आदरणीय साथियो,
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इंसानियत का तकाजा - लघुकथा -
अचानक मेरी पत्नी को बेटी की डिलीवरी के लिये बंगलोर जाना पड़ा। उसका वहाँ अधिक रुकने का कार्यक्रम था। मेरे साथ जाने से वहाँ और काम बढ़ जाता अतः मैंने अपना जाना रद्द कर दिया।
मेरा बेटा पूना में था। जब उसे यह जानकारी मिली तो उसने मेरी पूना की टिकट कर दी। मैं पूना पहुंच गया। दिनचर्या सही चल रही थी।
लेकिन आज एक ऐसी घटना हुई कि मेरी आत्मा कांप गई।
मैं, बेटा और उसकी पत्नी रात को करीब साढ़े ग्यारह बजे बेटे के सासु और ससुर को एयरपोर्ट छोड़ कर लौट रहे थे। एक बुजुर्ग गार्ड ने सोसाइटी का गेट खोला।मुझे उसकी शक्ल कुछ जानी पहचानी सी लगी। मैं वहीं गाड़ी से उतर गया।
बेटे को बोला कि तुम चलो मैं आता हूँ। मैंने उस गार्ड के पास जाकर उसे गौर से देखा। मुझे यकीन नहीं हुआ।
मैंने उसे नाम से पुकारा। वह मेरे पास आया,"आपने मुझे पहचाना?" मैंने पूछा।
"शायद देखा है आपको।"
"शुक्ला जी, आप यहाँ गार्ड की नौकरी कर रहे हो। वह भी इस उम्र में।"
"सब तक़दीर के खेल हैं।”
"मैं कुछ समझा नहीं? खुलकर बताओ।"
"क्यों मेरे जख्मों को कुरेदना चाहते हो सिंह साहब? मुझे मेरे हाल पर जीने दो।" उसकी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे।
मैंने उसे कुर्सी पर बिठाया। एक बोतल में वहीं पर रखा पानी पिलाया। थोड़ी सांत्वना दी।
"शुक्ला जी, आप एक मैकेनिकल इंजीनियर हो। हमारे साथ एक सरकारी कंपनी में मैनेजर थे। आज आपको एक गार्ड की नौकरी करते देख दुख के साथ आश्चर्य भी हो रहा है। आपका तो एक बेटा भी था। शायद कहीं विदेश में बस गया था।”
"सिंह साहब, अब आपसे क्या छुपाना। यह सब उसी की करतूतों का परिणाम है जो कि हम भुगत रहे हैं।”
"ऐसा क्या कर दिया उसने?"
मेरे रिटायर होने के बाद मेरी पत्नी को कैंसर हो गया था। इलाज बहुत महँगा था। सब जमा पूँजी समाप्त हो चली थी। मैंने बेटे को विदेश में फोन पर कुछ मदद करने को कहा। लेकिन उसने कुछ नहीं किया। बाद में फोन लेना भी बंद कर दिया।
मजबूरन मुझे मकान बेचना पड़ा। हम किराये का घर लेकर रहने लगे। साल भर बाद पत्नी भी छोड़ गई।
मैंने बहुत जगह नौकरी के लिये हाथ पैर मारे। लेकिन सत्तर साल के बूढ़े को कौन नौकरी देता है। चाहे वह कितना ही पढ़ा लिखा और अनुभवी क्यों ना हो। कोई चपरासी रखने को भी राजी नहीं था।"
"फिर यहाँ पूना कैसे पहुंचे?”
“मैं पूरी तरह टूट चुका था।मेरे समक्ष आत्म हत्या के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा था। लेकिन सही वक्त पर मेरे एक परिचित ठेकेदार ने मुझे बचा लिया।यह मेरे उसी परिचित ठेकेदार की बिल्डिंग है।। बस तब से यहीं हूँ।यहीं सोसाइटी में गार्डों के रहने की व्यवस्था है।”
"शुक्ला जी, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि एक बेटा अपने माँ बाप के साथ ऐसा सलूक कैसे कर सकता है। जिसे पाल पोस कर, पढ़ा लिखा कर इतना काबिल बनाया हो।”
"सिंह साहब, होनी प्रबल होती है। हमारे कोई संतान नहीं थी। अतः पत्नी की ज़िद पर हमने उसे अनाथालय से गोद लिया था।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।
आदाब। बढ़िया रचना से आग़ाज़ हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह जी। इंसानियत के आग़ाज़ से ग़ैर -इंसानियत (हैवानियत)के अंजाम तक के सफ़र में परिचित ठेकेदार की इंसानियत और गार्ड ड्यूटी के दायित्व रूपी इंसानियत का बख़ूबी चित्रण। लघुकथा विधागत अतिरिक्त विवरण सहित विस्तार हो गया है रचना में। सब कुछ कह देने के बजाय विसंगति के एक पल को उभारकर इसे एक बढ़िया तंजदार/विचारोत्तेजक लघुकथा रूप में परिमार्जित किया जा सकता है मेरे विचार से। (टिप्पणी नोएडा सेक्टर 134 से)
हार्दिक आभार आदरणीय शेख़ शहज़ाद जी।शारीरिक अस्वस्थता के कारण लघुकथा को अधिक समय नहीं दे पाया।
अच्छी लघुकथा है आदरणीय तेजवीर सिंह जी। अनावश्यक विस्तार के सम्बन्ध में आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी से सहमत हूँ। अपने स्वास्थ्य का ख़याल रखिए। बहुत-बहुत बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय महेन्द्र कुमार जी।
हार्दिक बधाई इस लघुकथा के लिए आदरणीय तेजवीर जी।विस्तार को लेकर लघुकथाकार मित्रों ने जो कहा है मैं उससे सहमत हूँ।अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखिये।
हार्दिक आभार आदरणीय प्रतिभा जी।
टुकड़े (लघुकथा):
पार्क में लकवा पीड़ित पत्नी के साथ वह शिक्षक एक बैंच की तरफ़ पहुंचा ही था कि उसने देखा कि दो सात-आठ साल की बच्चियां मिट्टी के ढेर से दो सफ़ेद टुकड़े उठाकर उनसे लिखने की कोशिश कर रही थीं। एक उन्हें चॉक कह रही थी। दूसरी उन्हें चॉक मानने को तैयार नहीं थी।
शिक्षक ने अपनी ज़ेब से दो चॉक के टुकड़े निकाल कर उन्हें बांट दिए। दोनों उछल कर बोलीं, "अंकल, असली की चॉक!" फ़िर वे कोई खेल खेलने लगीं।
थोड़ी देर बाद वे दोनों एक महिला के साथ लौटीं और चॉक के दोनों टुकड़े शिक्षक को उस महिला को तिरछी निगाहों से देखते हुए दुखी चेहरे के साथ लौटाते हुए बोलीं, "अंकल, ये रही आपकी चॉक। वापस ले लीजिए।"
तभी वह महिला भी तुरंत बच्चियों से बोली, "पार्क में 'सफ़ेद चीज़' किसी से नहीं लेना चाहिए। पता नहीं 'वह' कौन हो?"
शिक्षक ने कुछ सोचा और समझा। फ़िर चॉक के दोनों टुकड़े वापस अपनी ज़ेब में रख लिये। बच्चियां उस महिला के साथ जा चुकीं थीं।
(मौलिक व अप्रकाशित)
//"पार्क में 'सफ़ेद चीज़' किसी से नहीं लेना चाहिए। पता नहीं 'वह' कौन हो?"// इस पंक्ति को समझने में असमर्थ हूँ आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी। बहरहाल इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
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