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श्री तिलक राज कपूर

इक अजब सी दौड़ में मैं खो गया हूँ
खो गया बचपन कहॉं ये सोचता हूँ!

 

कल गुजारा था कहॉं ये भूल बैठा

आज की इस फि़क्र से मैं यूँ बँधा हूँ।

 

देखकर नीले गगन पर कुछ पतंगें

फिर उसी कोमल दिशा में लौटता हूँ।

 

ओ पुरानी याद फिरसे लौट आ तू
आज मैं फिरसे अकेला हो गया हूँ।

 

लौटकर बचपन कभी आता नहीं है
जि़न्‍दगी, अच्‍छी तरह मैं जानता हूँ। 

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श्री योगराज प्रभाकर

(१० कहमुकरियाँ)

(१).
ऐसो गयो जी,फिर न आयो
इसमें मुझको खूब रुलायो
दिखे बुढ़ापा - बीता यौवन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(२).
बेफिक्री का है वो आदी
रंजो-गम से है आजादी
ये ना माने कोई बंधन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(३).
कुदरत का वरदान भी है
खुशियों का सामान भी है
छम छम रौनक वाला सावन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(४).
आए तो उजियारा आए
जाए तो अँधियारा छाए
हर्षा दे वो सबका ही मन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(५).
फिर से दिल तड़पाने न दूँ
आए तो फिर जाने न दूँ
सूना मोरे मन का आँगन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(६).
जैसा रंग मिले रंग जाए
इसीलिए ये सब को भाए
ऐसे महके जैसे चन्दन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(७).
रब का दूजा रूप कहाए
दुनिया को रंगीन बनाए
कोई भी न इतना पावन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(८).
तोड़ मोह का हर इक धागा
हाथ छुड़ा कर ऐसा भागा
भूला सारे वादे औ वचन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(९).
क्या बोलूँ क्या उसको मानूँ
बेशकीमती सबसे जानूँ
वारूँ उसपे अपना तन मन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !
(१०).
यौवन का आधार वही है
सपनो का संसार वही है
उसके बिना जवानी विरहन
ऐ सखी साजन? न सखी बचपन !

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श्री अम्बरीश श्रीवास्तव

(अ)

कुण्डलिया

 नदिया तीरे झूलता, डाली उसके हाथ,
निश्छल निर्भय बालमन, बाल-वृन्द के साथ,
बाल-वृन्द के साथ, जोश की बहती धारा,
है कदम्ब की छाँव, सुशीतल नदी किनारा,
अल्हड़ है जल धार, मगन कान्हा की रधिया,
ले बचपन का रूप, साथ मुस्काए नदिया.. 

(ब)

"बचपन के दोहे"

जीते हैं हम जिन्दगी, आज सभी हैं व्यस्त.
भूल गये क्यों बचपना, जो ना होगा अस्त..

माँ की गोदी में पले, पाया सबका प्यार.
माटी की खुशबू मिली, सबका नेह दुलार..

माँ का आँचल खींचते, या दादी के पान.
कत्था चूना एक हो, चाचू  खींचे कान..

रंग बिरंगी तितलियाँ, पा फूलों के पास.
पीछे-पीछे भागते, लगतीं सबसे ख़ास..

जुगुनू पकड़े थे कई, किया कांच में बंद.
उजियारा जग ना हुआ , आया ना आनंद..

बारिश में थे भीगते, थी कागज़ की नाव.
चींटे थे माँझी बने, उन्हें दिलाते भाव..

काँधे पर लाठी धरी, पहुँचे अपने बाग़.
छोटे मामा साथ में, होती भागम-भाग.. 

टार्च नहीं थी पास में, राहों में थे नाग.
जलता टायर साथ ले, जाते थे हम बाग़.. 

भूत प्रेत का डर नहीं, हिम्मत थी भरपूर.
कालू कुत्ता साथ में,  सारा भय काफूर..

ऊँच-नीच का भेद नहिं, मिल-जुल खेलें खेल. 
झगड़ा इक पल में कभी, दूजे पल था मेल..

आखिर कैसे हम बड़े, करते कैसे खेल .
बचपन से लें प्रेरणा, दिल से कर लें मेल..

