For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" - अंक 33 में शामिल सभी गज़लें, चिन्हित मिसरों के साथ

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" - अंक 33में शामिल सभी गज़लें, चिन्हित मिसरों के साथ .....

अभिनव अरुण जी

गांधी बता के मारा ईसा बता के मारा ,
सच को सदा हमीं ने सूली चढ़ा के मारा I

 

भेजूं हज़ार लानत तुझपे कि ए सियासत ,
सेवा की भावना को धंधा बना के मारा I

 

मूल्यों के ह्रास की अब धारा अजब बही है ,
बेटों ने अपने हक में सबकुछ लिखा के मारा I

 

आँगन के बीच तुलसी माँ थी तेरी निशानी ,
कमरे की चाहतों ने उसको सुखा के मारा I

 

परवान कब चढ़ेंगी अरबों की योजनायें ,
सारे शहर को तूने गड्ढा बना के मारा I

 

ए शहर ! गाँव में थे, तो हम जियादा खुश थे ,
थोथे विकास का क्यों चाबुक चला के मारा I

 

मत हाल पूछिये उन सपनो की असलियत का ,
इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा I

 

तुझमें किरण बछेन्द्री दुर्गा भी तुझमे बसती ,
हमने तेरे हुनर को पर्दा करा के मारा I

 

सब जीव पेड़ पौधे फ्लैटों में कब रहे हैं ,
हरियालियों पे हमने जंगल बिछा के मारा I

**********************************                      

अमित मिश्र जी

१.
हर पल मुझे शहर ने आँखें दिखा के मारा
पर गाँव, खेत ने निज कायल बना के मारा

हर एक के नजर में दहशत मुझे दिखा है
शायद किसी बहू को फिर से जला के मारा

ये प्यार बन रहा है सौदा कठिन, जहर सा
पुतला बना हवस का बकरा बना के मारा

 

वो बीच राह पर दस दिन से तड़प रही है

रोटी दिया न कोई , डायन बता के मारा

 

जोकर बना "अमित" बातों से क्या किया, जो
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

२.

नखरे दिखा के मारा, जलवे दिखा के मारा
वो प्रेमिका गजब थी, पागल बना के मारा

जब रेल हादशे में दुनियाँ उजड़ गया, तो
सरकार ने सभी को पैसे सुँघा के मारा

है कसम यार तुझको थोड़ी शराब पी लो
गर सनम ने कभी भी गम में डुबा के मारा

हम लाश बन गये हैं पर साँस चल रही है
जब से विरह जलन में आशिक जला के मारा

ढाते सदा गजब हीं कवि शब्द वाण बन कर
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

मादक शबाब ने तो तबियत बदल दिया था
जुल्मी नकाब ने फिर पल पल सता के मारा

केवल गुलाल मल के होली नहीं जमेगी
इस बार "अमित" ने तो पी के पिला के मारा

**********************************


अरुण कुमार निगम जी

१.

हम को पड़ोसनों ने , जलवे दिखा के मारा
शायर से छेड़खानी ! गज़लें सुना के मारा ||

 

होली के दिन सुनोजी , ऐसा नशा चढ़ा था
पिचकारियों में दारू , थोड़ी मिला के मारा ||

 

चैटिंग में पहले लूटा , डेटिंग में था फँसाया
फिर बाद की न पूछो ,दूल्हा बना के मारा ||

 

बाजार – भाव सुन कर  ,  हैरान  आदमी है
हर रोज मुफलिसों को,कीमत बढ़ा के मारा ||

 

कातिल के हाथ खाली, खंजर न तीर फिर भी
इसको हँसा के मारा  ,  उसको रुला के मारा ||

 

२.

बी. पी. चढ़ा के मारा , शूगर बढ़ा के मारा
ढलती हुई उमर ने , धत्ता बता के मारा ||


जब खा नहीं सका तो उन पर रिसर्च की है
पकवान को इशक ने ,चस्का लगा के मारा ||


पीली चुनर सँभाले , सिमटी रही जलेबी
भुजिया ने भावनायें , उसकी जगा के मारा ||


गुझिया लजा रही थी , लड्डू ने आँख मारी
पर चांस इमरती ने, था बच बचा के मारा ||


रोया गुलाब-जामुन , बरफी बहक गई थी
रसगुल्ले तू ने चाँटा ,क्यों दोस्ती पे मारा ||


था भांग का भगोना , सामान खुदकुशी का
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा ||

**********************************

अरुन शर्मा "अनन्त" जी  

१.

