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My dear friends:

वन्दे मातरम!

My heartfelt welcome to each of you.

 

This is the first post on आध्यातमिक चिंतन.It is my pleasure to present some thoughts here.

On purpose, I have touched several areas in the following write-up, in order to

create ample food-for-thought at this stage of our meeting here. These different

areas, highlighted in bold below, in themselves are so exhaustive that each can

have a treatise of its own.

 

Hopefully, depending on the interest of our members, we will have many lively

discussions on BOLDS in the months and years to come, and we will grow

together. In the process, I will have a lot to learn from each of you, and please, this

is not an understatement, for very humbly I say, I do have a lot to learn.

 

This being the first post, I am starting with the concepts of spirituality gifted by 

India to the world. Dear friends, I am humbled and grateful to God that he gave me

birth in my beloved India, whose concepts of spirituality, if practiced, have so

much to offer to any seeker of inner peace. Here, the key is "if practiced", for, the

greatest Truth cannot reveal itself by any knowledge limited to its theory alone.

 

चार महावाक्य हैं, प्रत्येक महावाक्य के शब्द भिन्न हैं, कथन एक ही है ... और प्रत्येक ने कुछ ही
 
शब्दों में कितना ब्रह्म-ज्ञान दिया है, पर वास्तव में यह ज्ञान-प्राप्ति कितनी कठिन है, इसकी
 
कितनी दिषाएँ हैँ, कितने कोण हैं ! सभी दिषाएँ एक ही लक्ष्य पर ले जाती हैं, पर कोई भी रास्ता
 
सीधी लकीर नहीं है....
 
 
On this sacred path of spirituality, we go forward a few steps and then step back,
 
retreat, we go up and down and sideways, and only a few of us on this remarkable
 
journey remain steadfast. And of these few, how many really are able to cross the
 
ocean of relative existence without having to be born again !
 
 
While we are on this journey, we are still living in the pluralistic world ... our ego is
 
still present and active as ever, as the experiencer in union with our gunas
 
 
कोई लोग कहते हैं कि आध्यात्मिक पथ पर चलने से " ना पाने का दर्द, पीड़ा, यंत्रणा सब तिरोहित
 
हो जाना चाहिए !   Yes,  Atman is ever blissful and can never experience grief and
 
misery.... but, that is only once we are able to perceive Atman in its purest (note
 
that here I have used the word, just the "purest", in stead of "purest form" because
 
Atman is devoid of form), devoid of all names, forms and Upadhies ! And to reach
 
that state, after our all efforts, we still need the Grace of God to attain That
 
Oneness ! I do not mean to sound discouraging. Just the opposite, there is ample
 
joy in just being on the Path. As Lord Krishna said in the Bhagvad Gita, " ... in
 
this there is no loss of effort ".
 
This spirituality is our root, we just cannot do without it.
 
ॐ शाँति ।
 
May there be peace on this earth, in the heavens and in the water!
 
ॐ तत सत !
 
Thanks to each of you for your patience to read this rather difficult topic.
 
With warm regards and affection,
 
Vijay Nikore

 

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Replies to This Discussion

आदरणीय विजय निकोर जी, 

सादर प्रणाम!

आध्यात्म हमारी आधार शिला है, इस विषय पर समुच्चय में काफी सारे महत्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रस्तुत करती हुई इस प्रथम चर्चा के लिए आपका हार्दिक आभार..

यह विषय क्या है, सच्चाई क्या है इसे दूर खड़े देखा सुना पढ़ा जाना एक बिंदु है, तथा इस मार्ग पर चल कर इसे आत्मसात कर आगे बढ़ना एक अलग.

जिस तरह तैराकी सीखने के लिए पानी में उतरना ही पढता है, कोई आलेख या व्याख्यान तैराकी नहीं सिखा सकता,  जिस तरह सायकिल चालाने के लिए उस पर बैठ कर पेंडल खुद ही चलाना होता है और हेंडल भी खुद ही सम्हालना होता है, उसे सिर्फ पढ़ कर या देख कर नहीं सीखा जा सकता, उसी तरह आध्यात्म को समझने के लिए भी अनंत के सागर में उतरना पढता है.

यही इसकी विशिष्टता है, कुंजी है, राह है.....

