आदरणीय साथियो,
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हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर जी। आपकी टिप्पणियों/ सुझावों की हमेशा प्रतीक्षा रहती है।
वाह! बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा
समझ तो रहे हो न!
"तुम्हारे लेट-लतीफ़ और बेतरतीब कामकाज पर मैं तुम्हें डाँट नहीं रहा हूँ। इस समय तुम मुझे अपना प्राचार्य मत समझो; मान लो कि मैं तुम्हारा पिता हूँ और तुम मेरे विद्यालय के शिक्षक नहीं, मेरे बेटे हो!"
"जी।"
"बेटे, तुम बहुत भावुक किस्म के हो... बिल्कुल मेरी तरह! भावुकता में तुम अपना ध्यान अपने विद्यालयीन दायित्वों की तरफ़ एकाग्र नहीं कर पा रहे हो, जिस कारण विद्यार्थियों और स्टाफ़ को तुमसे तरह-तरह की शिकायतें हैं... समझ रहे हो न!"
"जी! आपको तो पता है न... मैं अपने बड़े से फ्लैट में चौदहवीं मंज़िल पर अकेला ही रहता हूँ। सो मेरे बीमार पिताजी मेरे साथ यहाँ रहना नहीं चाहते। वे नज़दीक के शहर में छोटे भाई के पास ही रहते हैं... किसी तरह उसके परिवार से सामंजस्य बिठाते हुए। सो मैं पिताजी की सेवा करने से वंचित... पत्नी सरकारी नौकरी की वज़ह से दूर दूसरे राज्य में रहती है। हमारे संबंध वैसे न रहे, जैसे होने चाहिए... प्राइवेट नौकरी में मेरी कम आय के कारण! बिटिया होस्टल में रहती है और बेटा प्राइवेट कम्पनी में नौकरी। दोनों ही मुझसे दूर रहते हैं। दोनों माँ से ही अधिक प्रेम करते हैं। औपचारिकताओं से दिन कट रहे हैं। योग, ध्यान, संगीत, शौकों का सहारा भी नियमित औपचारिकताओं जैसा... बस!"
"मर्द हो न! बाप हो न! बाप को... मर्द को मज़बूत रहना होता है। मर्द को दिल पर पत्थर रखकर जीना होता है, समझे! विद्यालय के बच्चों को ही अपने बच्चे मानो... बेटे और बेटियाँ!"
"... जी... लेकिन आपकी आँखों में यूँ आँसू क्यों? आपकी आवाज़ भी...!"
"समझ तो रहे हो न! कामयाबी के साथ जीने के लिए हर जगह 'गुड विल' बरकरार रखना मुश्किल होता है ऐसे हालात में हम मर्दों के लिए... हर बाप के लिए!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
संवाद-शैली में अच्छी लघुकथा कही है भाई उस्मानी जी, बधाई प्रेषित है. लेकिन एक चीज़ मुझे बहुत खटक रही है. 285 शब्दों की इस लघुकथा में एक संवाद 127 शब्दों का है जो रचना का लगभग 45% बनता है. इतने लंबे संवाद ने रचना की गति धीमी करके कथ्य को बोझिल बना दिया है. लघुकथा में संवाद चुस्त और चुटीले होने चाहिएँ. बाक़ी आप ख़ुद समझदार हैं.
सादर नमस्कार आदरणीय सर जी। जी, त्वरित मार्गदर्शन हेतु शुक्रिया। ध्यान रखूँगा। उस संवाद को दूसरी तरह से कहने की भी कोशिश करूँगा।अभी किसी तरह पिताजी के घर आकर प्रविष्टि का कथानक याद कर तैयार की। कल रात यह कथानक विस्मृत हो गया था।
परिवार बच्चों से दूर रह रहे एक पिता के दर्द का लेखा जोखा। पुरुष का पक्ष/दर्द समाज को कम दिखता है।भावपूर्ण लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय उस्मानी जी।संवादों की कसावट रचना को और मुखर करेगी।
जी, रचना पटल पर समय.देकर मार्गदर्शन सहित हौसला अफ़ज़ाई हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जोशी जी। रचना विषयांतर्गत नहीं लगी क्या?
जी बिल्कुल विषय अनुरूप ही लगी
हार्दिक बधाई आदरणीय शेख़ शहज़ाद जी। बहुत सुन्दर लघुकथा।
आदाब। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय तेजवीर सिंह जी।
जी, धन्यवाद।
संतान
आज उसके माता-पिता दोनों बेटी को उसके नए पद पर छोड़कर घर आए। भले ही वे हिम्मत से आगे बढ़ रहे थे, लेकिन फिर भी... जबकि पहले जरूरत के मुताबिक रहने के लिए घर न मिलने की चिंता थी। लेकिन जब उसे घर जैसे बड़े घर का हिस्सा मिल गया तो उसे इस बात की चिंता सता रही थी कि ऐसे घर में वह अकेली कैसे रहेगी। क्योंकि घर में बाकी सभी लोग कहीं और रह रहे हैं।
बेटी ने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया। उन्होंने कहा, "एक दिन हमें घर छोड़ना ही होगा, आज मान लेना. कोई बात नहीं."
जब वह छोटी थी तो देश के कोने-कोने में खेलों में भाग लेने जाती थी। "यहाँ रह कर तो हम ने लोगों की सेवा करनी है,उस तरह की जिसे लोग भगवान का दर्जा देते हैं , ऐसे में ख़तरा , क्या ? जैसा कि आपने हमें लोगों के साथ रहना और रहना सिखाया है। आपको अपने बच्चों पर गर्व होना चाहिए। अगर आपने उन्हें अच्छे खिलाड़ी बनने और अच्छी शिक्षा प्राप्त करने में मदद की है। जब आपको अच्छे पद मिलते हैं और क्यों करते हैं आपको ऐसा लगता है?
क्या अब हम अपनी रक्षा भी नहीं कर पा रहे हैं? यह दुनिया हमारी है, चाहे कुछ भी हो जाए, हमें उस बदलाव का हिस्सा बनना है।"
जब बेटी यह सब वीडियो कॉल पर कह रही थी। उसके माता-पिता अपना सिर ऊंचा रखे हुए थे ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
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