बासी रखी मिठाई मुझको खिला के मारा,
मोटी छुपाके घर में पतली दिखा के मारा.

 

जैसे ही मैंने बोला शादी नहीं करूँगा,
साले ने मुझको चाँटा बत्ती बुझा के मारा.

 

उसको पता चला जब मैं हो गया दिवाना,
मनमोहनी ने धोखा मुझको रिझा के मारा.

 

आया बहुत दिनों के मैं बाद ओ बी ओ पर
ग़ज़लों के माहिरों ने मुझको हँसा के मारा.

 

तकदीर ने हमेशा इस जिंदगी के पथपर
इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा ...

 

२.

जीजा बुरा न मानो होली बता के मारा,
सूरत बिगाड़ डाली कीचड़ उठा के मारा.

खटिया थी टूटी फूटी खटमल भरे हुए थे, 
सर्दी की रात छत पर बिस्तर लगा के मारा.

काजल कभी तो शैम्पू बिंदी कभी लिपिस्टिक,
बीबी ने बैंक खाता खाली करा के मारा.

अंदाज था निराला पहना था चस्मा काला,
इक आँख से थी कानी मुझको पटा के मारा

गावों की छोरियों को मैंने बहुत पटाया,
शहरों की लड़कियों ने बुद्धू बना के मारा.

**********************************

अविनाश एस० बागडे जी

१.

इक बार ही तो मैंने, बेलन उठा के मारा,
शौहर कवि थे मेरे ,कविता सुना के मारा .

उसकी हर इक अदा में ऐसी थी मारा -मारी,
नज़रे उठा के मारा, अंखिया झुका के मारा.

कहते हैं पीनेवाले, कसम है मयकशी की,
साकी ने मैकदे में , जलवा दिखा के मारा .

चित भी है तेरी मौला,पट भी तेरी खुदाया,
इसको हंसा के मारा ,उसको रुला के मारा .

अपने विरोधियों को ,इस भ्रष्ट सियासत में,
लालू के तेवरों ने , चारा खिला के मारा !!!!

२.

शतरंज  की  बिसाते  जैसे  बिछा  के  मारा ,

किस घाट पे हमें भी किस्मत ने ला के मारा .

 

शम्मा ओ परवाना तेवर है शायरी के,

नादान थे पतंगे , लौ ने जला के मारा .

 

बैठे थे मुंह छिपा के पर्दों में सात अपना,

हर हाल में कज़ा ने बाहर बुला के मारा .

 

देखा है दफ्तरों में ,अक्सर यही नज़ारा ,

लोगों ने बाबूओं को,खिला-पिला के मारा .

 

परवर दिगारे आलम ,तेरा है खेल सारा,

इसको हंसा के मारा ,उसको रुला के मारा .

 

क्या दोष बच्चियों का,बुजदिल बता न पाये,

कोख में ही जिनको साज़िश रचा के मारा !!!


**********************************

अशफाक अली (गुलशन खैराबादी) जी

कभी रुख से अपने पर्दा मुझे यूँ उठा के मारा 

जलवा भी अपने चिलमन से दिखा दिखा के मारा.

 

साकी से मुझको शिकवा न गिला मुझे किसी से 

ग़म-ए-इश्क ने तो मुझको यूं रुला रुला के मारा.

 

सारे जहाँ से अच्छे हिन्दोस्तां को जालिम 

दुश्मन समझ के लूटा आशिक बना के मारा.

 

खिलने लगी कली तो भौरों ने मुस्कुरा कर 

कभी चूम चूम मारा कभी गुनगुना के मारा.

 

कभी टीम इंडिया में है चला सचिन का बल्ला 

कभी चार रन की धुन में छक्का घुमा के मारा.

 

मुझको बना के पागल उसको बना के आशिक 

इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा.

 

ऐसा कभी नज़ारा "गुलशन" है तुमने देखा 

कलियाँ जो मुस्कुराई भवरों ने गा के मारा.

