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"ओबीओ लाइव तरही मुशायरा" अंक २३ में सम्मिलित सभी ग़ज़लें (चिन्हित बेबहर मिसरों के साथ)

लाल रंग से चिन्हित शेअर/मिसरे बेबहर हैं
नीले रंग
से चिन्हित शेअर/मिसरे ऐब युक्त हैं

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(श्री तिलक राज कपूर जी)

हुस्‍नो-अदा के तीर के बीमार हम नहीं
ऐसी किसी भी शै के तलबगार हम नहीं।

हमको न इस की फ्रिक्र हमें किसने क्‍या कहा
जब तक तेरी नज़र में ख़तावार हम नहीं।

वादा किया कली से बचाते रहे उसे
बेवज्‍़ह राह रोक लें वो ख़ार हम नहीं।

जैसा रहा है वक्‍त निबाहा वही सदा
ये जानते है वक्‍त की रफ़्तार हम नहीं

अपना वज़ूद हमने मिटाकर उसे कहा
''लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं''

चेहरा पढ़ें हुजूर यहॉं झूठ कुछ नहीं
कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।

हमको सुने निज़ाम ये मुमकिन नहीं हुआ
तारीफ़ में लिखे हुए अश'आर हम नहीं।

उम्‍मीद फ़ैसलों की न हमसे किया करें,
खुद ही खुदा बने हुए दरबार हम नहीं।

बादल उठे सियाह, न बरसे मगर यहॉं
जिसकी वो मानते हैं वो, मल्‍हार हम नहीं।

फि़क़्रे-सुखन हमारा ज़माने के ग़म लिये
हुस्‍नो अदा को बेचते बाज़ार हम नहीं।

शीरीं जु़बां कभी न किसी काम आई पर
झूठे किसी के दर्द के ग़मख्‍़वार हम नहीं।

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(श्री मोहम्मद रिज़वान खैराबादी जी)

तुमने उठाई राह में दीवार, हम नहीं..
फिर भी ये कह रहे हो गुनाहगार हम नहीं...

उम्मीद कर रहा हूँ वफ़ा की उन्ही से मैं....

कहते हैं जो किसी के तलबगार हम नहीं...

दिल में नज़र में तुम हो तो फिर किस तरह कहें...

ऐ दोस्त अब भी करते तुम्हे प्यार हम नहीं....

दुनिया की ठोकरों ने गिरा कर ही रख दिया..

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं....

वो तो शगुन में आज अंगूठी भी दे गए,..

हम लाख कह रहे थे कि तैयार हम नहीं...

हम उनकी धुन में हैं तो ज़माने की क्या खबर..

दुश्मन लगे हैं घात में हुशियार हम नहीं...

होंगे तुम्हारे हुस्न के मारे हुए बहुत..

लेकिन तुम्हारे इश्क में बीमार हम नहीं....

फिर कौन सी क़सम पे उन्हें ऐतबार हो...

जब वो समझ रहें हैं कि ग़म ख्वार हम नहीं...

"रिजवान" कुछ कहें न तुम्हारी जफा पे हम..

तुम क्या समझ रहे हो समझदार हम नहीं.....
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(श्री अशफाक अली गुलशन खैराबादी जी)

करते हैं उनसे प्यार का इनकार हम नहीं
दिल कर रहा है दर्द का इज़हार हम नहीं

दिरहम नही है पास ख़रीदार हम नहीं

यूसुफ के और होंगे तलबगार हम नहीं

हमने वतन के वास्ते अपना लहू दिया

उनकी नज़र में फिर भी वफादार हम नहीं

कैदी बना लिया है रक़ीबों ने शहर में

लो अब तुम्हारी राह में दिवार हम नहीं

कैसे खुलेगा राज़ हकीक़त का दोस्तों

आइनये ख़ुलूस का इज़हार हम नहीं

सच बोलने पे आज भी सूली मिले तो क्या

अल्लाह जनता है ख़तावार हम नहीं

बातिल परस्त दिल न सुने और बात है

अपनी नज़र में अब भी गुनहगार हम नहीं

एक जान थी जो वक्फ़ तेरे नाम कर चुके

फिर भी तेरी निगाह में दिलदार हम नहीं

कायम रहा है हम से भरम बरगोबार का

"गुलशन" में बन के फूल रहे ख़ार हम नहीं

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(श्री राणा प्रताप सिंह जी) 

कह दे खताएं कर के खतावार हम नहीं
ऐसी ज़मात के तो तरफदार हम नहीं|

कल कह दिया है हार के सूरज ने शब् से ये

लो अब तुम्हारी राह मे दीवार हम नहीं

मत देख हमको शक की निगाहों से ऐ सनम

हर बार हमीं थे मगर इस बार हम नहीं

बेहतर लगे तो मान ले तू मेरा मशविरा

हामी की तेरी वरना तलबगार हम नहीं

पहलू मे तेरे बैठे हैं कुछ तो ज़रूर है

सोहबत की तेरी वरना तो हक़दार हम नहीं

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(श्री मोहम्मद नायाब जी)

निकले कोई भी राह से दिवार हम नहीं
लोगों वफ़ा के फूल हैं अब ख़ार हम नहीं

अब आशिकी में तेरे गिरफ्तार हम नहीं

इस शहर में बहुत हैं तेरे यार हम नहीं

उनके जो ग़म मिले उन्हें अपना बना लिया

फिर भी वो कह रहे है कि ग़मख्वार हम नहीं

दिल में छुपा के उनके सभी राज़ रख लिए

फिर भी वो कह रहें हैं वफादार हम नहीं

अमृत की शक्ल में यहाँ क्या-क्या मिला के आज

वो ज़हर बेचते हैं ख़रीदार हम नहीं

हाँ ज़हन चाहता था भुला दें तुम्हे मगर

दिल हम से कह रहा था कि तैयार हम नहीं

"नायाब" जा रहा हूँ जहाने ख़राब से

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

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(श्री सौरभ पांडे जी)