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श्रीमती वंदना गुप्ता

निश्छल मधुर सरस बचपन

हँसता गाता मेरा बचपन

 

अब कहाँ से तुझे पाऊँ मैं बचपन

ढूँढ रहा था कब से तुझको

भटक रहा था पाने को कबसे

बेफिक्री के तार कोई फिर से जोड़े

खाएं खेलें हम और सब कुछ भूलें

चिंताओं का अम्बार ना जहाँ हो

भूली बिसरी याद ना जहाँ हो

मस्ती का सारा आलम हो

गर्मी सर्दी की परवाह नहीं हो

बीमारी में भी जोश ना कम हो

बचपन की वो हुल्लड़ बाजी मचाऊँ

कभी कुछ तोडूं कभी छुप जाऊँ

पर किसी के हाथ ना आऊँ

कैसे वो ही बचपन लौटा लाऊँ

उम्र भर जुगत भिड़ाता रहा

आज वो बचपन मुझे

वापस मिल गया

पचपन में इक आस जगी है

मेरे मन की प्यास बुझी है

हँसता गाता बचपन लौट आया है

नाती पोतों की हँसी में खिलखिलाया है

शैतानियाँ सारी लौट आई हैं

नाती पोतों संग टोली बनाई है

हर फिक्र चिंता फूंक से उड़ाई है

हर पल पर फिर से जैसे

निश्छल मुस्कान उभर आई है

तोतली बातें मन को भायी हैं

अपने पराये की मिटी सीमाएं हैं

भाव भंगिमाएं भा रही हैं

खेल चाहे बदल गए हैं

कंचे ,गुल्ली डंडे की जगह

कंप्यूटर, क्रिकेट ने ले लिए हैं

पर इनमे भी आनंद समाया है

जो मेरे मन को भाया है

लडाई झगडे वैसे ही हम करते हैं

जैसे बचपन में करते थे

कभी कट्टी तो कभी अब्बा करते हैं

बचपन के वो ही मधुर रंग सब मिलते हैं

जो मेरी सोच में पलते हैं

तभी तो बचपन को दोबारा जीता हूँ

देख देख उसे हर्षित होता हूँ

जब मैं खुद बच्चा बन जाता हूँ

तब बचपन को फिर से पा जाता हूँ

हाँ मैंने तुझको पा लिया है

बचपन को फिर से जी लिया है

लौट आया वो मेरा बचपन

प्यारा प्यारा मनमोहक बचपन

निश्छल मधुर सरस बचपन

हँसता गाता मेरा बचपन

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श्री अविनाश बागडे

 

बचपन मुझे बुलाता है

अरे!! समय तू जरा ठहर जा,

बचपन तुझे बुलाता है.
छोड़ जो आया हूँ पीछे,
वो मधुबन मुझे बुलाता है.
 
बड़ा भला लगता है जब भी   
याद करे उन लम्हों की.
उन्ही महकती यादो का,
वो गुलशन मुझे बुलाता है
 
महल रेत के बनते थे,
और गर्दे से याराना था.
जहा मचलते फिरते थे,
वो आँगन मुझे बुलाता है.
 
परसादी के लालच में हम,
मां संग मंदिर जाते थे.
मंदिर के उन घंटों का,
वो गुंजन मुझे बुलाता है.
 
काट चिकोटी खीँच दुपट्टा,
सबको बहुत सताते थे.
कुट्टी कर के पुनर्मिलन का,
क्षण वह मुझे बुलाता है.
 
प्यार मियां अब्बू का,उस पे
ममता सुखिया नानी की.
प्यार भरे उन चेहरों का,
अपनापन मुझे बुलाता है.
 
ना कोई चिंता,ना कोई मुश्किल,
अपने मन के राजा थे.
खट्टे-मीठे स्वाद भरा,
वो जीवन मुझे बुलाता है.
 
