Ashok Kumar Raktale
प्रथम प्रस्तुति : दोहें
फिरता जाता चाक ये, मिट्टी ले आकार |
कैसी कितनी शक्ल में, खडा हुआ संसार | |
समयचक्र सम चाक ये, इश्वर सम कुम्हार |
पंचतत्व निर्मित किये, बना जगत आधार | |
माटी मोल न कह कभी, माटी है अनमोल |
बिना मोल यह राज भी, पहिया देता खोल | |
माटी संचित सम्पदा, या कर्मो का जोड़ |
प्रकृति चकरा घूमता, कर कर्मो का मोड़ | |
काठी की फटकार से, खुलती सबकी आँख |
चाहे हो चिकना घडा, छुपता नहीं सुराख | |
दूसरी प्रस्तुति : कामरूप छंद (चार चरण,9,7,10 मात्रा पर यति और चरणान्त गुरु लघु)
माटी धर दई,चाक पर अब, हो भली रघुनाथ,
मेहनत फल मन,आस लेकर,सध गए दो हाथ,
हो चाहे पूर्ण, काज या अब, टूटे सपन साथ,
सब है स्वीकार, मुझे प्रभु जी,लो नवाऊं माथ/
तृतीय प्रस्तुति : वीर छंद (३१ मात्राएँ, १६ पर पश्चात १५ पर पूर्ण विराम,अंत में गुरु लघु)
चाक चक्र है दुनियादारी, इसमे पिसता है इंसान।
कच्ची मिट्टी नन्हा बालक, मात पिता की उसमे जान।
हाथ सवारें जीवन उसका, वक्त बड़ा ही है बलवान।
तप तप कर है सोना बनता, कहलाता है वही महान।।
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कुमार गौरव अजीतेन्दु
कुण्डलियाँ
(1)
फँसने मकड़ीजाल में, लेने को कुछ भार।
पुनः जगत में हो रहा, पात्र नया तैयार॥
पात्र नया तैयार, नियति के हाथों होता,
काल बना है चाक, कभी नहीं रुकता-सोता।
माटी के सब रूप, आय माटी में धँसने,
माया को सच मान, मोह में लगते फँसने॥
(2)
कच्ची है मिट्टी अभी, संभावना अपार।
कुंभकार कर वो करम, मिले सही आकार॥
मिले सही आकार, देह, गुण सोना लागे,
होए नहिं कहिं छेद, न ही कभि ग्राहक भागे।
कह गौरव कविराय, बात सब सीधी-सच्ची,
दुनिया देती फेंक, वस्तु जो होती कच्ची॥
(3)
गढ़-गढ़ कर बरतन बना, खुश हो रहा कुम्हार।
आस धरे मन में बड़ी, होगा बेड़ा पार॥
होगा बेड़ा पार, दाम यदि अच्छे पाये,
लौटा दूँगा कर्ज, बिना दो गाली खाये।
घरवालों के शौक, करूँगा पूरे बढ़चढ़,
सपनों का संसार, दीन वो रचता गढ़-गढ़॥
(4)
करती है जादू कला, तथ्य कहें हर बार।
माटी देखो ले रही, उपयोगी आकार॥
उपयोगी आकार, काम जो सबके आता,
करके अपना कर्म, लौट माटी में जाता।
माँग रही है मान, कला ये पल-पल मरती,
हाय! मौन सरकार, नहीं जो कुछ भी करती॥
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Laxman Prasad Ladiwala
प्रथम प्रस्तुति : दोहा छंद
आता है संसार में, बालक एक अबोध ।
माली कैसे सींचता, उस पर निर्भर पौध ।।
हम दोनों के हाथ में, माटी कच्चा माल ।
निपुण हाथ जिसके रहे, करते बही कमाल ।।
कच्ची मिटटी एक सी, नहीं ज़रा भी भिन्न ।
कुम्भकार के हाथ ही,मूरत गढ़े अभिन्न ।।
जिसका मन पर संतुलन, समय धुरी पर हाथ।
सधी रहें फिर उँगलियाँ, कुदरत भी दे साथ ।।
श्रम संयम के योग से, मिटटी ले आकार ।
एक कला का पारखी, दूजे का व्यापार ।।
मन में भर संवेदना, धरे चाक पर हाथ ।
उभरे मूरत भाव ले, सदे हाथ हो साथ ।।
द्वित्तीय प्रस्तुति : कुंडलियाँ छंद
चाक धुरी पर घूमता, मिटटी कच्चा माल,
निपुण हाथ मन संतुलन,करता वही कमाल।