कैसे करो वज़ू कि वो जलधार हम नहीं
गंगा करे गुहार, गुनहग़ार हम नहीं

जिनके लिये पनाह थे उम्मीद थे कभी

वोही हमें सुना रहे ग़मख़्वार हम नहीं

हमने तुम्हारी याद में रातें सँवार दीं
अबतो सनम ये मान लो बेकार हम नहीं

दुश्वारियाँ ख़ुमार सी तारी मिजाज़ पे
हर वक़्त है मलाल कि बाज़ार हम नहीं

हक़ मांगने के फेर में बदनाम यों हुए
लो, बोल भी न पा रहे खूँखार हम नहीं

हम शख़्शियत पे दाग़ थे ऐसा न था, मग़र -
’लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नही’

मासूमियत दुलार व चाहत नकार कर
जो बेटियों पे गिर पड़े ’तलवार’ हम नहीं
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(श्री आदित्य सिंह जी)

माना कि आपकी तरह हुशियार हम नहीं,
अपनों से आपकी तरह गद्दार हम नहीं..

हालां कि ज़िंदगी में हैं दुश्वारियाँ बहुत,
ईमान बेचने को हैं तैयार हम नहीं..

दिल में जो बात है, वही लब पे है हर घड़ी,

दिल-साफ़ आदमी हैं, कलाकार हम नहीं..

हाँ जाम हाथ में है, शराबी न समझना,
महमान-ए-मयकदा हैं, तलबगार हम नहीं..

टुकड़ों को जोड़-जोड़ के, फिर दिल बना लिया,
फिर से लगाएं इतने भी दिलदार हम नहीं..

इल्ज़ाम-ए-तर्क-ए-ताल्लुक ख़ुद पे लगा लिया,
"लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.."

देखी जहां मुसीबत, हमको चला दिया,
हैं हमसफ़र तेरे, कोई हथियार हम नहीं..
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(श्री अविनाश बागडे जी)
(१)
किसी का क़त्ल कर सके औजार हम नहीं,

कोई  डराए  इतने  भी  लाचार  हम नहीं.
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" टुकडे जिगर के ",होती है जो हमसे अड़चने,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.
--
'कल्पना' वो कर नहीं सकते ' उड़ान ' की.
जैसे थे कल वो आज इश्तेहार हम नहीं.
--
झूठा बयान आपका गुजरा है नागवार,
दहशत के दरिंदों के मददगार  हम नहीं.
--
समझा रहे हो हमको सियासत के दांव-पेंच!
इतने भी ज़माने में समझदार हम नहीं.
--
नदी है साथ ले के चले जायेंगे कहीं,
बेवक्त डूबा दें तुम्हे मंझधार   हम नहीं.
--
आते हैं पाई-पाई बन के मुफलिसी के काम,
खनके किसी भी जेब में कलदार हम नहीं.
--
माना की सज न पाए हम गुलदान में मगर,
चुभ जाये किसी पांव में वो खार हम नहीं.
--
हम जैसे बन सकोगे ?,बन कर के देखिये,
हर कोई निभा सके वो किरदार हम नहीं.
---
'अविनाश ' कार के लिये,तू ढूंढ़ के तो ला,
बिन ड्रायव्हर के चल पड़े सरकार हम नहीं.
****
(२)
दम ही निकल गया है तो दमदार हम नहीं.
बिक रहें हैं रोज खरीददार हम नहीं.
--
सेवक ये शब्द खो चुका है आज अपने अर्थ!
नेता ही हैं, किसी के मददगार हम नहीं.
--
राजनीती जेल के बिना जलील है !
अच्छा ये दाग, सच में दागदार हम नहीं.
--
जूनी- पुरानी बेचती हो चीजे भागवान!
हम को न बेच आना के भंगार हम नहीं..
--
मिल गया है वोट तुम्हे ,जीत भी गए
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.
***********
(3)
अच्छी जिसे कहोगे वो सरकार हम नहीं.
दें सकें हैं सबको यूँ घर-बार हम नहीं.
--
आज भी रवायतों के जाल में फंसे!!
आने खुली हवा में क्यूँ तैयार हम नहीं.
--
इज्ज़त के डर से कोख में करतें हैं क़त्ल जो,
ऐसे गिरे-ओ-बुजदिल , बीमार हम नहीं.
--
कर दिया है वक़्त ने यूँ हमको खोखला,
म्यान दिखावे की है ,तलवार हम नहीं.
--
सूरत हो चाहे ,कोई भी ऐ !मादरे-वतन.
तेरा कभी सहेंगे तिरस्कार हम नहीं.
--
नव्-तपे का सूरज हमको डरायेगा !
सडकों पे बिछने वाले कोलतार हम नहीं.
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हर पल हमारी याद तुम्हे बोर यूँ करे,
इतने भी मेरी जान! यादगार हम नहीं.
--
पहुँचोगे तुम यकीनन अच्छे मक़ाम पे ,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.
--
जुगाड़ अदीबों के घर भी, कर गया है घर.
फिर भी कहें वो लेते, पुरस्कार हम नहीं.
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(श्री संजय मिश्र हबीब जी)

घुट-घुट के जी रहे करें प्रतिकार हम नहीं।
अपने ही उन्नयन के भी आधार हम नहीं।

माजी को याद करना मुनासिब सही मगर,

झांसी से जो उठी थी वो तलवार हम नहीं?

