आदरणीय साथियो,
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आ. रचना जी, बहुत सुन्दर कथा हुई है। हार्दिक बधाई।
धन्यवाद आदरणीय
नहीं , मैं नहीं जाऊँगा" कह मोनू दौड़कर माँ से चिपक गया।// अंतिम पंक्ति में इतना भर काफी था मेरे अनुसार। एक दूसरी स्त्री का माँ के आगे बच्चों को इस तरह से सीधे सीधे बरगलाना भी कुछ अस्वाभाविक लगा।
हार्दिक बधाई आपको इस शतकीय आयोजन का हिस्सा बनने के लिये
छप्पर फाड़कर (लघुकथा) :
डियर डायरी,
ढाई महीने बाद आज वक़्त मिला तुमसे गुफ़्तगू करने का। इससे दिल का बोझ मेरा कुछ हल्का भले हो जाये, लेकिन तुम्हारा भारी अवश्य हो सकता है। दरअसल इस दौरान मुझे ख़ुद को समझने और रिश्तों की अहमियत और असलियत को समझने का मौक़ा मिला। कुछ तज़ुर्बेकार सयाने लोगों के कुछ ताने अब मुझे सही लगने लगे हैं। सही कहते थे वे कि मैं इस दुनिया में जीने लायक नहीं, मुझे तो मंगल जैसे किसी दूसरे ग्रह में अकेले रहना चाहिए या ख़ुदकुशी कर लेना चाहिए। लेकिन दोनों काम मेरे वश में नहीं।
दरअसल पिछले दिनों जब मेरी जीवनसंगिनी को प्राइवेट अस्पताल की आईसीयू में भर्ती करना पड़ा, तब मुझे अहसास हुआ कि सरकारी अस्पतालों की क्या अहमियत है, व्यवहारकुशल होने की और येनकेन प्रकारेण अधिक पैसा कमाने की क्या अहमियत है। यह भी अहसास और तज़ुर्बा हुआ कि रिश्तों और पैसों में कैसा समानुपाती या व्युत्क्रमानुपाती नाता होता है। इसी तरह एकल परिवार, संयुक्त परिवार, आधुनिक कॉलोनी, आम मुहल्ले और सामाजिक रिश्तों के बीच...!
हाँ, अकेला पड़ गया था मैं अपनी इकलौती संतान के साथ उसकी अम्मीजान की ज़िन्दगी और मौत से जद्दोजहद के मंज़र देखते हुए।
बात अप्रैल माह की कहूँ डियर, तो मेरी ज़ेब में न तो नक़द धनराशि थी और न ही पर्याप्त डिजिटल वाली जिससे कि बीमार बीवी को सरकारी या प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कर सकूँ। सलाह-मशवरों के ज़रिए पिछले कड़वे तज़ुर्बे के मदद्देनज़र बड़े शहर के एक प्राइवेट अस्पताल में उसे भर्ती करा तो दिया, लेकिन ख़र्च के बारे में सोचने का न तो समय मिला और न ही किसी ने चेताया। वो तो व्यवहारकुशल संतान की बदौलत ख़ुदा से ग़ैबी मदद मिलती गई। दो हफ़्ते तक जीवनसंगिनी आइसीयू में अपने जीवन से संघर्ष करती रही और उसका जीवनसाथी यानी मैं भौंचक्का डॉक्टर और नर्सों के निर्देशों का पालन करता गया बिना बिलों की परवाह किये। ... पैसा आता गया, जाता गया। कुछ परिचित मुझ पर हँसे...'या तो सरकारी अस्पताल ले जाता मूरख या फ़िर किसी गाँव के जानेमाने बाबा, नीमहकीम को दिखा देता, तो न्यूनतम ख़र्चे में मरीज़ आत्मनिर्भर सी स्वस्थ हो जाती!' दरअसल बीवी की सेहत में सुधार न के बराबर था। वह केवल ख़तरे से बाहर बता कर अस्पताल से मुक्त कर दी गई घर ले जाने के लिए। लेकिन घर कौन सा? मेरा... बिना अन्य सदस्यों का... एकल परिवार का या उसके मायके का संयुक्त परिवार वाला? ज्वलंत सवाल था और पहेली भी। कहते हैं कि बीमारों और बच्चों के लिए संयुक्त परिवार बढ़िया रहते हैं। फ़िर भी कुछ कारणों से मैंने और इकलौती संतान ने अपना एकल परिवार ही चुना अपार्टमेंट की तीसरी मंज़िल वाला। लेकिन तुम तो जानती ही हो न कि यहाँ किसी को किसी की ख़बर नहीं रहती, न ही फ़िक्र... केवल औपचारिकताएं.. बस!