करता वही कमाल, बने सुन्दर सी गगरी,
गमला ले आकार, पुष्प से महके नगरी ।
गढ़ते मूरत पाक, ह्रदय पर ध्यान लगाकर,
करे काम साकार, घुमा, कर चाक धुरी पर ।
दोहा
दक्ष प्रजापति वंश के, कुम्भकार कहलाय,
अनगढ़ मिटटी चाक से,मूरत खूब बनाय ।
तीसरी प्रस्तुति : दोहे
कर्म करे कुम्हार भी, रख अपनी पहचान,
यह है उसकी साधना, इतना उसको ज्ञान।
कुम्हारिन गुनगुनाती,चलती मंद बयार,
उंगलियाँ चाक घुरी पर, करती जैसे प्यार।
मिटटी से ही हम बने, मिटटी का ही मान,
मिटटी में मिलना हमें,इसका हमको भान।
मिटटी का कर्ज हमपर, समझो इसको भार,
कर्ज भार हम उतारे, हिम्मत दो दातार ।
चरण धूलि लगा मस्तक, नमन करे करतार,
सर्वस्व अर्पण करके, जावे स्वर्ग सिधार ।
जन्म अगर लेना पड़े, इस माटी का चाम,*
भारत सा नहि दूसरा, इस दुनिया में धाम ।
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*चाम = चाह (इस मिटटी की चमड़ी)
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Arun kumar nigam
प्रथम प्रस्तुति – कुण्डलिया छंद
अनगढ़ मिट्टी पा रही , शनै: - शनै: आकार
दायीं - बायीं तर्जनी , देती उसे निखार
देती उसे निखार , मध्यमा संग कनिष्का
अनामिका अंगुष्ठ , नाम छोड़ूँ मैं किसका
मिलकर रहे सँवार , रहे ना कोई घट - बढ़
शनै: - शनै: आकार , पा रही मिट्टी अनगढ़ ||
दूसरी प्रस्तुति – कुण्डलिया छंद
गीली मिट्टी नर्म सी , सूखी रहे कठोर
भट्ठी में तप जाय फिर, रहे नहीं कमजोर
रहे नहीं कमजोर , सीख सहने की देती
भेद-भाव से परे , सभी को अपना लेती
दे सबको आराम , तान कर छतरी नीली
रखना नम्र स्वभाव, है कहती मिट्टी गीली ||
तीसरी प्रस्तुति - छंद सरसी
[16, 11 पर यति, कुल 27 मात्राएँ ]
चाक निरंतर रहे घूमता , कौन बनाता देह |
क्षणभंगुर होती है रचना , इससे कैसा नेह ||
जीवित करने भरता इसमें , अपना नन्हा भाग |
परम पिता का यही अंश है , कर इससे अनुराग ||
हरपल कितने पात्र बन रहे, अजर-अमर है कौन |
कोलाहल-सा खड़ा प्रश्न है , उत्तर लेकिन मौन ||
एक बुलबुला बहते जल का , समझाता है यार |
छल-प्रपंच से बचकर रहना, जीवन के दिन चार ||
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Rajesh kumari
प्रथम प्रविष्टि : कुण्डलियाँ
धरती पर जैसे रचे, जन जीवन कर्तार
माटी से यह गढ़ रहा, बर्तन देख कुम्हार
बर्तन देख कुम्हार, निरंतर चाक चलाता
दे नूतन आकार, उँगलियाँ साथ नचाता
माटी नाचे संग, नित सिंगार है करती
जीवन में नव रूप, रंग भरती है धरती
दूसरी प्रविष्टि : दोहे
माटी छम-छम नाचती ,घट- घट ले आकार|
नव्य-नवल नूतन-स्वपन, रचता रहे कुम्हार||
माटी-माटी खेलते,चाक थके ना हाथ|
माटी में पैदा हुआ,जाना उसके साथ||
चक-चक चाक चला रहा,देखो एक कुम्हार|
घिस घिस घिरनी पर मिलें, माटी को आकार||
माटी लिपटी उँगलियाँ ,कर रही चमत्कार|
घूम चाक पर रच रही, नव पात्र निर्विकार||
तृतीय प्रस्तुति : वीर छंद (31मात्राये 16,15 अंत में गुरु लघु)
मृत माटी में जीवन भरता, नीचे बैठा एक कुम्हार
तन माटी स्पंदित करता ,ऊपर बैठा पालन हार
नित-नित नव्य सृजन करता प्रभु, करे स्वप्न निश-दिन साकार.