दम बाजुओं का भूल गए, और कह रहे,

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं।

खूँ की जमीं को खूब जुरूरत पड़ेगी, हाँ!
खूँ को बहायें यार यूं बेकार हम नहीं।

दिन रात सुबह शाम सभी राज खुल रहे,
कैसे कहें 'हबीब' के बीमार हम नहीं।
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(डॉ सूर्या बाली सूरज जी)

तेरे सिवा किसी के तलबगार हम नहीं।
फिर भी तेरी नज़र में वफ़ादार हम नहीं॥

सींचा था जिस चमन को बहुत अपने ख़ून से,

अब उस चमन के फूल के हक़दार हम नहीं॥

क्यूँ लेके जा रहे हो मसीहा के पास तुम,

बस हिज़्र में उदास हैं बीमार हम नहीं॥

तोहमत लगे सवाल उठे चाहे जो भी हो,
अपनी नज़र में अब तो गुनहगार हम नहीं॥

जिस सिम्त चाहते हो चले जाओ शौक़ से,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं॥

वो गालियां दे मुझको बुरा या भला कहे,

उसकी किसी भी बात से बेज़ार हम नहीं॥

तुझपे ही जां निसार किया दिल दिया तुझे,
ये बात और है के तेरा प्यार हम नहीं॥

बस यूं ही भाव देखने हम भी निकल पड़े,
बाज़ार बिक रहा है ख़रीदार हम नहीं॥

रहते हैं अब भी शान से हम कब्रगाह में,

माना के पहले जैसे जमींदार हम नहीं॥

कलियों के देख भाल में गुज़री ये ज़िंदगी,
तन्हा उन्हे जो छोड़ दे वो ख़ार हम नहीं॥

“सूरज” बग़ैर उसके भी जीकर दिखाएंगे,
उससे कहो के इतने भी लाचार हम नहीं॥

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(श्री अहमद शरीफ कादरी हसरत जी)

अब तो तुम्हारे इश्क में बीमार हम नहीं
उल्फ़त में अब तुम्हारी गिरफ्तार हम नहीं

चलना हमारे साथ में दुशवार हे अगर
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

दो पल जो मेरे साथ न ग़र्दिश में रह सके
उनसे तो अब वफ़ा के तलबगार हम नहीं

हालात कह रहे हें क़यामत करीब हे
ग़फलत की फिर भी नींद से बेदार हम नहीं

हमने भी अपने खून से सींचा हे ये चमन
ये किसने कह दिया के वफ़ादार हम नहीं

ज़ुल्मो सितम करे है जो मजहब की आड़ में 
ऐसे गिरोह के तो मददगार हम नहीं

'हसरत' हमें तो प्यार ही आता हें बांटना

ज़ोरो जफा सितम के तरफदार हम नहीं

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(श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी)

तलवे जो चाटते वो वफ़ादार हम नहीं
आशिक हैं किंतु इश्क में बीमार हम नहीं

आखिर ढहे हम आज मुहब्बत के बोझ से
लो अब तुम्हारी राह के दीवार हम नहीं

लिपटे हुए हैं राख में पर यूँ न छेड़िए
मुट्ठी में ले लें आप वो अंगार हम नहीं

रोटी दिखा के माँ की बुराई न कीजिए
भूखे तो हैं जरूर प’ गद्दार हम नहीं

पत्थर भी खाएँ आप के, फल आप ही को दें
रब की दया से ऐसे भी लाचार हम नहीं

दिल के वरक़ पे नाम लिखा है बस एक बार
आते जो छप के रोज, हैं अख़बार, हम नहीं

घाटा, नफ़ा, उधार, नकद, मूल, सूद सब
सीखे पढ़े हैं खूब प’ बाजार हम नहीं

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(श्री नफीस अंसारी जी)

मन्सब के मस्नदों के तलबगार हम नहीं
रखते नज़र में दिरहम-ओ-दीनार हम नहीं

आहले ज़मी के दर्द से बेजार हम नहीं

बेशक बुलंदियों के परस्तार हम नहीं

दी हैं ख़ुदा ने फितरते इंसान को लगजिशें

दावा करेंगे क्या की गुनेहगार हम नहीं

रस्मे वफ़ा निभाई मगर इस के बावजूद

तेरी नज़र में साहिबे किरदार हम नहीं

इससे ज्यादा वक़्त बुरा और होगा क्या

ठोकर भी खा के नींद से बेदार हम नहीं

तू चाहे भूल जाए तेरी बात और है

कम होने देंगे दिल से तेरा प्यार हम नहीं

माजी अगर मिसाल है हुस्ने खुलूस की

अब भी किसी के वास्ते आज़ार हम नहीं

भटके हुओं को राह पे लाना मुहाल है

इंसान ही तो हैं कोई अवतार हम नहीं

अपना मिलाप हो न सका यूँ तमाम उम्र

इस पार तुम नही कभी उस पार हम नहीं

पत्थर समझ के क़द्र न कर तू मगर ये सुन

ठुकरा रहा है ऐसे तो बेकार हम नहीं

तुझ पर भरो कर के बहुत खाए हैं फ़रेब

अब ऐतबार करने को तैयार हम नहीं

ले डूबा कश्तियों को तेरा जोम नाख़ुदा

अब देंगे तेरे हाँथ में पतवार हम नहीं

इतना शऊर है की समझ लें भला बुरा

दीवानगी में ज़हन से बीमार हम नहीं

अज्मे बुलंद रखते हैं हालात कुछ भी हों

घबरा के मान लें जो कमी हार हम नहीं

अपना उसूल है कि जो दुश्मन दिखा दे पीठ

उसपर नफीस करते कभी वार हम नहीं

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(श्री अरुण कुमार निगम जी)

(१)

देखें न फायदा यहाँ , व्यापार हम नहीं
सौदे की बात मत करें, बाजार हम नहीं .