बात मई माह की करूँ प्रिय, तो 'पति, पत्नी और वह' की तरह ही 'मियाँ, बीवी और इकलौती संतान' की फ़िल्म शुरू हो गई। अहसास हुआ कि संतान मात्र एक ही हो, तो क्या वह बेटी ही होनी चाहिए या बेटा और यदि दो संतानें हों, तो क्या दोनों बेटे होने चाहिए या बेटियाँ या एक बेटा और एक बेटी ... या फ़िर नि:संतान रहना ही सर्वश्रेष्ठ! आख़िर पश्चिमी संस्कृति और तकनीक से पीड़ित है आजकल हमारा भारतीय समाज... विशेष रूप से मध्यमवर्गीय। कमाऊ संतान का ऑनलाइन, ऑफ़लाइन और वर्क फ्रॉम होम मशीनी ज़िंदगी तो देता ही है...उन्हें माँ-बाप से बहुत दूर कर देता है... मशीनी संवेदनायें और मशीनी औपचारिकताओं के साथ... बस।
डियर डायरी ऐसा ही लगा मुझे भी इस दरमियाँ। अब वैसा कुछ भी न रहा... जिसके लिए भारतीय परिवार और रिश्ते जाने जाते थे। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूँ कि सारे निअर एंड डिअर वन्स अर्थात नज़दीक़ी रिश्तेदार और परिचित सब एक सीमा तक औपचारिकताएं या किसी 'विवशतावश' कर्तव्य सा निभाते रहे... बीमार बीवी की ज़रूरतों को तो केवल मैं ही कुछ हद तक पूरा कर सका, संतान की मौजूदगी, सक्रियता, और आर्थिक मदद से... बस! लेकिन इस तिकड़ी के दरमियाँ जो अच्छे, बुरे और कड़वे दौर उन्हें अगले पन्नों में कभी तुम्हें बताना ही होगा... वरना मैं तो पागल ही हो जाऊँगा न! न बाबा न... 'ख़ुदकुशी' मेरे वश की बात नहीं, भले कोई कितना ही उकसाये या कैसा भी माहौल बनाये दायित्वों और आरोप-प्रत्यारोप के कथनों से! हाँ, अशासकीय शिक्षक हूँ... त्याग है मेरे वश में... मेरे ख़ून में... और शायद कुछ हद तक मेरी संतान में भी शेष बचा है आधुनिक विचारों और जीवनशैली की सुनामी से!
बात चल रहे माह की कहूँ डियर, तो मरीज़ और मरीज़ के सच्चे नर्स रूपी अटैण्डर के बीच एक अजीब सा नया रिश्ता बनते महसूस किया है मैंने। फ़िर चाहे वह हम मियाँ-बीवी के बीच का हो या मरीज़ अर्थात अम्मीजान और उसकी इकलौती संतान के बीच का हो अथवा पापा और उसकी इकलौती संतान के बीच का हो। इन ढाई महीनों में बहुत कुछ सीखा है डियर... बहुत सी परतें खुलीं हैं ज़िन्दगी, रिश्तों, अपनों और परायों की... चिकित्सा जगत की... प्राइवेट और सरकारी नौकरी की विभागीय आकस्मिक प्रक्रियाओं की... और संस्कारों और संस्कृति के भटकाव की। गंभीर बीमारियाँ एक व्यावहारिक शैक्षणिक पाठ्यक्रम सा करा देती हैं, है न!
