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जी बहुत धन्याबाद ,
जी मे एक कहानी ढूंड रहा हू,तथा विड्मब्ना यॅ है की ना तो मुझे उस कहानी का नाम याद है और ना ही लेखक का किंतु मुझे उस कहानी की रूप रेखा बहुत अच्छे से याद है तो अगर आप मेरी सहायता करे तो मे आपका बहुत अभारी होऊँगा|
चौपाई सलिला: १.
क्रिसमस है आनंद मनायें
संजीव 'सलिल'
*
खुशियों का त्यौहार है, खुशी मनायें आप.
आत्म दीप प्रज्वलित कर, सकें
क्रिसमस है आनंद मनायें,
हिल-मिल केक स्नेह से खायें.
लेकिन उनको नहीं भुलाएँ.
जो भूखे-प्यासे रह जायें.
कुछ उनको भी दे सुख पायें.
मानवता की जय-जय गायें.
मन मंदिर में दीप जलायें.
अंधकार को दूर भगायें.
जो प्राचीन उसे अपनायें.
कुछ नवीन भी गले लगायें.
उगे प्रभाकर शीश झुकायें.
सत-शिव-सुंदर जगत बनायें.
चौपाई कुछ रचें-सुनायें,
रस-निधि पा रस-धार बहायें.
चार पाये संतुलित बनायें.
सोलह कला-छटा बिखरायें.
जगण-तगण चरणान्त न आयें,
सत-शिव-सुंदर भाव समायें.
नेह नर्मदा नित्य नहायें-
सत-चित -आनंद पायें-लुटायें..
हो रस-लीन समाधि रचायें,
नये-नये नित छंद बनायें.
अलंकार सौंदर्य बढ़ायें-
कवियों में रस-खान कहायें..
बिम्ब-प्रतीक अकथ कह जायें,
मौलिक कथ्य तथ्य बतलायें.
समुचित शब्द सार समझायें.
सत-चित-आनंद दर्श दिखायें..
चौपाई के संग में, दोहा सोहे खूब.
जो लिख-पढ़कर समझले, सके भावमें डूब..
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चौपाई हिन्दी काव्य के सर्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में से एक है. आप जानते हैं कि चौपायों के चार पैर होते हैं जो आकार-प्रकार में पूरी तरह समान होते हैं. इसी तरह चौपाई के चार चरण एक समान सोलह कलाओं (मात्राओं) से
युक्त होते हैं. चौपाई के अंत में जगण (लघु-गुरु-लघु) तथा तगण (गुरु-गुरु-लघु) वर्जित कहे गये हैं. चारों चरणों के उच्चारण में एक समान समय लगने के कारण
इन्हें विविध रागों तथा लयों में गाया जा सकता है. गोस्वामी तुलसीदास जी कृत
रामचरित मानस में चौपाई का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है. चौपाई के साथ
दोहे की संगति सोने में सुहागा का कार्य करती है. चौपाई के साथ सोरठा,
छप्पय, घनाक्षरी, मुक्तक आदि का भी प्रयोग किया जा सकता है. लम्बी काव्य
रचनाओं में छंद वैविध्य से सरसता में वृद्धि होती है.