काल-चक्र चलता ही रहता, महिमा इसकी अपरम्पार..
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Satyanarayan Shivram Singh
प्रथम प्रस्तुति कुंडलिया छंद.
कच्ची मिट्टी चाक रख, गढ़ते हाथ कुम्हार ।
समय धुरी पर नित गढ़े, मानव मन संस्कार।।
मानव मन संस्कार, आँच तप बर्तन बनता।
कर्म साधना ताव, तपे मन वही निखरता।।
कहे सत्य कविराय, वही मन-मिट्टी सच्ची।
धरे देह पर काज, आँच तप रही न कच्ची।।
दूसरी प्रस्तुति कुंडलिया छंद.
जिसकी जैसी मांग हो, गढ़ता पात्र अनूप।
समय काल के चाक पर, मिट्टी को दे रूप।।
मिट्टी को दे रूप, चतुर कुम्भार कहाता।
देस काल की मांग, समझ साक्षी बन जाता।।
कहे सत्य कविराय, जगत है रचना उसकी।
कैसा है कुम्भार, अनोखी रचना जिसकी।।
तीसरी प्रस्तुति
मनहरण घनाक्षरी - वर्णिक छंद (३१ वर्ण)
चार चरण
आवृती ८+८+८+७ = ३१
(१६,१५ वर्ण पर यति होती है चरण के अंत में गुरू होता है)
काठी से नचाता चाक, घूमे गोल गोल चाक।
चकाचक चाक पर, चढ़ी मिट्टी चिकनी।।
मिट्टी को आकार देत, कला को निखार देत।
सुन्दर से पात्र गढ़े, लगे मन रंजिनी।।
मन में भरी उमंग, लगे नहीं हाथ तंग।
इसके लिए तो यही, कामधेनु नंदिनी।।
घट को निहारे कभी, चित्त को संवारे कभी।
सत्य कुम्भकार की तो, मिट्टी बनी संगिनी।।
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रविकर
प्रथम प्रस्तुति : कुण्डलिया
नई व्यवस्था दृढ़ दिखी, होय कलेजा चाक |
करे चाक-चौबंद जब, कैसे लेता ताक |
कैसे लेता ताक, ताक में लेकिन हरदम |
लख सालों की धाक, देह का घटता दमखम |
सब कुम्हार का दोष, शिथिल से अस्थि-आस्था |
मिटटी के प्रतिकूल, चाक की नई व्यवस्था ||
दूसरी प्रस्तुति : कुण्डलियाँ
चक्र-चलैया चाकचक, चैली-चाक-कुम्हार |
मातृ मातृका मातृवत, नभ जल गगन बयार |
नभ जल गगन बयार, सार संसार बसाये ।
गढ़े शुभाशुभ जीव, महारथि क्लीब बनाए ।
सिर काटे शिशु पाल, सु-भद्रे सुत मरवैया ।
व्यर्थ बजावत गाल, नियामक चक्र-चलैया ॥
चाकचक=दृढ़ चैली=लकड़ी, क्लीब = नपुंसक
तीसरी प्रस्तुति : सुंदरी सवैया
अगस्त्य महर्षि कुँभारन के पुरखा पहला हम मानत भैया ।
धरती पर चाक बना पहला शुभ यंतर लेवत आज बलैया ।
अब कुंभ दिया चुकड़ी बनते, गति चाक बनावत अग्नि पकैया ।
जस कर्म करे जस द्रव्य भरे, गति पावत ये तस नश्वर नैया ।।
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Aruna Kapoor
दोहा छंद
चित्र बड़ा ही सुन्दर है, पहेली रहा बुझाय!
