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निभाते रहे दुश्मनी को वो ऐसे -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"


१२२/१२२/१२२/१२२
***
न मन के  सहारे  रहे साथ अपने
न सुख के पिटारे रहे साथ अपने।।
*
कभी साथ देने न मझधार आयी
कि सूखे किनारे रहे साथ अपने।।
*
बहारें भले मुह फुलाती हों अब भी
खिजां  के  नजारे  रहे  साथ अपने।।
*
खुशी ने जो पाले अछूतों में गिनते
दुखों  के  दुलारे  रहे  साथ  अपने।।
*
नदी नीर मीठा लिए गुम गयी पर
समन्दर वो खारे  रहे साथ अपने।।
*
भले आज फैली अमा हर तरफ हो
कभी  चाँद  तारे   रहे  साथ  अपने।।
*
निभाते  रहे  दुश्मनी  को  वो ऐसे
बना झूठा साथी रखा साथ अपने।।
*
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 15, 2022 at 10:54am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। पुनः उपस्थित और मार्गदर्शन के लिए आभार।

Comment by Samar kabeer on September 15, 2022 at 10:32am

'निभाते रहे  दुश्मनी  को वो ऐसे
बना झूठा साथी रखा साथ अपने'

अब ये शे'र ठीक है ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 15, 2022 at 10:12am

आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। इंगित शेर में बदलाव किया है देखिएगा। सादर..

'निभाते रहे  दुश्मनी  को वो ऐसे
बना झूठा साथी रखा साथ अपने

Comment by Samar kabeer on September 12, 2022 at 4:29pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है , बधाई स्वीकार करें I 

'निभाते रहे  दुश्मनी  को वो ऐसे
उन्हें जो थे प्यारे रहे साथ अपने'-- इस शे`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है , देखिएगा  I 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2022 at 8:43pm

आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2022 at 8:42pm

आ. भाई अमीरुददीन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार। 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 9, 2022 at 10:28pm

बढ़िया ग़ज़ल हुई आदरणीय धामी जी...बधाई

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 5, 2022 at 9:33pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब, ख़ूबसूरत ग़ज़ल का उम्दा प्रयास हुआ है, हार्दिक बधाई।

  

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