पढ़के सबेरे, शाम को फेंका, इधर उधर

सुनो, ख़त हैं पहले प्यार का, अखबार हम नहीं.

गर वक़्त काटना है ,कहीं और काटिए

अजी जिंदगी हैं आपकी, इतवार हम नहीं.

तुमको नज़र न आयेंगे, हम नींव बन गए

लो अब तुम्हारी राह में , दीवार हम नहीं.

दीवान आपका है, रुबाई भी आपकी

अब आपकी ग़ज़ल के, अश'आर हम नहीं.

अब भी बुलाती हैं हमें,गलियों की खिड़कियाँ

ये बात खूब जान लो, लाचार हम नहीं.

नज़रों से जीत लेते हैं हम जंगेमोहब्बत

बेताज बादशाह हैं , तलवार हम नहीं.

***

(2)

चंदन से लिपटे नाग की, फुँफकार हम नहीं
भूले से मत ये सोचना , दमदार हम नहीं .

ओढ़ी है खाल गीदड़ों ने , शेर-बब्बर की
रंग ले बदन को अपने, वो सियार हम नहीं.

हम शंख हैं तू फूँक जरा , इंकलाब ला
घुंघरू की रंग – महल में , झंकार हम नहीं.

गुरु – दक्षिणा में हमने , अंगूठा ही दे दिया
अर्जुन के गांडीव की , टंकार हम नहीं.

कुण्डल-कवच भी हँस के अपने दान दे चुके
हैं शाप - ग्रस्त माना , लाचार हम नहीं.

हमने तो अपनी इच्छा से मृत्यु को चुन लिया
लो अब तुम्हारी राह में , दीवार हम नहीं.

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(श्रीमती राजेश कुमारी जी)

जानम तेरी खता के गुनहगार हम नहीं
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

बेगाना बन के देखा और चेहरा घुमा लिया

लो अब तुम्हारे प्यार में गिरफ्तार हम नहीं

दिल पर लिखाहै खुद मिटाया भुला दिया
छोडो किसी जमीन के अख़बार हम नहीं

अश्कों से सींच कर गुलशन बना दिया
कैसे कहें बहार के हक़दार हम नहीं

जीने दो जी रहे हैं हम जिस मुहाल में

अब तो तेरी वफ़ा के तलबगार हम नहीं

शम्मा जलाई दिल की अँधेरा मिटा दिया
फिर भी तेरी नजर में समझदार हम नहीं

तस्कीन ना मिली मुड़ गए सरे-राहे मैकदा
लो अब तुम्हारी चाह में लाचार हम नहीं

साजे आरजू को बजा कर छुपा दिया

लो अब तुम्हारे साज की झंकार हम नहीं

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(श्री संदीप द्विवेदी वाहिद काशीवासी जी)
(१)

क्खेंगे तुमसे कोई सरोकार हम नहीं;
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं;

जलवा तेरा है ख़ूब, कहाँ तू, हैं हम कहाँ,
हैं शख़्स मामूली अजी फ़नकार हम नहीं;

इतनी सी बात पर तू मुझे तोलने लगा,
क़ीमत है कुछ तो अपनी के बेकार हम नहीं;

वादों के जाल में तेरे हम फंस चुके बहुत,
आएँगे तेरी चाल में इस बार हम नहीं;

माना के बाज़ुओं में है ताक़त तेरे बहुत,
कमज़ोर कुछ ज़रूर हैं लाचार हम नहीं;

हर शर्त है क़ुबूल सिवा एक बात के,
ख़ुद्दारी अपनी छोड़ दें तैयार हम नहीं;

नीलाम हो रही थी वफ़ा एक दिन वहाँ,
उस दिन से जाते हैं कभी बाज़ार हम नहीं;

(२)

वादा किया तो टालते हैं यार हम नहीं;
दिल को तेरे देंगे कोई आज़ार हम नहीं;

हाजत नहीं है हमको के बीमार हम नहीं;
जा लौट जा लेंगे कोई तीमार हम नहीं;

जब तुमने कह दिया तुम्हें स्वीकार हम नहीं;
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं;

हर मोड़ पर धोका ही मिला है हबीब से,
रखते हैं उससे कोई भी दरकार हम नहीं;

ख़ुश्बू गुलों की बन के तेरे गिर्द हम रहें,
चुभ जाए पग में जो तेरे वो ख़ार हम नहीं;

महफ़ूज़ रख ले हमको तू, दिल की किताब हैं,
उस ताक पे रखा कोई अख़बार हम नहीं;

डगमग क़दम ये देख ग़लत सोचता है तू,
हम तो हैं मारे इश्क़ के मैख़ार हम नहीं;

पीते हैं कभी ग़म में कभी यूँ ही बेवजह,
साक़ी तेरी अदा के तलबगार हम नहीं;

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(श्री दिलबाग विर्क जी)


इस मतलबी जहां के तलबगार हम नहीं 
दिल की सुनें सदा, करें व्यापार हम नहीं |

चाहा तुझे, पूजा तुझे , माना खुदा तुझे 
ये बात और है कि तेरा प्यार हम नहीं |

तू ऐतबार कर, जान पर खेल जाएंगे
वादा करें , निभाएं न , सरकार हम नहीं |

अपने उसूल छोड़ दें मंजूर कब हमें 
हर बात पर झुके जो, वो किरदार हम नहीं |

आजाद कर रहे तुझे कसमे-वफा से हम
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं |

है प्यार तो गुनाह यहाँ , रीत है यही
कैसे कहें कि विर्क गुनहगार हम नहीं |
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(श्री प्रवीण कुमार पर्व जी)