अरे! समय तू जरा ठहर जा ,
बचपन मुझे बुलाता है.
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श्री धर्मेन्द्र शर्मा

सब बच्चे कल्पना के खेत उगाते हैं,
ना जाने इतनी खाद कहाँ से लाते हैं

उनका आकाश तारों से भरा होता है
बादल के टुकड़े भी पहचान बनाते हैं

सीपी उनके मोतियों का घर होता है,
सब पत्थर पानी की ध्वनि सुनाते हैं

बाप की टूटी कलाई के प्लास्तर पर
बैठ के मुस्कुराते से कार्टून बनाते हैं

उदासियों के लम्हे और कल की चिंता
उनके कहकहों में अचानक खो जाते हैं 

परायी धरती, परायी जुबां पराये लोग
कुछ ही दिनों में उन्हें अपना बनाते हैं

उनकी अनगिनत कहानियां, किस्से
उनके खेतों में फसल से लहलहाते हैं

सब बच्चे कल्पना के खेत उगाते हैं,
ना जाने इतनी खाद कहाँ से लाते हैं
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श्री संजय मिश्रा "हबीब"
(अ)

(१)

जीवन में मेरी वो खुशियों की खान

दुःख से रखा उसने हरदम अनजान

यादें है उसकी ज्यों महका उपवन

ऐ सखी साजन? न सखी बचपन!

(२)

कितनी तो आती है जालिम की याद

उससे है जीवन में क्या मीठा स्वाद

बसता है साँसों में जैसे पवन

ऐ सखी साजन? न सखी बचपन!

(३)

दिल के आकाश में बनकर पतंग

उड़ता है, रहता है, वो मेरे संग

उसमें रमा रहता भोला ये मन

ऐ सखी साजन? न सखी बचपन!

(४)

स्मृतियाँ उसकी टिमटिमाते तारे

मुस्काऊँ संग उसके संझा-सकारे

छाया वो सतरंगी बनके गगन

ऐ सखी साजन? न सखी बचपन!

(५)

छोड़ के मुझको वो जिस दिन गया

जीवन से उजियारा हर ले गया

उसके ही संग काश! बीतता जीवन

ऐ सखी साजन? न सखी बचपन!

(ब)

बचपन... यानि मौज-मस्ती, शिक्षा-दीक्षा, सैर-शरारत... और क्या मज़ा कि ये सब बातें इस महौत्सव में शिद्दत से परिलक्षित हो रही हैं....  (जय ओ बी ओ) मेरी यह प्रस्तुति भी बस एक तरह की शरारत ही है... बचपन के कुछ खुबसूरत लम्हों को अनगढ़ छंदों में गढ़ने की कोशिश रूपी शरारत.... सादर...

बचपन चिनता मुक्त है, बचपन सुख कै धाम

बचपन, अम्बर बादल जस, घुमडत रहि दिन-शाम

 

बाल-काल मन में बस जाही, जीवन सकल अटल सुख पाही

खेलत संगि संग दिन रैना, कबहु न निकसि कटु मुख बैना

राज पाट अउ राजा रानी, गुल्ली डंडा, इत उत पानी

रात दादी के कहिनि सुनऊ, सूर चढ़े सिर तबहि उठऊ

धरि के बस्ता इसकुल भागा, खेलत पाइ ज्ञान कै धागा

संझा किरकिट, बांटी, भौरा, आमा, जामा निम्बू, औंरा

 

अमराई में जाइ के, पत्थर केरी तोड़

घर कुम्हार का राह में, सूखत मटकी फोड.

 

उपवन बीच कटे इतवारा, खेला, कूदा, जीता, हारा

दादाजी के कांधे चढ के, बन जाते जो नट से बढ़ के

भाइ-भगिन सन झूमा झाँटी, एहि लड़कपन कै परिपाटी

झूठ-मूठ के कबहु रिसावा, मातु-पितू का नेह कमावा

जानत कंह का होई चिनता, सुख में बइठे सुख ही बिनता 

छुटपन जइसे गुड कै धानी, मिठ ही पाई मीठ बखानी

 

बाल काल की का कहें, भइया निश्छल बाट

बाल काल ही सुमिर सुमिर, जीवन सारा काट

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श्री सौरभ पाण्डेय

(अ)

जो बीते... तो बीत गये

 

कंधे पर मेरे एक अज़ीब सा लिजलिजा चेहरा उग आया है.. .
गोया सलवटों पड़ी चादर पड़ी हो, जहाँ --
करवटें बदलती लाचारी टूट-टूट कर रोती रहती है चुपचाप.