.... शेष कल... शब्बा ख़ैर!
तुम्हारा ही,
हिदायतुल्लाह
___________________
(ग़ैबी - परोक्ष/ग़ैब की/छिपी हुई/दृष्टिगोचर न होने वाली/अदृश्य/गुप्त/ईश्वरीय)
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी आदाब,
एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है।
यहाँ 'छप्पर फ़ाड़कर ' सुख नहीं दुख मिले तो उन्वान भी आकर्षक रखा है।
इस रचना के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएँ।
एक जिज्ञासा - कुछ शब्दों के आम बोलचाल के स्वरूप होते हैं जैसे जम'अ का जमा,
तज्रिबा का तजुरबा, तोहफ़ा का तुहफ़: तो क्या आम बोलचाल की स्पेलिंग रखी जाए या शुद्ध स्वरूप जो लोगों के लिए समझना मुश्किल हो सकता है?
शुक्रिया आदरणीय। उच्चारण और वर्तनी संबंधित जिज्ञासु सवालों के जवाब हमारे भाषा विशेषज्ञ मंच व गोष्ठी संचालक जनाब योगराज प्रभाकर साहिब ही दे सकेंगे। मुझसे कोई त्रुटि हो सकती है रचना में आये शब्दों में। मेरी भी यही जिज्ञासा है जानने की।
डायरी को लिखा गया एक पत्र ही है यह लघुकथा क्योंकि अगर डायरी शैली होती तो घटनाओं को दिवसों में तोड़ा जाता जो मेरे अनुसार ज्यादा प्रभावी शैली होती।रही बात कथ्य की तो आपने अनुभव और परेशानियों से उपजी भावनाओं को अधिक विस्तार दे दिया है। इस सौवें आयोजन में शिरकत के लिये बधाई आपको
आदाब। शुक्रिया रचना पटल पर समय.देकर अपनी राय से.वाक़िफ़ कराने व सुझाव हेतु। यह एक.दिवस, एक बैठक में ढाई महीने के अंतराल के बाद एक.दिवसीय डायरी लेखन है, जिसमें पृष्ठ के सबसे ऊपर अपनी ही डायरी को सम्बोधित किया गया है। ऐसा डायरी लेखन सीबीएसई में भी सिखाया जाता है। रोज़ की डायरी लिखने वाले अपनी डायरी को प्रेमपूर्वक सम्बोधित कर डियर लिखकर अपने भाव.या अनुभव लिखते हैं। तथा अंत में इसी तरह समापन करते हैं डेली डायरी एंट्री में। यह पत्र जैसा लगता ज़रूर है, लेकिन मेरी दृष्टि में यह पत्र नहीं है। पत्र कहीं प्रेषित किया जाता है या संबंधित के लिये लिखकर छोड़ दिया जाता है। डायरी व्यक्तिगत निजी पुस्तिका है, जिसमें हर रोज़ व्यक्ति अपने आपको अभिव्यक्त करता है। कुछ लोग अपनी डायरी का नाम लिखकर भी यूं संबोधित करते हुए रोज़ की डायरी या कुछ दिनों की इकट्ठी एक बैठक में डायरी एंट्री लिखते हैं यथा डियर जूही, डियर/प्रिय संगिनी, डियर मून आदि।
मेरी दृष्टि में विस्तार कथ्य के समानांतर है। विस्तार अधिक है क्योंकि एक सिटिंग म़ें हिदायतुल्लाह ने ढाई महीने की डायरी एंट्री की है उसे संबोधित करते हुए।
यदि पत्र कहेंगे, तो क्या यह मानवेतर पत्र होगा? मानवेतर पत्रात्मक शैली होगी? फ़िर.डायरी लेखन की.व्यक्तिगत भिन्न शैलियों पर भी.ग़ौर करना होगा। उपरोक्त भी डायरी लेखन/डायरी एंट्री की एक निजी व्यक्तिगत गोपनीय शैली है ..सिर्फ़ डायरी और.लेखक के बीच की अभिव्यक्ति। ... मैं डायरी लेखन की भिन्न शैलियाँ जानना चाहूँगा। सादर।
