आदरणीय साथियो,
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सादर प्रणाम, आदरणीय ।
सुन, ससुराल में किसी से दब के रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। अरे भाई, हमने कोई फ्री में सादी थोड़ी की है। मुँह माँगा दहेज़ दिया है..और फ़िर उनका लड़का तो कुछ कमाता वमाता है नहीं, निठल्ला है एक नंबर का। कहता था सादी के बाद तुझे बम्बई ले जाएगा। अब खुद ही जाब छोड़कर घर बैठा है। तू दिल छोटा ना कर, फ़ौरन घर चली आ। इन सब पर तो मैं धोखाधड़ी का केस करूँगी।
ठीक है मम्मी.. सुनीता ने फ़ोन पर हामी भरते हुए कहा और फ़ोन रखते ही अटैंची में कपड़े भरने लगी।
कहाँ जा रही हो ? दिनेश ने कमरे में दाख़िल होते हुए पूँछा। अपने घर.. अटैंची बंद करते हुए सुनीता बोली।
सब ठीक तो हैं वहाँ..दिनेश का स्वर, अब चिंताजनक था।
वहाँ तो सब ठीक ही है बस यहाँ कुछ भी ठीक नहीं.. सुनीता धीमे स्वर में बुदबुदाते हुए, अटैंची लेकर कमरे से बाहर निकल गई ।
सुनो..क्या हुआ है ? कुछ बताओ तो, माँ से फ़िर कोई झगड़ा हुआ क्या ? पर वो तो अभी घर पर नहीं हैं उन्हें आ तो जाने दो… कहते कहते दिनेश उसके पीछे दरवाज़े तक जा पहुँचा।
गली के मोड़ पर खड़े रिक्शे वाले ने सुनीता को देखा तो रिक्शा पीछे ले लिया।
कहाँ जाइएगा मैडम ? बिना कोई ज़वाब दिए सुनीता ने अटैंची उठाई और रिक्शे में रख दी और ख़ुद भी रिक्शे में बैठ गई।
जैसे कोई अबोध बालक भीड़ में अपनी माँ का आँचल थाम लेता है , बिल्कुल वैसे ही दिनेश सुनीता का पल्लू पकड़े, पथराई सी आँखों से उसे देखता रहा।
स्टेशन ले चलो, सुनीता ने अपनी चुप्पी तोड़ी तो रिक्शे वाले ने चाबी घुमा दी ।रिक्शे के आगे बढ़ते ही दिनेश कुछ दूर भागा..और अंततः ठोकर खाकर गिर गया ।
अरे साहब जी.. रिक्शे वाले ने ऑटो धीमा किया तो सुनीता ने फटकार लगा दी। आप चलिए.. अगर ट्रेन छूट गई तो भाड़ा नहीं मिलेगा। रिक्शे के बैक मिरर से सुनीता ने सब देखा मगर उसे कोई असर न हुआ।
ख़ैर, सुनीता का मायके में ख़ूब स्वागत हुआ। और अब तो सुनीता को मायके आए एक साल भी बीत चुका था । आज घर में ख़ुशी का माहौल था । हम केस जीत गए हैं, देखो ये सरकारी चिट्ठी और ये मनी ऑर्डर भी आया है। अब तो ये हर महीने आयेगा.. माँ ने खीसे निपोरते हुए कहा । ये लो मुँह मीठा करो.. कहते ही सुनीता की माँ ने उसके मुँह में लड्डू ठूँस दिया। ये लड्डू इतना कसैला क्यों है माँ ? लड्डू उगल कर सुनीता अपने कमरे में चली गई।
पीछली रातों की तरह आज भी सुनीता सो ना सकी.. आँख मूँदते ही रिक्शे का बैक मिरर उसकी आँखों में खुल गया। दिनेश की पथराई सी आखें उसे बेचैन करती रहीं । एक बाँध जो बड़ा सख़्त था आज टूट गया था.. तकिये में मुँह छुपाए सुनीता की सिसकियाँ बार-बार एक ही बात दोहरा रही थीं “ मैं हार गयी माँ.. मैं हार गयी ! ”
(मौलिक व अप्रकाशित)
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