होंगे तेरे दीवाने कई यार हम नहीं,
बाजारे इश्क में सरे बाज़ार हम नहीं ll

दिलको लगा के तुझसे कई दर्द ले लिए,
तुझपे किया यकीन खतावार हम नहीं ll

लफ़्ज़ों पे प्यार के सभी इनकार लिख दिया, 

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं ll 

इल्ज़ामे इश्क तुझपे है मुजरिम कहाँ है हम,

फिर क्यों सफाई दें के गुनागार हम नहीं ll

पहला है तू ही आखरी मेरा खुदा सनम,

अब तो बता कैसे तेरे हक़दार हम नहीं ll

जब से कहा हैं अलविदा ए जिंदगी तुझे,

अरसा हुआ है ‘पर्व’ के बेजार हम नहीं ll—
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(श्री सतीश मापतपुरी जी)

(1)

माना तुम्हारे प्यार का हक़दार हम नहीं.
कैसे कहें कि इश्क में गिरफ़्तार हम नहीं.

किश्ती से क्यों उतर रहे यकीन मानिए.
साहिल हूँ मान लीजिये, मंझधार हम नहीं.

दिल से निकाल के भी क्या निकाल पायेंगे.
दिल है कोई मकाँ नहीं , किराएदार हम नहीं.

तेरे शहर को छोड़कर खुद जा रहे हैं हम.
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.

मुमकिन ये कैसे है कि दिल बददुआ ना दे .
एक आम सा इंसान हैं,  अवतार हम नहीं      

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(2)

मत भागिए खुद्दारा हथियार हम नहीं.
छोटा ही आदमी सही बेकार हम नहीं.


हर शाम ही रोती हैं महंगाई का रोना.
कैसे बताएं उनको सरकार हम नहीं .


फूलों को लगाते हैं जुड़े में प्यार से .
हमसे बचाते दामन ,कोई खार हम नहीं.


माना की आप ही हैं अभी देश के खुदा.
सूरत बदल सकती है लाचार हम नहीं.


फरमाइशों से आपकी आज़िज हूँ सनम.
अजी आपके दिवाने हैं, बाज़ार हम नहीं .


मेरी तरफ से आपको आज़ादी है सनम.
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.

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(श्री राकेश कुमार गुप्ता जी)
(१)
माना तुम्हारी वाह के, हकदार हम नही,
पल में भुलाये जाएँ, वो फनकार हम नही..........  

क्यों सूलियों पे हमको चढाते हो बारहा,
सबको खबर है यारा, गुनाहगार हम नही.............

कशमीर से कन्याकुमारी तक सब हमारा है,
फकत यूपी, उड़ीसा या बिहार हम नही.............

गरजो, उठो, बतादो, सत्तानसिनों को,
अब और जुल्म सहने, तैयार हम नही.............

तख्तो- ताज पल में, बदल दे वो गीत है,
सिर्फ प्यार के ही यारा, अशआर हम नही .............

सोचता है मेरा, ज़िहन भी बगावतें,
तुम ठूंसो जिसमे अपनी, वो भंगार हम नही.............

अपनी पे गर आ जाएँ, कलम के हम सिपाही,
जमाना न बदल दे, वो हथियार हम नही...........

जो तू डगर ना आया, ना कहेंगे हम "दीवाना"

''लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं''.............


(२)
वादा जो तोड़ दे ऐसे यार हम नही,
ये बात अलग है कि तेरा प्यार हम नही,

हर हाल में हर हाल ही खुश रहते हैं सदा,

पतझड़ में चली जाए वो बहार हम नही,

माना की आज चार सू आस्तीनों में सांप हैं,

पीठ में खंजर गढाए गद्दार हम नही,

गंगा की तरह से अटल मेरा उफान है,

तेरे रोकने से रुके वो रफ्तार हम नही,

तेरी नौकरी से पेट पलता जानते हैं हम,

गला गरीब का काटे वो हथियार हम नही,

नौनिहाल तेरे राज भूखे पेट सोते है,

भूखा रखे क्यों महंगाई की मार हम नही,

सोती हुई जवानियों अंगड़ाइयाँ तो लो,

ये भागेगे कहेंगे माफ़ करो सरकार हम नही,

सलीब पर चढ़ा के हमे खुश तो बहुत हो,

"लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नही"
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(श्री आलोक सीतापुरी जी)

आहों के, सिसकियों के, खरीदार हम नहीं.
बेजा रविश के तुम हो तलबगार हम नहीं.

जागीर-ए-गम तो हम को विरासत में है मिली,
ये किसने कह दिया कि जमीदार हम नहीं.

ऐसा गुमान होता है आईना देखकर,
आईना खुद मरीज़ है बीमार हम नहीं.

सच्चाई की किताब है पढ़िए वरक-वरक,

जो दिन को कह दें रात वो अखबार हम नहीं

आओ हमारे पास डरो मत गज़ल सुनो,
शायर अदबनवाज़ हैं तलवार हम नहीं.

जैसा तुम्हारा दिल करे वैसा ही तुम करो,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.

दिन में कलाम कहते हैं पढ़ते हैं रात को,

‘आलोक’ हैं अदीब अदाकार हम नहीं.
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(श्री संदीप कुमार पटेल जी)
(१)

लूटे गरीब को जो मक्कार हम नहीं
झूठी न दें दिलासा सरकार हम नहीं

है मुल्क ही मिरा घर दैरो हरम यही
फूंकें चराग से घर गद्दार हम नहीं

सर कर दिये कलम कुछ सिक्के उछाल कर
मजलूम पर चली वो तलवार हम नहीं

यूँ दाम बढ़ रहे हैं माटी और तेल के

सरकार कह रही कि खतावार हम नहीं

राजा कहे प्रजा से कुछ वक़्त दो हमें
ये देश लील जायें बेकार हम नहीं

इंजीनियर बना वो फिरता यहाँ वहाँ
बस वो दिखा रहा है बेकार हम नहीं

जीतो चुनाव वापस हम नाम ले चुके

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

ये कह रहा कसाब गला फाड़ फाड़ के
करते यहाँ विश्राम गिरफ्तार हम नहीं

चूना लगा लगा के सब कुछ मिला जिसे
वो कह रहा कि "दीप" तलबगार हम नहीं
*****
(2)
माँ से दुआ मिली जो बेकार हम नहीं
अब दूर हैं उसी से क्या भार हम नहीं ?