भावभीने रिश्तें
दूर देशवासी रूचिरा का भाई शुलभ सपरिवार रक्षाबंधन पर आया था। रक्षाबंधन के दिन रूचिरा ने अपनी भाभी सहोदरी के साथ मिलकर झटपट काम निपटाकर भगवान को राखी अर्पित कर भोग लगाया और धमाचौकड़ी करती बच्चा पार्टी को राखी टीका के लिए बुलाया।
रूचिरा की बेटी संचिता ने शुलभ के बेटे अभि को रोली-चंदन से टीका लगाया, राखी बांधकर मुंह मीठा कराया।अभि जैसे ही पैर छूकर जाने लगा तो संचिता ने उसके सिर के बाल खींचते हुये कहा।
'बिना शगुन दिए कहां भाग रहे बच्चू… मेरा उपहार।'
'क्या दी, आप भी ना… अपने छोटे भाई से लेते हुये शर्म नहीं आती!'
'ये दस्तूर हैं… और फिर तू अब कमाऊ भाई हो गया हैं… जल्दी निकाल!'
दोनों की एक दूसरे की टांग खींचते देख रूचिरा के हाथ शुलभ को राखी बांधते हुये पलभर के लिए थम गये। समय के साथ शुष्क हुये बचपन के गलियारें को यादों की फुहारों ने भिगो दिया।हम तीन बहनों में इकलौता छोटा भाई सजल, साथ में पढ़े-लिखे बड़े हुये…तीखी नोक-झोंक, रूठा मनाई… पर बड़े भाई जैसा रौब…कोई आंख उठाकर तो देख ले…तुरंत तिरछी निगाहें। अपनी बात मनवाने में आगे…. तीज-त्योहार पर तो रूठना जैसे एक परंपरा बना ली…बड़ों के साथ हम बहनें दिनभर मनुहार कर आखिर रिश्तों की गर्माहट में बांध ही लेती।
स्मृतियों की महकती वयार से मन ही मन हंसती रूचिरा अभि की आवाज से सजग हुई।
'देखो ना बुआ,संचिता दी मुझे गिफ्ट देगी या मैं…समझाये ना आप!'
शुलभ की ओर मुस्कराते हुये भावभीनी रेशमी धागे से बनी राखी को बांधते हुये कहा, 'क्यो शुलभ, ये तो रीति हैं… सीख अपने पिता से।'
मौलिक व अप्रकाशित
बबीता गुप्ता
आदाब। भावपूर्ण रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया बबीता गुप्ता जी। बहुत ही संवेदनशील बात उठाई है आपने इस बालरचना में। पात्र संख्या अधिक होने के कारण व पात्र नामों में पाठकीय रुचि कम होने की संभावना के कारण रचना अधिक प्रभावित नहीं कर पाती। इस हेतु आदरणीय योगराज सर जी के उपयोगी आलेख अनुसार क्या कहना है, क्यों और कैसे कहना है... आदि सवालों के जवाब अनुसार रचना की शैली व शिल्प तय किया जा सकता है। /गलियारों की यादों..... सजग हुई// ... ये पंक्तियाँ विवरणात्मक हैं। इनमें जो कहा गया है, वह बतौर प्रमाण या तदनुसार पात्रों के संवादों में कहने से बेहतर रहेगा मेरे विचार से।
सादर सूचनार्थ कि अंत में यूँ लेखक का नाम नहीं लिखना है। केवल (मौलिक व अप्रकाशित) लिखने को कहा जाता है।
आदरणीय babita gupta जी आदाब,
भाई बहन के प्रेम से ओत-प्रोत रचना के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएँ।
आवश्यक सूचना:-
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