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        ज्वालाशर छंद

१६ ,१५ पर यति अंत में दो गुरू (२२)

**********************************************

 

संकीर्णताओं से बचाती, निष्काम कर्म भावना ही.

हो जायें प्रवृत्त मनुज सभी, अधार हो सदभावना ही.

कर्तव्य का बस बोध होवे,इच्छा न कुछ पाने की हो,

संकल्पना कहती सदा ये,आशा सुधर जाने की हो.

 कोई मार्ग खोजें मुक्ति का,आशय जीवन का यही है.

सद्कर्म से सम्भव बने यह,विचार दर्शन का सही है.

कल्याण का है भाव जिसमे,मोक्ष पथ पर वह बढ़ेगा.

सद्कर्म पर जो चल रहे नर,हर कोई गाथा पढ़ेगा.

ना हो अहित मम कर्म से कुइ,परहित हो कुर्बां जवानी.

हमें वास्ता क्या कर्मफल से,सद्कर्म में आये रवानी

शैलेन्द्र कुमार सिंह "मृदु"

 

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Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 30, 2012 at 9:38pm

आदरणीय मुकेश  सर प्रोत्साहन हेतु कोटि कोटि आभार

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 30, 2012 at 9:38pm

आदरणीय सतीश सर प्रोत्साहन हेतु कोटि कोटि आभार

Comment by Mukesh Kumar Saxena on April 30, 2012 at 9:23pm

कर्म में यह भावना हो तो कोई बात बने ।

निष्काम हर कामना हो तो कोई बात बने ।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on April 25, 2012 at 12:58pm
भाई शैलेन्द्र जी

हलाकि आपने श्री चंद्रशेखर सिंह "चन्द्र" जी की पुस्तक छंद मंजूषा के उस पृष्ठ की स्कैन्ड कॉपी प्रेषित की है जिस में "ज्वालाशर" छंद के शिल्प के बारे में जानकारी दी गई  है. इस सम्बन्ध में मेरी आदरणीय अम्बरीश भाई जी से भी बात हुई. दरअसल "छंद प्रभाकर" सहित किसी भी अन्य प्राचीन ग्रन्थ में इस छंद का उल्लेख नहीं मिलता. यह छंद वास्तव में "बाण सवय्या" है जिसे किन्ही कारणों से "ज्वालाशर" छंद का नाम दे दिया गया है. भाई काहन सिंह नाभा द्वारा रचित "गुरु शब्द रत्नाकर महाकोश" के पन्ना नंबर ६५३ में इस छंद का उल्लेख किया गया है:

सवय्ये का दूसरा रूप है "बाण", लक्षण: प्रति चरण ३१ मात्राएँ, १६  और १५ पर विश्राम. अंत में दो गुरु.
.
उदहारण:       
.
अमृत नाम तुम्हारा ठाकुर, हेहु महारस जनहि पीयो
जनम जनम चूके मैं मारे, दुरतु बिना सिय मरतु बीयो    

.
अत: मेरे निजी मत है कि शिल्प की दृष्टि से यह  "बाण सवय्या" छंद के ज्यादा नज़दीक है. .  

Comment by satish mapatpuri on April 25, 2012 at 1:47am

कल्याण का है भाव जिसमे,मोक्ष पथ पर वह बढ़ेगा.

सद्कर्म पर जो चल रहे नर,हर कोई गाथा पढ़ेगा.

बहुत खूब मृदु जी .... बधाई

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 24, 2012 at 11:03pm

आदरणीय प्रदीप सर सादर नमन, प्रोत्साहन हेतु कोटि कोटि धन्यवाद

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 24, 2012 at 10:39pm

संकीर्णताओं से बचाती, निष्काम कर्म भावना ही.

हो जायें प्रवृत्त मनुज सभी, अधार हो सदभावना ही.

bahut sundar sandesh, adarniy mradu ji, badhai. 

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 24, 2012 at 7:17pm

आदरणीय छोटू जी प्रोत्साहन हेतु आपका कोटिशः धन्यवाद

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 24, 2012 at 6:51pm

आदरणीय ARVIND KUMAR TIWARI जी उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार

Comment by ARVIND KUMAR TIWARI on April 24, 2012 at 6:42pm

आदरणीय मृदु जी निष्काम कृति पढ़ी, आपने बिल्कुल सास्वत सत्य को प्रतिस्थापित किया है अपनी कविता में, हृद्यिक बधाई स्वीकार करें

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