नादान दिल मनाता यूँ संग दिल सनम
तुम फूल हो हसीं गर तो खार हम नहीं

लिखते कभी मिलन तो, फुरकत लिखें कभी
लेकिन न मीर ग़ालिब रसधार हम नहीं

सागर कहे नदी से तुम साथ ले चलो
वीरान इस जगह के बीमार हम नहीं

ताउम्र साथ देंगे ये हाथ थाम कर
जो बीच में डुबा दे मझधार हम नहीं

सब कुछ मिटा गुलों ने खुशबू बिखेर दी
फिर ये कहा कि देखो गुलनार हम नहीं

ख्वाबे महल अटारी सब चूर कर लिए
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

हर रंग देख दुनिया के बोलते सभी
भगवान से महान कलाकार हम नहीं

हम तानसेन हैं न, न बैजु बावरा
जो दीप राग गा दे फनकार हम नहीं
-----------------------------------------------------
(श्री अलबेला खत्री जी)

(१)
माना तुम्हारे सपनों का संसार हम नहीं
फिर भी हैं बन्दे काम के, भंगार हम नहीं

हम लौ हैं इत्तेहाद की, गुल हैं तबस्सुमी

लोहू बहाने का कोई हथियार हम नहीं

मौसम मिजाज़ बदले तो बदले हज़ार बार

ख़ुद को बदलने के लिए तैयार हम नहीं

एहसान कैसे भूलेंगे पब्लिक के प्यार का

फ़नकार हैं अवाम के, सरकार हम नहीं

मत मोल तुम लगाओ यों हाटों पे हमारा

रुपया नहीं, डॉलर नहीं, दीनार हम नहीं

खंजर ये अबरुओं के क्यों दिखा रहे सनम

आशिक़ ही हैं तुम्हारे, गुनाहगार हम नहीं

लीडर लगे हैं मुल्क को खाने की मुहिम में

कैसे बचायें कौम को, अवतार हम नहीं
******************************
************
(२)
माना कि सर पे धारते दस्तार हम नहीं
पर ये न समझना कि सरदार हम नहीं

पीहर पहुँच के पत्नी ने पतिदेव से कहा

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

क्यों मारते हैं हमको ये शहरों के शिकारी

जंगल में जी रहे हैं पर खूंख्वार हम नहीं

डाक्टर की फीस सुनके, एक रोगी रो पड़ा

बोला कि मिलने आ गये, बीमार हम नहीं

तारीफ़ कर रहे हैं तो झिड़की भी झाड़ेंगे

अहबाब हैं तुम्हारे, चाटुकार हम नहीं

मुमकिन है प्यार दे दें व दिल से दुलार दें

मुफ़लिस को दे सकेंगे फटकार हम नहीं

माँ बाप से छिपा, घर अपने नाम कर लें

इतने सयाने, इतने हुशियार हम नहीं
******************************
*************
(३)
ज़र्रे ज़रा ज़रा से हैं, गिरनार हम नहीं
करते हैं काम किन्तु करतार हम नहीं

मक्कारियों पे ख़ुद की तुम्हें गर गुरूर है
हमको भी है सुकून कि मक्कार हम नहीं

चोरों से माल लेके, सिपाही यों कह गये

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

हरि है हमारे उर में, गुरू हैं हरि का द्वार

ये द्वार छोड़, जायेंगे हरिद्वार हम नहीं

पिछली दफ़ा तो भूल से तुझको जिता दिया
झांसे में तेरे आएंगे, इस बार हम नहीं

अपने लिए सिगरेट की डिब्बी याद रह गई
वालिद का याद रख सके, नसवार हम नहीं

हम तो अवाम हैं, निभाते फ़र्ज़ हमारा
सदियों से मांग पाये , अधिकार हम नहीं
------------------------------
-------------------------------
(श्री मजाज़ सुल्तानपुरी जी)

दुनिया की इशरतों के तलबगार हम नहीं

ख्वाहिश की बेड़ियों में गिरफ़्तार हम नहीं

आकर जहाँ में भूल गए तुझको ऐ ख़ुदा

कैसे कहें की तेरे गुनाहगार हम नहीं

हम तो क़लम की धार से लड़ते है अपनी जंग

रखते हैं अपने हाथ में तलवार हम नहीं

हमको ख़ुदा की ज़ात पे कामिल यक़ीन है

मानेगे फिर किसी का चमत्कार हम नहीं

फिर क्यूँ किसी से आस लगायें वफ़ा की जब

करते कभी किसी से सदाचार हम नहीं

लेकर चले हैं मेरे जनाज़े को मेरे दोस्त

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

माजी-ओ-हाल की तो ख़बर सबको है "मजाज़"

आएगा कल जो उससे ख़बरदार हम नहीं
------------------------------
-----------------------
(श्री अरविन्द कुमार जी)

सब कुछ कहा हो जिसमे वो अशआर हम नहीं,
हम दिल में तो हैं, किस्स:-ए-अखबार हम नहीं,
 
यादों की कैद से भी है आज़ाद कर दिया,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं.

