१२२/१२२/१२२/१२२
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सियासत को आता है तलवार पढ़ना
उसे भी सिखाओ तनिक प्यार पढ़ना।।
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किसी दिन सभी कुछ यहाँ फूक देगा
सिखाओ न अब तुम ये अंगार पढ़ना।।
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वही झूठ हर दिन वही दुख भरा है
सुखद कब लगेगा ये अखबार पढ़ना।।
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शिखर खोजते है बहुत लोग लेकिन
किसी को न भाता है आधार पढ़ना।।
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कभी तो पढ़ेगा वो संसार घर हैं
जिसे आ गया घर को संसार पढ़ना।।
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जमाने को अच्छा अगर कर न पाये
समझ लो हुआ सबका बेकार पढ़ना।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति व उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
बढ़िया बहुत बढ़िया आदरणीय धामी जी...
आ. भाई इन्द्रविद्यावाचस्पति जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई गुमनाम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
वाह मुसाफिर साहब खूब गजल हुई है । बधाई
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन।गजल पर उपस्थिति, प्रशंसा व स्नेह के लिए आभार। टंकण त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद।
मुतदारिक मुसम्मन सालिम न कि जैसा कि की बोर्ड की शरारत से लिखा गया है, आदरणीय !
आदाब, जनाब, 'मुसाफिर' साहब मुताबिक मुसाफिर सालिम ( 122 122 122 122 ) मे अच्छी गज़ल हुई । सही शब्द "फूँक है, आप चन्द्र बिन्दु लगाना भूल गये !
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