निठल्ले आईने पर
सिर्फ़ धूल की परत ही नहीं होती.. भुतहा आवाज़ों की आड़ी-तिरछी लहरदार रेखाएँ भी होती हैं
जिन्हें स्मृतियों की चीटियों ने अपनी बे-थकी आवारग़ी में बना रखी होती हैं
उन चीटियों को इन आईनों पर चलने से कोई कभी रोक पाया है क्या आजतक?..
 
सूनी आँखों से इन परतों को हटाना
सूखे कुएँ से पलट कर गुँजती कई-कई आवाज़ों का कोलाज बना देता है
कई-कई विद्रुप चेहरों / भहराती घटनाओं से अँटे इस कोलाज में बीत गये जाने कितने-कितने चेहरे उगते-मुँदते रहते हैं

 

दीखता है.. .  ज्यादा दिन नहीं बीते--
मेरे कंधे पर उग आये इस समय-बलत्कृत चेहरे के पहले
संभावनाओं के टूसे-सा एक मासूम-सा चेहरा भी होता था, ठोला-सा
फटी-फटी आँखों सबकुछ बूझ लेने की ज़द्दोज़हद में भकुआया हुआ ताकता  --भोला-सा
बाबा की उँगलियाँ पकड़ उछाह भरा थप-थप चलता / लोला-सा ..
सोमवार का गंगा-नहान..
इतवार की चौपाल..
धूमन बनिया की दुकान.. बिसनाथ हजाम की पाट...
बुध-शनि की हाट.. ठेले की चाट.. .
...चार आने.. पउआऽऽऽ...  पेट भरउआऽऽऽ... खाले रे बउआऽऽऽ .. !! ..
बँसरोपन की टिकरी..
बटेसर की लकठो.. 
उगना फुआ की कुटकी..
बोझन का पटउरा, शफ़्फ़ाक बताशे
हिनुआना की फाँक
जामुन के डोभे
दँत-कोठ इमली
टिकोरों के कट्टे
बाबा की पिठइयाँ
चाचा के कंधे.. घूम-घुमइयाँ..
खिलखिलाती बुआएँ, चिनचिनाती चाचियाँ
ओसारे की झपकी..
मइया की थपकी
कनही कहानियाँ  --कहीं की पढ़ी, कुछ-कुछ जुबानियाँ.. .
साँझ के खेल
इस पल झगड़े, उस पल में मेल
ओक्का-बोका, तीन-तड़ोका / लउआ-लाठी.. चन्दन-काठी..
घुघुआ मामा.. नानी-नाना.. .
नीम की छाया, कैसी माया / इसकी सुननी, उसको ताना..

आऽऽऽऽऽह...    आह ज़माना ! ..
कंधे-गोदी, नेह-छोह
मनोंमन दुलार.. ढेरमढेर प्यार
निस्स्वार्थ, निश्छल, निर्दोष, निरहंकार .. .

देर तक..
देर-देर तक अब
भीगते गालों पर पनियायी आखें बोयी हुई माज़ी टूँगती रहती हैं
पर इस लिजलिजे चेहरे से एक अदद सवाल नहीं करतीं
कि, इस अफ़सोसनाक होने का आगामी अतीत
वो नन्हा सबकुछ निहारता, परखता, बूझता हुआ भी महसूस कैसे नहीं कर पाया
क्योंकि, क्योंकि... . ज़िन्दग़ी के सूखे कुओं से सिर्फ़ और सिर्फ़ सुना जाता है, सवाल नहीं किये जाते.
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टिकरी, लकठो, पटउरा, कुटकी, बताशे - देसी मिठाइयाँ ;  हिनुआना - तरबूज ;  दँत-कोठ - दाँतों का खट्टे से नम होना ;  टिकोरे - अमिया, आम का कच्चा छोटा फल ;  पिठइयाँ - शिशुओं को पीठ पर बैठा कर घुमाना ;  कनही - कानी, अपूर्ण ;  ओक्का-बोका.. ..घुघुआ मामा -  बचपन में खेले जाने वाले इन्डोर-गेम्स !