बड़े ध्यान से देखिए,कौन ये चक्र घुमाय!!
दो हाथ भगवान के,चलते है दिन रात!
हो मनुष्य या इतरप्राणी,सब इसकी सौगात!!
हम सब को बनाता ये, दे विविध आकार!
प्राण प्रतिष्ठा भी करता, तब चलता संसार!!
शिक्षा देता ये हमें, बस करते जाओ कर्म!
फलकी चिंता छोडो मुझपर, समझो इतना मर्म!!
इसे सृष्टि-निर्माता कहो, चाहे कहो कुम्हार!
करता धरता तो यही, इसके नाम हजार!!
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SANDEEP KUMAR PATEL
प्रथम प्रविष्टि :कुण्डलिया
कच्ची माटी शब्द सी, लेखक कवि कुम्हार
कागज़ जैसे चाक पे , माटी ले आकार
माटी ले आकार , बने नव छंद अनोखे
शब्द शब्द अंगार, कभी फूलों से चोखे
गूथे माटी शब्द, रचे रचना हर सच्ची
पिंगल का हो ताव, पके तब माटी कच्ची
दूसरी प्रस्तुति : छंद घनाक्षरी
हाथ हाथ थाप थाप, घुमा घुमा काल चाप
रुच रुच गढ़ता है, देखता आकार को
आंच में तपाये फिर, परखे है गुण दोष
कठिन परीक्षा लेता, हरता विकार को
नहीं रखे छल दंभ, परहित हेतु कुम्भ
मिटा प्यास ताप हरे, प्रिय जनाधार को
ज्ञान जल सींच सींच, ज्ञानवान कुम्भ रचे
नमन हज़ारों बार, ऐसे कुम्भकार को
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AVINASH S BAGDE
रोले (११ - १३)
वो भी एक कुम्हार,बनाता है मनियारी .
चलती है सरकार ,जहाँ की दुनियादारी .
मिटटी को आकार , दे रहें हाथ अनुभवी .
शब्दों को साकार ,कर रहा सधा जन कवी
चलती चक्की सहज,रखा मिटटी का गोला .
घूम-घूम के महज़, पलों में होता पोला .
कहता है अविनाश ,उँगलियों का नजराना
गीली मिटटी बनी ,देख अनमोल खज़ाना
जीवन का सिद्धांत ,बताये सादी मिटटी .
बन जाती इक बात,सहज ही मीठी-खट्टी
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Er. Ganesh Jee "Bagi"
छंद : हरिगीतिका [4 x (16,12)], पदांत लघु गुरु
हम हैं मनुज मिट्टी सरीखे, तुम कुशल कुम्हार हो,
अनगढ़ घड़ा मन चाक पर प्रभु, तुम इसे आकार दो |
धरती हमारी चाक सी हमको सुधार सँवारती ।
मन चाहता हर जन्म हो इस गोद में माँ भारती ||
सस्वर पाठ / गणेश जी बागी
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Saurabh Pandey
शीर्षक - मैं कुम्हार
[छंद - भुजंगप्रयात, छंद विधा - यगण X 4 = 122 122 122 122]
यही साधना है, इसी का पुजारी ।
मिला रक्त मिट्टी भिगोयी-सँवारी ॥
यही छाँव मेरी, यही धूप जाना
यहीं कर्म मेरे, यही धर्म माना ॥
कहाँ भूख से कौन जीता कभी है
बिके जो बनाया, घरौंदा तभी है ॥
तभी तो उजाला, तभी है सवेरा
तभी बाल-बच्चे, तभी हाट-डेरा .. .
कलाकार क्या हूँ, पिता हूँ, भिड़ा हूँ
घुमाता हुआ चाक देखो अड़ा हूँ ..