Acharya Sanjiv Salil
नन्हे बिटवा भाई
चिरंजीव भवः
कक्षा बहुत स्टीक
बार बार पढ़ने पर समझ आएगी बहुत अभ्यास ही नहीं रहा व्याकरण ,स्वर,व्यंजन
धन्यवाद
आपकी गुड्डो दादी चिकागो से
वाह आचार्य जी वाह, मैं तो अलग अलग जगहों पर जाकर ढूँढ रहा था कि अपनी हिंदी को शुद्ध कैसे करूँ। आप ने यह कक्षा चालू कर मुझे इधर उधर भटकने से बचा लिए। इसके लिए बहुत बहुत आभार।
बात चौपाइयों की हो रही है तो मेरी एक लंबी कविता है उसमे से चौपाइयों वाला भाग यहाँ डाल रहा हूँ, देखिये और हो सके तो त्रुटियाँ बताइये ताकि मैं एवं अन्य लोग सोदाहरण सीख सकें।
प्रसंग तब का है जब गणेश जी कार्तिकेय जी को हराते हैं और यह घोषणा होती है कि गणेश जी का विवाह पहले होगा।
समाचार यह फैला ऐसे । आग लगी जंगल में जैसे॥
विश्वरूप तक बात गई जब । परम सुखी हो आये वे तब॥
उनकी कन्याएँ थीं सुन्दर । खोज रहे थे कब से वे वर॥
वर सुयोग्य यह बात जानकर । आये देने निज दुहिता कर॥
रिद्धि, सिद्धि कन्याएँ दो थीं । दोनों ही अति रूपवती थीं॥
विश्वरूप तब प्रभु से बोले । जय हो महादेव बम भोले॥
पुत्र आपके अति सुयोग्य हैं । कन्याएँ भी परम योग्य हैं॥
रिद्धि के लिए गणपति का कर । और सिद्धि को कार्तिकेय वर॥
देकर प्रभु अब तार दीजिए । मुझ पर यह उपकार कीजिए॥
मैंने यह संकल्प लिया है । दुहिताओं को वचन दिया है॥
तव विवाह शिवसुत से होगा । वचन नहीं यह मिथ्या होगा॥
बोले प्रभु विचार उत्तम है । पुत्र हमारे दोनों सम हैं॥
कार्तिकेय हैं विश्व भ्रमण पर । लौटेगें वो जल्दी ही पर॥
जैसे ही वो आ जायेंगे । हम विवाह यह कर पायेंगे॥
कार्तिकेय अवनी का चक्कर । लौटे कुछ ही दिन में लेकर॥
स्नान किया औ’ बोले आकर । जय हो अम्बे जय शिवशंकर॥
शर्त कठिन थी, नहीं असंभव । प्रभु की कृपा करे सब संभव॥
यह सुन बोले महाकाल तब । पुत्र नहीं कुछ हो सकता अब॥
शर्त विजेता गणपति ही हैं । योग्य प्रथम परिणय के भी हैं॥
हम बस सकते हैं इतना कर । दोनों सँग सँग बन जाओ वर॥
पर पहले गणपति के फेरे । उसके बाद तुम्हारे फेरे॥
यह सुन कार्तिकेय थे चिंतित । खिन्नमना औ’ थे चंचलचित॥
चूहे ने है मोर हराया । ऐसा संभव क्यों हो पाया॥
फिर जब बैठे ध्यान लगाया । सब आँखों के आगे आया॥
बोले महादेव, हे सुत, तब । याद करो मेरी वाणी अब॥
मैंने बोला गुनना सुनकर । तुम भागे जल्दी में आकर॥
बिना गुने तुम दौड़ पड़े थे । गणपति फिर भी यहीं खड़े थे॥
बात गुनी तब यह था जाना । मूषक वाहन उनका माना॥
पर यह मूषक की न परिक्षा । ऐसी नहीं हमारी इच्छा॥
है विवाह इक जिम्मेदारी । मूर्ति भोग की ना है नारी॥
तन से दोनों हुए युवा हैं । मगर बुद्धि से कौन युवा है॥
यही जाँच करनी थी हमको । और सिखाना था यह तुमको॥
तन-मन-बुद्धि और प्राणांतर । से जब तक न युवा नारी नर॥
तब तक है विवाह अत्यनुचित । नहीं बालक्रीड़ा विवाह नित॥
विश्व भ्रमण कर हो तुम आये । तरह तरह के अनुभव पाये॥
इसीलिए तुम भी सुयोग्य अब । जाने यह अवसर आये कब॥
तैयारी विवाह की कर लो । मन में अपने खुशियाँ भर लो॥
बोले कार्तिकेय तब माता । बात उचित है गणपति भ्राता॥
बुद्धिमान हैं ज्यादा मुझसे । पर मैं भी अग्रज हूँ उनसे॥
प्रथम प्राणि वह ग्रहण करेंगे । तो मेरा अपमान करेंगे॥
इसीलिए यह लूँगा प्रण मैं । सदा कुमार रहूँगा अब मैं॥
समाचार जैसे ही पायो । विश्वरूप चिंतित हो आयो॥
बोल्यो आकर जय शिव-काली । मेरा वचन जा रहा खाली॥
दुहिताओं को वचन दिया था । मान इन्हें दामाद लिया था॥
अब क्या होगा हे शिव शंकर । सिद्धि मानती शिवसुत को वर॥
समाचार यदि उसने पाया । तो मृत्यू को गले लगाया॥
कुछ करके हे भोले शंकर । प्राण बचाएँ पुत्री का हर॥
तभी सोचकर क्षण भर भोले । एक रास्ता तो है बोले॥
दोनों का विवाह शिवसुत से । होगा, पर केवल इक सुत से॥
गणपति पाणिग्रहण करेंगे । दोनों की ही माँग भरेंगे॥
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