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(ब)

प्रस्तुत रचना में सनातन कर्म-विधान के अनुसार जीव के कार्मिक-जन्म के कुल आचार को साधा गया है.  जिससे ’कारण’ शरीर का होना संभव हो पाता है. इस ’कारण’ शरीर के सौजन्य से ही एक जीव ’स्थूल’ शरीर के बचपन वाले प्रारूप को ओढ़ता है. यहीं से जीव (मानव) अपने कर्म-फल को निर्बीज करने के उद्येश्य से शरीर-धर्म निभाता हुआ विरक्ति, फिर विमुक्ति,  फिर आनन्द और अंत में बंधन-मुक्ति की राह को अग्रसर होता है.जो कि इस जीवन का मूल है.

इसतरह से, बचपन के प्रति एक नवीन दर्शन-भाव जन्म लेता है. 

 

घनाक्षरी  (जीवन-सत्त्व : बालपन का अभीष्ट)

नाधिये जो कर्म पूर्व, अर्थ दे  अभूतपूर्व
साध के संसार-स्वर, सुख-सार साधिये ॥1॥

साधिये जी मातु-पिता, साधिये पड़ोस-नाता
जिन्दगी के आर-पार, घर-बार बाँधिये ॥2॥

बाँधिये भविष्य-भूत, वर्तमान,  पत्नि-पूत
धर्म-कर्म, सुख-दुख, भोग, अर्थ राँधिये ॥3॥

राँधिये आनन्द-प्रेम, आन-मान, वीतराग
मन में हो संयम, यों, बालपन नाधिये  ॥4॥

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नाधना - उद्येश्यपूर्ण बाँधना ; संसार-स्वर - दृश्य और व्यवहृत होने वाले संसार का कर्म ; राँधना - माँड़ना, (संदर्भ - रोटी बनाने के लिये आटे को माँड़ते हैं) ; वीतराग - स्पृहारहित होना, लगाव से रहित होना

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श्री इमरान खान

(अ)

सूरत भोली बचपन में, मीठी बोली बचपन में.
छूना तितली बचपन में, आँख मिचोली बचपन में,
मज़े की टोली बचपन में, हंसी ठिठोली बचपन में.
सूरत भोली बचपन में, मीठी बोली बचपन में.

पीपल चश्मा लट्टू फिरकी, मिटटी बालू कागज़ किश्ती,
हरदम करते धक्कामुक्की, होती थी बस मस्ती मस्ती
रुत अलबेली बचपन में, डंडा डोली बचपन में,
मज़े की टोली बचपन में, हंसी ठिठोली बचपन में.
सूरत भोली बचपन में, मीठी बोली बचपन में.

बाग़ बगीचे आम के नीचे, भागे माली पीछे पीछे
कंकर ढेले चप्पल जूते, ऊपर फेंके जामुन नीचे,
थे हमजोली बचपन में, सखा सहेली बचपन में,
मज़े की टोली बचपन में, हंसी ठिठोली बचपन में.
सूरत भोली बचपन में, मीठी बोली बचपन में.

चाट समोसे चूरन गुल्ले, हरदम खाते फिर भी फूले,
खुदी पकायें हाँडी चावल, खुदी बनायें छोटे चूल्हे,
मीठी गोली बचपन में, भरी थी झोली बचपन में,
मज़े की टोली बचपन में, हंसी ठिठोली बचपन में.
सूरत भोली बचपन में, मीठी बोली बचपन में.

(ब)

मेरे हर ख्वाब के पर काट गया है बचपन,
लेके सारे वो मेरे ठाट गया है बचपन।
वो हर इक बात में अब्बू से मिरा ज़िद करना,
मिरी हर ज़िद में वो अम्मी का सहारा मिलना।
चंद जो पैसे मिले बस किया बाज़ार का रुख,
घंटों भी नहीं फिर किया घर बार का रुख,
लेके टाफी औ मिरी चाट गया है बचपन,
मेरे हर ख्वाब के पर काट गया है बचपन।

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श्री रवि कुमार गिरी (गुरु जी)

OBO का आवाहन ,

इतना पावन ,
याद दिलाये बचपन के ,
नदिया किनारे ,
बगिया हमारी ,
उसपे किस्से बालपन के ,
डालों पर झूले ,
सब कुछ भूले ,
एक दिन गिर के ,
हाथ पाव तोड़े ,
बिस्तर पे पड़े ,
बन के निगोड़े ,
ठीक हुए तो आई ,
चिक्का की बारी ,
इस बार टूटी ,
बाईं टांग हमारी ,
फिर खाई कसम अनूठी ,
आगे चल के पड़ गई झूठी
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गणेश जी "बागी"
(अ)
आल्हा : एक प्रयास