फिक्रे सुखन मुझे है, नहीं मर्ज़ ये कोई,
कैसे बताएं उनको, कि बीमार हम नहीं.
 
बस खाक राह की है, हुई हमको अब अजीज़,
हट जाओ मंजिलों, कि तलबगार हम नहीं.
 
सूद-ओ-ज़ियाँ की फिकर में काटी है ये उमर,
एहसास जैसी शय के खरीदार हम नहीं.
---------------------------------------------------------
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी)

गम में तुम्हारे दिल का अब करार हम नही
गम है मगर बा -चश्मे -गुहरबार हम नहीं

रूठा जो आफ़ताब अंधेरे में रह लिए
लेकिन हैं जुगनुओं के गुनहगार हम नहीं

माना कि आइने से न रिश्ता रहा कभी
फिर भी किसी पत्थर के तरफदार हम नहीं

ऐसा नही कि चैन से सोए हैं तेरे बिन
पर देख ले बा - दीद - ए - बेदार हम नहीं

रिश्ता हमारा हर किसी से टूटता गया
ताजिर हरेक शख्स था बाज़ार हम नहीं

समझो बहादुरों के कटे हाथ की तरह
बुजदिल के हाथ कांपती तलवार हम नहीं

यूं सर-सरी निगाह से हमको न देखिए
उल्फत की इक रिसाल हैं अखबार हम नहीं

चाहे सफर ये धूप का आंसू भी सोख ले
थोडो सी छाँव के भी तलबगार हम नही

लो चल दिए सदा के लिए ओढ़ कर कफ़न
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नही
------------------------------
----------------------------------
(श्री दुष्यंत सेवक जी)

बेबाक हैं, रंगे हुए सियार हम नहीं
गोया कि चुनावों के उम्मीदवार हम नहीं

उघाड़ते हैं गर्द गलीचों में जो दबी
हम हैं वो ग़ज़लगो कि, चाटुकार हम नहीं

वादों पर अपनी जान की बाज़ी भी लगा दें
वादों के अपने पक्के हैं, सरकार हम नहीं

जो उठ खड़े हुए तो तख़्त ओ ताज छीन लें
क्षणभर में बैठ जाए जो गुबार हम नहीं

तुमने ही राह ए मक्तल, खुद के लिए चुनी
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

--------------------------------------------------

(श्री विवेक मिश्र जी)

उल्फत में मिट सकें न जो वो यार हम नहीं
कैसे कहा ये तुमने वफादार हम नहीं

अश्कों में लम्हा-लम्हा सही गल गये हैं हम

लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं

तेरा ही हक़ रहेगा सदा मेरी जान पर

फिर क्या कहेगा साहिबे किरदार हम नहीं

जीवन की समस्याओं के पिंजरे में कैद हैं

उड़ने का भी हो पा रहे अधिकार हम नहीं

अश्कों को अपने दिल की तिजोरी में क्यों रखें

गम का करें तुम्ही से व्यापार हम नहीं

हमने नहीं कहा तो वो बोले नहीं नहीं

तेरी नहीं से जी सकें तैयार हम नहीं

आँखों का समंदर है तुम्ही को संभालना

डूबा तो बचा पाएंगे संसार हम नहीं

सम्मान है सभी का हमारी निगाह में

करते कभी किसी का तिरस्कार हम नहीं

शाम-ओ-सहर तो धोखे ही खाता रहा "विवेक"

नादान दिल को कर सके होशियार हम नहीं

---------------------------------------------------------------

(श्री हरजीत सिंह खालसा जी)

माना तुम्हारे ग़म के खरीदार हम नहीं,
पर यह न सोचना कि तलबगार हम नहीं......

जो था करीब दिल के, बहुत ही करीब था,
उससे करीबियों के हि हकदार हम नहीं...

सबको मना तो लेते ज़ुबां की दलील से,
दिल कैसे मानता कि गुनहगार हम नहीं,

लाखों मुसीबतों में हजारों सवाल हैं,
उसपर ये आफतें कि समझदार हम नहीं....

कोई हमें उदास करे तो किया करे
अब इन उदासियों के तरफदार हम नहीं....

सब कुछ मिटा दिया वो तमन्ना वो जुस्तजू,
"लो अब तुम्हारी राह, में दीवार हम नहीं",,,,,

---------------------------------------------------------

(श्री शैलेन्द्र कुमार मौर्य जी)

ऐसे जहाँ में नाम के तलबगार हम नहीं,
मारा गया हूँ प्यार से बीमार हम नहीं .

खुशियों का जश्न उनका है उनको मुबारकें ,
सारा जहाँ भुला भी दे लाचार हम नहीं ,

वादा किया था हमने तेरे ऐतबार पे ,
कैसे कहोगे दिल टूटने के खतावार हम नहीं ,

सजदे किये है बार बार तेरे ही नाम पर ,
लौटा हूँ खाली इसबार भी शर्मसार हम नहीं.
---------------------------------------------------
(श्री नीलांश जी)

रौशनी बन कर रहे अंगार हम नहीं
ग़म की काली धुप में बेज़ार हम नहीं

तेरे ही रूह में रहेंगे इक अदा बनकर
बेवफा बादल नहीं ,बहार हम नहीं

बेखुदी तेरी खुदा , खुदाई भी तेरी
इमाम की रुख के इख्तियार हम नहीं

न पढो चेहरा कि देखो आइना-ऐ-दिल
चंद कागज़ी दावें इश्तिहार हम नहीं

गर है ग़म रिवाजों का,तो तेरी ख़ुशी प्यारी
लो अब तुम्हारी राह में दिवार हम नहीं

न दोष देता है वो सूरज रात को कभी
तू भी सही है ज़िन्दगी ,खतावार हम नहीं

कई रहगुज़र आये गए दहलीज़ से गुज़रे
चलते हि जा रहे हैं पर बाज़ार हम नहीं
------------------------------------------------------
(डॉ अब्दुल अजीज़ अर्चन जी)