कहाँ की कला ये जिसे उच्च बोलूँ
तुला में फ़तांसी नहीं, पेट तौलूँ ॥
न आँसू, न आँहें, न कोई गिला है
वही जी रहा हूँ मुझे जो मिला है ॥
कुआँ खोद मैं रोज पानी निकालूँ ।
जला आग चूल्हे, दिलासा उबालूँ ॥
घुमाऊँ, बनाऊँ, सुखाऊँ, सजाऊँ
यही चार हैं कर्म मेरे, बताऊँ .. .
न होंठों हँसी तो दुखी भी नहीं हूँ ।
जिसे रोज जीना.. कहानी वहीं हूँ ॥
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Anil ayaan shrivastava
दोहा
हाथों ने माटी छुआ बदल गयी तकदीर.
निखर गयी इसकी दशा सहकर सारी पीर.
ऐसी ही तकदीर मे है ये मानुष जात.
रूप बदल जाता सदा पाकर नव आघात.
माटी को जब भी मिला इस जग से सम्मान.
उसके पीछे है छिपा कुम्हार तेरा अवदान,
नन्हे चेहरे मे छिपी गीली मिट्टी की बास.
लायक इसे बनाये हम भरकर छोटी सी आस
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Arun Srivastava
कवित्त (वर्णिक - 8 , 8 , 8 , 7)
अनथके गतिमान , सृजन की लय पर , चाक से साकार बना , विश्व निराकार से !
चाक को घुमाते हाथ, प्रीत गीत गाते सदा , ऊँगली कठोर हुई , तो भी हुई प्यार से !
रहते प्रयासरत , सुन्दर सृजन हेतु , हारते नही हैं कभी , हार के भी हार से !
बारंबार नत निज, भाल द्वय चरणों में, माता लगे चाक सी , तो पिता हैं कुम्हार से !
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Dr.Prachi Singh
रूपमाला छंद ( १४, १० के चार पद, अंत गुरु लघु, सम्तुकांत)
सृजनकर्ता गढ़ रहा निज , हस्त से मृत्पात्र
नर्म मृतिका, चाक धुरि पर, है सृजन दिव-रात्र //
कर्म संचय, तत्व लय हों, पञ्च जब तन्मात्र
काल आवृति चक्र विधितः, गढ़े भंगुर गात्र //
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Sanjiv verma 'salil'
प्रथम प्रस्तुति : दोहा सलिला:
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माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
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द्वितीय प्रस्तुति : दोहा गीत
*
काल चक्र नित घूमता, कहता कर ले कर्म.
मत रहना निष्कर्म तू ना करना दुष्कर्म.....
*
स्वेद गंग में नहाकर, होती देह पवित्र.
श्रम से ही आकार ले, मन में चित्रित चित्र..
पंचतत्व मिलकर गढ़ें, माटी से संसार.
ढाई आखर जी सके, कर माटी से प्यार..
माटी की अवमानना, सचमुच बड़ा अधर्म.
काल चक्र नित घूमता, कहता कर ले कर्म......
*
जैसा जिसका कर्म हो, वैसा उसका 'वर्ण'.
'जात' असलियत आत्म की, हो मत जान विवर्ण..
बन कुम्हार निज सृजन पर, तब तक करना चोट.
जब तक निकल न जाए रे, सारी त्रुटियाँ-खोट..
खुद को जग-हित बदलना, मनुज धर्म का मर्म.
काल चक्र नित घूमता, कहता कर ले कर्म......
*
माटी में ही खिल सके, सारे जीवन-फूल.
माटी में मिल भी गए, कूल-किनारे भूल..
ज्यों का त्यों रख कर्म का, कुम्भ न देना फोड़.
कुम्भज की शुचि विरासत, 'सलिल' न देना छोड़..
कड़ा न कंकर सदृश हो, बन मिट्टी सा नर्म.
काल चक्र नित घूमता, कहता कर ले कर्म......
*
नीवों के पाषाण का, माटी देती साथ.
धूल फेंकती शिखर पर, लख गर्वोन्नत माथ..
कर-कोशिश की उँगलियाँ, गढ़तीं नव आकार.
नयन रखें एकाग्र मन बिसर व्यर्थ तकरार..
