहा।
2. सत्ता हित करते मगर, ....करके देखिये।
3. शासन भर देते रहे,.....शासन कर देते रहे,
4. उड़ जाते हैं सत्य है,.......उड़ जाते ये सत्य है,//
ये तीनों सुझाव
उत्तम
हैं
5. खान पान के ढंग अब,// इसमें रंग ही उचित है। सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामीजी, दोहा सप्तक पढ़ा। बहुत अच्छे दोहे लिखे आपने इस हेतु बधाई स्वीकार करें। मैं इस लायक तो नहीं हूं कि आपको सुझाव दूं किंतु मन में आया है इसलिये यहाँ लिख रहा हूं। यदि कुछ गलत हो तो क्षमा करें।
1. सीख सिन्धु से सीख ये ..... सीख सिन्धु से सीखिये ....करके देखिये।
2. सत्ता को करते मगर,......सत्ता हित करते मगर, ....करके देखिये।
3. शासन भर देते रहे,.....शासन कर देते रहे,
4. उड़ जाते हैं सत्य है,.......उड़ जाते ये सत्य है,
5. खान पान के रंग अब, ........खान पान के ढंग अब,
आदरणीय, ये मेरी मंद बुद्धि की सलाह है। इसे अन्यथा ना लें। सादर।
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