इंसान हैं फ़रिश्ता - सिफत यार हम नहीं l
कैसे कहें किसी से ख़तावार हम नहीं ll

प्यासों को एक बूँद जो पानी न दे सकें l
ऐसे समन्दरों के रवादार हम नहीं ll

परचम बुलंद करते हैं अमनो अमान के l
दुनिया में जालिमों के तरफदार हम नहीं ll

दुशवारियाँ न हों तो सफ़र का मज़ा ही क्या l
आसान रास्तों के तलबगार हम नहीं ll

सैले-गमे-हयात ने ताराज कर दिया l
"लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं ll"

बन कर अटल चटान रहे अज़्मो-खैर की l
बदले जो मसलहत से वह किरदार हम नहीं ll

रखते हैं पास कौले-पयम्बर का हर तरह l
यानी वतन-परस्त हैं ग़द्दार हम नहीं ll

ठोकर में रखते आये हैं शाही को हम फ़कीर l
ये तख्तो-ताज क्या हैं ? परस्तार हम नहीं ll

रखते हैं तुझको ख़ानाए-दिल में बहर नफ़स l
फिर किस तरह कहें तेरे दिलदार हम नहीं ll

निकले हैं जुस्तुजू की अजब रौ में ऐ 'अज़ीज़' l
ठहरें क़दम कहीं पे वह रफ़्तार हम नहीं ||
------------------------------------------------------
(श्री अम्बरीश श्रीवास्तव जी)

हँसते हैं आँसुओं में अदाकार हम नहीं,
आहों व सिसकियों के तलबगार हम नहीं|

बजती है बांसुरी तो कलेजे में हूक क्यों,
दिल में जो बस सके है वो किरदार हम नहीं|

खुद को तलाशते हैं गम-ए-आशिकी में हम,
कैसे कहें कि गम के रवादार हम नहीं|

अपनी नज़र में गिर के भला कब कोई उठा,
गद्दार लोग कहते हैं गद्दार हम नहीं|

जैसा किया है आपने वैसा ही भरेंगें,
लो अब तुम्हारी राह में दीवार हम नहीं|

लूटें जो अपने मुल्क को अपनों को दें दगा,
वल्लाह उस तरह के तो मक्कार हम नहीं|

अम्बर का सच है यार तभी काम आ रहा,
अपराध बेचते हैं वो अखबार हम नहीं|

--------------------------------------------------
 

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तु म्हारी 122

जबकि सामान्‍य सोच से तुम्‍ हारी 222 ‍

और आवश्यकतानुसर गिराने की बारी हो तो -

तुम्हारी = १२१

:-))

बस यही देखकर तो मैंने "पत्थर" को १२ गिन लिया !

यही सारा कुछ सीखने के क्रम में होता है, अरुण भाई. 

वैसे, अब तक तो आपको भी यह मालूम हो चुका होगा कि तथ्यों को विन्दुवत् जानना और उनका अमल दोनों दो चीजें तबतक रहती हैं जबतक वे व्यवहृत होने के क्रम में पूर्णतया एकसार न हो जायँ. अन्यथा, नीले वर्ण के मिसरे हर इस उस की ग़ज़लों में नहीं दीखते. तिसपर, बहस अभी बाकी है. 

भाई अरुणजी,  मैं सारी प्रक्रिया को मील के पत्थर की तरह ले रहा हूँ. हम सभी का सीखना निरंतरता के सापेक्ष है. जो आज जानकार दीख रहे हैं वे अभी कुछ माह पूर्व सीखने की पहली पायदान पर थे. आप बने रहे और आँखें खुली रखें.

सधन्यवाद.

जरूर सर जी ! जान लेना तब तक पर्याप्त नही है जब तक उस ज्ञान को व्यावहारिक रूप से तपा न लिया जाए !
मैं यहाँ जरूर बना रहूँगा और आँखें खुली भी रखूँगा !
सादर !

waah.waah........bahut achha laga  sab gazalen dekh kar..........

pata to laga ki hum kahan kahan galat the..........

bahut bahut  shukriya ...is  mehnat ke liye jo aapne  hamare parishkaar ke liye kee...

hardik dhnyavaad

सादर धन्यवाद अलबेला खत्री भाई जी.....

 

खूब पकड़ा । पूरा का पूरा 'नहीं'। लीजिये 'नहीं' और 'यहॉं' को आपस में बदल देते हैं। चेहरा को चहरा तो आपने मान ही लिया होगा जिसकी अनुमति है।

चेहरा पढ़ें हुजूर नहीं झूठ कुछ  यहॉं

कापी, किताब, पत्रिका, अखबार हम नहीं।

अब बात बन गई सर. :))))

समय रहते ज्ञात हो गयी तो ठीक हो गयी।

बेध्यानी का परिणाम था, ध्यान में आ गया।

yograj prabhakar ji,

ye bahut  achha kiya ki jahan  jahan humse  hatya hui bahar ki  vahan vahan  aapne postmortem ki report laga di....parantu bhagwan, hatya kahan chot lagne par hui ....ye spasht  nahin hua isliye  hum inhen kahan kahan  taanke lagaayen  samajh nahin aa raha ..............maargdarshan  please...........

यहॉं यह अपेक्षित है कि पंक्ति इंगित कर देने से शायर को त्रुटि खुद समझ आ जायेगी। जहॉं बेबह्र है वहॉं तक्‍तीअ करके देख लें। जहॉं नीला है वहॉं भी देखना होगा कि क्‍या दोष है।

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