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विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी
मिट्टी मिट्टी में न मिले
(दोहा+चौपाई छंद)
दोहा-
माटी से जब श्रम मिले,ईश्वर या कुम्हार।
देह,घड़ा तैयार हो,पुलकित हो संसार॥क॥
निरत सृजन में हाथ हैं,ज्यों विधना के हाथ।
कर्मवीर के साथ ही,होते जग के नाथ॥ख॥
चौपाई-
अनगढ़ मिट्टी नित गढ़ता है।इसे प्रजापति जग कहता है॥
अतिशय सुन्दर रूप बनाता।नहीं किसी में भेद दिखाता॥1॥
सभी नहीं समरूपी होते।किन्तु अलग भी अधिक न होते॥
यह तो ईश्वर के जैसा है।नव्य-स्वरूप सृजन करता है॥2॥
पोर-पोर कर कितने तत्पर।मंथर-मंथर किन्तु निरंतर॥
पहिया समय-चक्र जैसा है।मनुज-प्रगति का चिर-दृष्टा है॥3॥
कैसे-कैसे मानव बदला।और कदम क्या होगा अगला॥
यह समय-चक्र बतलायेगा।किस ओर मनुज अब जायेगा॥4॥
दोहा-
पहिया एक प्रतीक है,आदिम मनुज विकास।
यह पहिया ही कर रहा,मानव मूल विनाश॥
चौपाई-
इतना दूर न जाना मानव।लगो दूर से सबको दानव॥
या फिर आदिम कहलाओ।या अवशेषों में पाये जाओ॥1॥
मृदा-कला ज्यों सुप्त हुई है।मिट्टी मिट्टी में लुप्त हुई है॥
हम भी मिट्टी से गये बनाये।कहीं न मिट्टी में मिल जायें॥2॥
मिट्टी में मिलने से पहले।हम मिट्टी से शिक्षा ले लें॥
समय चाक पर चढ़ जायें हम।संस्कार गुण सिख जाये हम॥3॥
नहीं लुप्त हमको होना है।नहीं मनुजता को खोना है॥
प्रस्तुत चित्र यही कहता है।जगत चित्रवत ही लगता है॥4॥
दोहा-
मिट्टी मिट्टी में न मिले,इसे बना दें ईश।
हम ईश्वर से हैं बने,हुए न हम भी ईश॥क॥
झांकी इस संसार की,ईश्वर एक कुम्हार॥
समय-चक्र चलता सदा,परिवर्तन ही सार॥ख॥
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बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)
दोहे
माटी कहे कुम्हार से कैसी जग की रीति
मुझसे ही निर्मित हुआ करे न मोसे प्रीति
समय चाक है घूमता तू न करे विचार
चाक चढ़ा गढ़ गया समय गए बेकार
अपनी अपनी करनी अपने अपने साथ
थम गया चाक जो कछु न आए हाथ
ईश्वर ने ये जग रचा दिया चाक चढ़ाय
जाके साथ न कर्म है हाय हाय चिल्लाय
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Shashi purwar
छंद प्रकार -- दोहा
1
काची माटी से गड़े ,जितने भी आकार
पल में नश्वर हो गया ,माटी का संसार।
2
इक माटी से ऊपजे ,जग के सारे लाल
मोल न माटी का करे ,दिल में यही मलाल।
3
चाक शिला पर रच रहे ,माटी के संसार
माटी यह अनमोल है ,सबसे कहे कुम्हार।
(रचनाओं के संकलन में अत्यधिक सावधानी रखी गई है फिर भी यदि किसी सदस्य/सदस्या की कोई रचना छूट गई हो तो कृपया सूचित कर सूचिबद्ध करालें)
Tags:
आदरणीय गणेश जी,
ओबीओ चित्र से काव्य छान्दोत्सव अंक-२३ की सभी प्रविष्टियों के त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत आभार.
एक ही विषय पर विविध भावों से संतृप्त, दोहा, रोला, कुण्डलिया, चौपाई, घनाक्षरी, सवैया, सरसी छंद, रूपमाला, हरिगीतिका, भुजंगप्रयात, वीर, कामरूप इन सभी सनातनी छंद विधाओं पर रचनाएं एक साथ लाइव रूप से सभी सहभागियों का परस्पर सीखते- सिखाते हुए रचना, सांझा करना हमेशा की तरह इस बार भी बहुत अद्भुत अनुभव रहा.