आँख खुली त माँ नहीं देखा,
समय दिया चलना सिखलाय |

टूटी छान बाप औ बेटा,
खाए कभी भूखे सो जाय |

सेठ क बापू करे चाकरी,
दिन के दस बस लियो कमाय |

एक तो थोड़ी मिले दिहाड़ी,
दूजे लत दारु लग जाय |

इ तो भईया वही कहावत,
कोढ़ में खाज होई जाय |

पढ़ना लिखना मैं ना जानू,
बड़े लोगन क बड़हन बात |

कलम से हो ना सकी दोस्ती,
काम प बापू दिये लगाय |

बत्तीस टका मालिक देता,
हमहू अब अमीर कहलाय |

कैसी ममता, कैसा दुलार,
कोई मुझको दो समझाय |

दस साल में आई जवानी,
भूलल बचपन जोहल जाय |

छान=छप्पर, चाकरी=नौकरी, टका=रुपया, भूलल=भूला, लापता, गुमशुदा, जोहल=ढूँढना, खोजना |
(ब)
गुल्लक

 

मेरे बचपन का एक साथी,
मिट्टी का यह गुल्लक,
जाने क्यों संभाल कर रखा हूँ ,
आज भी २० नये के सिक्के,
हां हां, वही पीले वाले गोल से,
जिस पर कमल का फूल होता था,
मुझे वो बहुत ही प्यारे थे,


रोज एक पापा से मिलता था,
याद है उन सिक्कों के बदले,
१०० का नोट भी ना लेता था,
आज भी कुछ पीले सिक्के,
सहेज कर रखे होगा,
मिट्टी का यह गुल्लक,

 

पर उसे निकालने के लिए,
तोड़ना होगा यह गुल्लक,
पर नहीं तोड़ सकता,
एक को पाने के लिए,
दूसरे को नहीं खो सकता,
मेरे बचपन का एक साथी,
मिट्टी का यह गुल्लक,

********************************************************************************************************************************************

श्रीमती शन्नो अग्रवाल

मेरे बचपन बता तू चला क्यों गया

इस जमाने के गम भी हमें दे गया  

आज तुझसे हम फिर रूबरू हो गये

सबके किस्से-कहानी शुरू हो गये

न जाने कब वो तेरी कड़ी खो गयी

वो हँसी खो गयी मैं बड़ी हो गयी  

छप-छप करते थे पानी में बरसात के 

नाव खेते थे कागज की हम हाथ से 

छल-कपट के बिना जिंदगी का भरम

वो भोला सा दिल मिट्टी सा नरम   

जादू नगरी में चंदा और तारों का घर

जहाँ पे लगती नहीं बच्चों को नजर

रोशनी चाँदनी की हर डगर में भरी  

जहाँ जुगनू सी उड़ती थीं नन्ही परी

ढूँढती हूँ वो सुकूं पर अब मिलता नहीं

फूल कोई भी मुरझा के खिलता नहीं  

वो बेफिकरी के लम्हे सभी खो गये  

तू कहीं खो गया और हम कहीं खो गये l

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अन्वेषा अन्जुश्री


मेरा मन..

क्या अभी भी है उसमें बचपन ?

हर कोई इसे सुन्दर लगता,

हर किसी पर यह विश्वास है करता,

न धीरता,

न चतुरता,

न कटुता,

न बातों को घुमा - फिरा कर 

कहने की योग्यता ,

न समझने की यौग्यता !

मनुष्य जाति के इस व्यस्क समुदाय

का ही तो है यह अंग...

फिर क्या यह बच्चा है 

या

है यह विकलांग?