अपनी समझ भर अभी के लिए इतना ही कहना है,

सादर.

आदरणीया प्राची जी:

आपने कहा, " अपनी समझ भर अभी के लिए इतना ही कहना है " ... आपने जो कहा,

उसी में ही चिंतन के लिए बहुत कुछ है।

 

आपका सह्रदय आभार।

सादर और प्रणाम सहित,

विजय

 

वन्दे मातरम ! विजय निकोरे जी, 
आपने अच्छी शुरुआत की है । This is true that truth can not reveal itself by knowlege limited to its theory alone. ज्ञान प्राप्ति जितनी कठिन है उतनी ही कठिन है , सत्य को जानना । ज्ञान किसी पुस्तक मात्र को पढ़कर या 
किशी पाठशाला में दाखिला पाकर प्राप्त नहीं किया जा सकता । ध्रुव को ज्ञान किसी पाठशाला में जाकर पढने से 
नहीं हुआ था । भारत के वेदों का ज्ञान, भगवद गीता के सन्देश पढने के बाद भी,ध्रुव,प्रह्लाद,वाल्मीकि या तुलसीदास 
सा ज्ञान प्राप्त करना सहज सुलभ नहीं कहा जा सकता । इसलिए आपका यह कहना अति महत्वपूर्ण है की सत्य की 
खोज और ज्ञान प्राप्ति के लिए we still need the Grace of God for which the word "purest" ie one must be able to perceive आत्मा in its purest form for which हमें इश्वर की अनुकम्पा ही चाहिए । हाँ इसके लिए 
मनुष्य को प्रयास विशेष प्रयास में सलग्न रहकर सत्य की खोज अवश्य करनी चाहिए । मनसा वाचा कर्मणा ।
इसलिए यह कथन की सत्य की खोज और ज्ञान प्राप्ति के लिए हमे आत्मीय बोध का रास्ता ही अपनाना होगा,
उसके बगैर कुछ संभव नहीं ।
 आपके प्रथम सन्देशात्मक प्रयास के लिए हार्दिक आभार और मेरी तुच्छ समझ से लिखी टिप्पणी में कोई त्रुटी 
हो तो सुधि पाठको द्वारा अवश्य आगाह करने का आग्रह करता हुआ क्षमा प्रार्थी - लक्ष्मण प्रसाद लडिवाला,जयपुर 

 

अच्छा लगा, आपको आपके उपरोक्त उद्गार के साथ आदरणीय विजय निकोर जी.

सारा कुछ जो ’है’ लेकिन ’है नहीं’ के प्रति वैयक्तिक ऊहापोह या उसके प्रति जिज्ञासा या एकदम से अन्यमनस्कता इतनी विशिष्ट क्यों है ? अनुभूतियाँ इतनी अलग-अलग क्यों हैं ? हम इन विन्दुओं पर भी चर्चा कर कुछ समझने का प्रयास करें.

सादर

आदरणीय भाईसाहब..सादर प्रणाम.

अध्यात्म रोचक शब्द है.सामान्यतया भक्ति या ईश्वर विषयक चर्चा को अध्यात्म कहा जाता है.परन्तु वास्तव में अध्यात्म का अर्थ स्वयं का अध्यन अधार्थ.. अपनी आत्मा का अध्यन करना है.....जेसे मिटटी के पिंड में सब प्रकार के आकर विद्यमान रहते है,कुम्हार को सिर्फ अतिरिक्त मिटटी हटानी होती है और मनचाहा आकर प्रकट हो जाता है .इसी तरह मूर्तिकार सिर्फ अतिरिक्त पत्थर काटकर अलग करता है,शेष पत्थर छोड़ देता है ओर पाषाण में छिपा आकर प्रकट हो जाता है,मूर्ति का जेसा आकर वह व्यक्त करना चाहे कर सकता है.इसी तरह हमारे जीवन को आकार हम ही हमारे कर्मो द्वारा प्रदान करते है यानि हम ही मिटटी के पिंड भी है,कुम्हार भी ,पाषाण भी ओर मूर्तिकार भी ..हमारे जीवन का सब कुछ हमारे कर्मो पर आधारित है.जब हम कर्म के ही अधीन है तो बहुत सोच-विचार कर और सत्कर्म ही करना श्रेयकर है.

सादर

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