इन सभी रचनाओं को एक साथ पढ़ना बहुत सुखकर है आदरणीय.
छान्दोत्सव के सफल आयोजन के लिए बहुत बहुत बधाई.. और इस संकलन के लिए आभार.
सादर.
बहुत बहुत आभार आदरणीया डॉ प्राची, दरअसल यह आयोजन कई कई मायनों में विशेष रहा, इसी क्रम में संकलन का अवशेष कार्य भी करना ही था, फिर सोचा शुभ कार्य में देर क्यों ! कुम्हार का चाक यह सन्देश देता है कि समय का चक्र रुकता नहीं |
सराहना हेतु पुनःधन्यवाद ।
इस सफल और सार्थक आयोजन के लिए बधाई!
सादर.
आपको भी बधाई श्री बृजेश नीरज जी ।
चित्र से काव्य महोत्सव-23 में सभी रचनाए एक साथ तुरंत उपलब्ध हो जायेगी यह आशा नहीं थी, इसके लिए आदरणीय गणेशजी बागीजी विशेष रूप से बधाई के पात्र है ।यह आयोजन कई मायनों में अदभुद सफल रहा, माटी की महिमा का बखानकरते,अनमोल अनगढ़ माटी को कर्मकार कुम्हार द्वारा सुन्दर रूप प्रदान करने का दोहों द्वारा श्री अशोक रक्ताले की प्रथम रचना से महोत्सव का आगाज हुआ। इनके द्वारा कामरूप छंद और वीर छंद प्रस्तृत कर काव्योत्सव का महत्व बढाया,वही कुमार गौरव अजितेंदु की चारो कुण्डलिया मनोहारी रही। श्री अरुण निगमजी ने कुम्भकार की पांचो उँगलियों से गीली मिटटी तक का बखूबी वर्णन के अतिरिक्त छंद सरसी द्वारा प्राणी नश्वर जीवन और मिटटी की बनी वस्तुओ का सजीव चित्रण किया। श्री एस एन शिवराम सिंह और श्री रविकर की प्रस्तुतियां तो अद्भुत शब्द शैली का उत्कर्ष नमूना कह सकते है, जिनकी कुंडलियों को समझने के लिए मुझे कई बार पढना पड़ा । श्री संदीप पटेल की कुंडलिया,घनाक्षरी द्वारा माटी और कुम्भकार को बगैर छल और दम्भ के सर्व हिताय के लिए हजारो बार नमन करने, आदर डॉ प्राची सिंह द्वारा चार पंक्तियों के रूप माला छंद में कर्मकार कुम्हार के सृजन, का वर्णन "गागर में सागर" कह सकते है। आदर राजेश कुमारी के दोहा, कुण्डलियाँ और वीर छंद का रसास्वादन मन को मोहित करने वाला है ।आदरणीय सौरभ जी ने तो कुम्हार के कई तरह के आयामों का सेवाभाव, महंगाई में परिवार का पालन, बगैर धूप छाँव के श्रम करते रहने की भुजंगप्रयात छंद में उत्कृष्ठ रचना प्रस्तुत कर काव्योत्सव का मान बढाया। वही आदर संजीव सलिल जी ने माटी के विभिन्न आयामो को "दोहा सलिला" में, और कर्मकार कुम्हार के अथक श्रम द्वारा सृजन को "दोहा गीत" में सजीव और यथार्थ वर्णन किया । श्री गणेश जी बागीजी की हरिगीतिका का आडियो सुनकर तो सभी मंत मुग्ध हो गए । देर आये दुरस्त आये श्री विध्येस्वरी प्रसाद त्रिपाठी के दोहा और चोपाइया मनोहारी थी । श्री अरुण श्रीवास्तव, अनिल आयाम, शशि पूर्वर जैसे कवियों को पहली बार देखर बड़ी ख़ुशी हुई यह ओबीओ की लोकप्रियता का भी परिच्दायक है । मेरे सहित अन्य कवियों श्री पी के कुशवाहा, अविनाश जी बागडे,अरुणा कपूर आदि कवियोंका योगदान भी सराहनीय रहा ।इतनी सारी छंद विधाओ के बारे में सीखने-सिखाने के ओबीओ के इस आयोजन की, और इसमें योगदान करने वाले सभी काव्य रचनाकारों की जितनी प्रशंशा की जाए, कम है । सब हार्दिक बधाई के पात्र है ।
वाह आदरणीय लडिवाला जी, आप तो आयोजन को एक बार पुनः लाइव कर दिया,बहुत ही बढ़िया रिपोर्टिंग, आभार स्वीकार करें ।
आदरणीय लक्ष्मण जी हार्दिक आभार आपका आपको भी बधाई देना चाहूँगी की इस छंदोत्सव में तीन दिन आप पूर्णतः सक्रिय रहे और अपने बेहतरीन छन्दों का योगदान दिया
इस विशद रपट सदृश टिप्पणी के लिए आपका सादर धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी. आपने सद्यः समाप्त छंदोत्सव आयोजन पर संक्षिप्त किंतु एक जीवंत रपट साझा किया है.