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श्रीमती आराधना

दिखता नही वो मुझे अब

बस सम्भाल कर रखता है  
उस गहरी  नींव की तरह
जिस पर इमारतें साल-दर-साल
बुलंदी से खडी रहती हैं
 
बचपन,
एक सुनहरे सपने के मानिंद
आँखों  में तैरता है, और 
पुतली की फ़िरत की तरह
बस साथ्-साथ चलता है
 
हाँ,  महसूस होता है
कभी कभी
अपने बच्चों को जब 
उन्ही पहचानी सी हरकतों  पर
झिरक देती हूँ
 
तो यूं झलकता है  मुस्कुराहट में अपनी 
कि दुबारा जी लेती हूँ  
बरसों पुराना वो पल
जो बचपन में 
इतना प्यारा न था
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नोट :- कुछ तकनिकी त्रुटियों की वजह से संभव है किसी सदस्य की रचना छुट गई हो, तकनिकी कमियों के निवारण हेतु हम अपने तकनिकी टीम से परामर्श कर रहे है |

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Replies to This Discussion

गणेश,

शाबाश...महा उत्सव में रचित सभी रचनाओं का संकलन आपने बखूबी यहाँ प्रस्तुत किया है :) इसके लिये बहुत बधाई !

बहुत बहुत आभार शन्नो दीदी !

आभारी हूँ। आपके इस प्रयास से एकजाई सब कुछ प‍ढ़ने को प्राप्‍त हो सका।

धन्यवाद आदरणीय तिलक राज कपूर जी !

शानदार और स्तुत्य प्रयास | हम सब की और से हार्दिक आभार | संकलन पठनीय संग्रहणीय और ओ बी ओ की दिनानुदिन बढती ऊंचाई को प्रदर्शित करता है !!

बहुत बहुत आभार मित्र अरुण अभिनव जी !

धन-धन भये.. .

धन्यवाद हमारे पाइये !

इस प्रस्तुति की कइयों को बेसब्री से प्रतीक्षा थी.

 

एक अनुरोध : अतुकांत कविताओं की प्रस्तुति सेंटर-अलाइनमेंट में प्रभावशाली नहीं लगती.  इस तरह की कविताओं की प्रत्येक पंक्ति अक्सर विशेष अर्थ संप्रेषित करती है जो सेंटर-अलाइनमेंट के कारण उभर नहीं पाते. अतः, अनुरोध है कि अतुकांत प्रस्तुतियों को लेफ़्ट-अलाइनमेंट में कर दिया जाय.

बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सौरभ भईया जी !

mera ek kavita chhut gaya hain

 

गुरु जी, तकनिकी दिक्कतों से आपकी रचना छुट गई होगी, आप मुझे मेल कर दीजिये, शामिल कर दिया जायेगा !

का देव, अबहिंयों गयवा दुधवा देता है ???

मैं नई हूँ इस साईट पर..आपने मेरी कविता का चयन किया और उसे यहाँ शामिल किया इसके लिए बहुत बहुत आभार व्यक्त करती हूँ  :)

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Shyam Narain Verma commented on Sushil Sarna's blog post शर्मिन्दगी - लघु कथा
"नमस्ते जी, बहुत ही सुन्दर और ज्ञान वर्धक लघुकथा, हार्दिक बधाई l सादर"
10 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted blog posts
21 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted blog posts
21 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मनन कुमार सिंह जी। बोलचाल में दोनों चलते हैं: खिलवाना, खिलाना/खेलाना।…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आपका आभार उस्मानी जी। तू सब  के बदले  तुम सब  होना चाहिए।शेष ठीक है। पंच की उक्ति…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"रचना भावपूर्ण है,पर पात्राधिक्य से कथ्य बोझिल हुआ लगता है।कसावट और बारीक बनावट वांछित है। भाषा…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदरणीय शेख उस्मानी साहिब जी प्रयास पर  आपकी  अमूल्य प्रतिक्रिया ने उसे समृद्ध किया ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"आदाब। इस बहुत ही दिलचस्प और गंभीर भी रचना पर हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब।  ऐसे…"
yesterday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"जेठांश "क्या?" "नहीं समझा?" "नहीं तो।" "तो सुन।तू छोटा है,मैं…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"हार्दिक स्वागत आदरणीय सुशील सरना साहिब। बढ़िया विषय और कथानक बढ़िया कथ्य लिए। हार्दिक बधाई। अंतिम…"
yesterday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"माँ ...... "पापा"। "हाँ बेटे, राहुल "। "पापा, कोर्ट का टाईम हो रहा है ।…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-118
"वादी और वादियॉं (लघुकथा) : आज फ़िर देशवासी अपने बापू जी को भिन्न-भिन्न आयोजनों में याद कर रहे थे।…"
Thursday

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