आदरणीय, इसे ही मिलजुल कर दायित्व का निर्वहन करना कहते हैं.
सादर
हार्दिक आभार श्री विध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी
एक अरसे बाद एक संतुष्टिदायी छंदोत्सव आयोजन का सफल संचालन हुआ. अंक -23 कई मायनों में अद्वितीय रहा. प्रतिभागियों में प्रविष्टियों के प्रति उत्साह तो था ही, प्रतिक्रियाओं और टिप्पणियों के माध्यम से भी कई-कई तथ्यों पर चर्चाएँ हुईं. जो नये-हस्ताक्षरों के साथ-साथ पुराने सदस्यों के लिए भी रचनाकर्म के लिहाज से मार्ग-दर्शक साबित हुईं. ऐसी प्रतिक्रियाओं और सार्थक टिप्पणियों का उद्धरण आने वाले समय में अवश्य-अवश्य ही लिया जाता रहेगा.
छंदों में जहाँ दोहा और कुण्डलियाँ छंद पटल पर रचनाकारों के लिए सबसे प्रसिद्ध छंद के रूप में उभर कर सामने आये, वहीं मनहरण घनाक्षरी, सुन्दरी सवैया, सरसी छंद, वीर छंद, भुजंगप्रयात छंद, हरिगीतिका, रूपमाला छंद ही नहीं चौपाई और रोला छंदों में भी उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.
दूसरे, नये सदस्यों की एक ऐसी पौध सामने आयी है, जो अपनी रचनाओं के प्रति गंभीर तो है ही, आचरण और समझ में बहुत संतुलित है. यह पटल के लिए भी अत्यंत संतोष की बात है. वहीं अब पुराने सदस्यों के लिए यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि अपनी प्रतिभागिता और प्रविष्टियों के प्रति चलताऊ आचरण के प्रति गंभीर हों. छंदों के कथ्य ही नहीं उनकी विधाओं के प्रति भी अब आग्रही और संयमित होने का समय आगया है. इस मायने में इस बार का छंदोत्सव मील के पत्थर स्थापित करता दीखा है.
प्रतिभागिता करते सदस्य और पाठक सदस्यों के समर्पण और उत्तरदायी आचरण से यह छंदोत्सव ओबीओ के अत्यंत सफल आयोजनों में से एक साबित हुआ है. इस हेतु सभी सदस्यों, शुभचिंतकों और नेपथ्य से सहयोग देते महानुभावों का हम सादर अभिनन्दन करते हैं.
भाई गणेशजी को छंदोत्सव की सभी रचनाओं को संग्रहीत करने के कष्टसाध्य कार्य के लिए हृदय से धन्यवाद.
सौरभ जी एक और उपलब्धि कि मुझ जैसों को कुछ सीखने का अवसर मिला। अगर जीवन में कभी छंद लिखने में सफल रहा तो इसका श्रेय इस छंदोत्सव को ही जाएगा।
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