**********************************

अशोक कुमार रक्ताले जी

जब रंग ना चढ़ा तो उसने पटा के मारा,

शायर था सीधा साधा गजलें सुना के मारा |

 

होली कहाँ चढ़ी थी बस भांग घिस रहा था,

पिसता रहा सदा मैं भंगी बना के मारा |

 

दोनों मिले हुए थे जब रंग मुझ पे डाला,

मेरी ही जेब से था मुझ पे चुरा के मारा |

 

हम सब पुते हुए थे इक रंग दिख रहे थे,

उसने  बुला बुला के मुखड़ा धुला के मारा |

 

थाली सजी हुई थी रोटी अचार पापड,

खाना गरम बना था खाना खिला के मारा |

 

रिश्ता ‘अशोक’ है ये साथी पड़ोसियों का,

इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा |

**********************************

गणेश जी बागी

महँगाई का ये दानव, ऐसा नचा के मारा,
भूखे सुला के मारा, भूखे जगा के मारा ।१।

 

अब मारना तो उसकी फितरत में ही है शामिल,
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा ।२।

 

सूखे चने चबाते, सोते थे चैन से हम,
जालिम शहर ने मुझको जगमग दिखा के मारा ।३।

 

गलती से मैं गया जो राजेश जी के घर पर,
खिचड़ी, दही, घी, पापड़, हलवा खिला के मारा ।४।

 

अच्छा भला खिलाड़ी है नाम तेंदुलकर,
उसको सियासियों ने खादी ओढ़ा के मारा ।५।

 

दिन रात टुन्न रहता, मुँह से भी मारे भभका, 
वीनस की लत बुरी है, बोतल तड़ा के मारा ।६।

 

मच्छर का प्रेत शायद, मैडम में आ घुसा है 
अब साफ़ कुछ न कहती बस भुनभुना के मारा ।७।

 

कल अपनी इक पड़ोसन को रंग जो लगाया, 
बीवी ने देख मंज़र बेलन चला के मारा ।८।

 

*तकलें त बबुआ गइलें, नवका नियम में भीतर,
वो छीन लिहिस नकदी डंडा घुमा के मारा ।९।

*ताकना = घूरना 

**********************************

तिलक राज कपूर जी

ज़ालिम ने इस अदा से अपना बना के मारा
झाड़ू के टूटने पर, बेलन उठा के मारा।

 

मैदान, जब न कोई, पढ़ने में मार पाये 
बेटी रईस घर की, हम ने पटा के मारा।

 

सबके लिये अलग हैं कातिल अदायें उसकी 
’इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा।’

 

मरदूद मनचलों को होली के दिन बुलाकर
छज्जे से कूद उनपर, सबको दबा के मारा।

 

दिल से बना रही हूँ, इक और लीजिये तो 
भर पेट खा चुके तो फिर से खिला के मारा।

 

गाजर का ढेर देकर बोले हमें कि किस दो 
जब हमने किस दिया तो लुच्चा बता के मारा।

 

दो बूंद भी नहीं हम नीचे उतार पाते
ये जानकर भी उसने खम्बा पिला के मारा।

**********************************

फरमूद इलाहाबादी 

खुश हो गई तो बेगम ने गुदगुदा के मारा 
गुस्से में आ गई तो मुझ को गिरा के मारा.

झपटी वो मेरे ऊपर खूंखार शेरनी सी 
कूल्हे में दांत काटे पिंडली चबा के मारा. 

टकले में जख्म के हैं अब भी निशान बाकी 
सर मेरा उस्तरे से उसने मुंडा के मारा.

सीधा न हो सकूं मैं औंधा भी हो न पाऊं 
चित भी लेटा के मारा पट भी लेटा के मारा.

सूरत बिगाड़ कर वो दिखलाना चाहती थी 
आँखें ही हैं सलामत यूँ भौं बचा के मारा.

 

दो पहले आशिकों की फोटो दिखा के बोली 
"इस को हँसा के मारा उस को रुला के मारा"

सास और नन्द भी क्यों जलती नहीं किचन में 
ज़ाहिर है के बहू का कसदन जला के मारा.

ऐसी भी हैं मिसालें एनकाउंटर की यारों 
मुल्ज़िम को घर से पकड़ा जंगल में ला के मारा. 

इक तीर दो निशाने की यूँ हुई सियासत 
परधान और जिया उल हक को फंसा के मारा. 

फरमूद मैं तो समझा कुत्ता ये बा वफ़ा है 
ज़ालिम ने दुम हिलाई पंजा घुमा के मारा. 

**********************************

बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)जी

१.

ग़र तू मिले, बताऊं, कैसे रूला के मारा

इस जिंदगी ने देखो कैसे ज़िला के मारा

 

महबूब मेरा मुझको छलता रहा यूं हर पल

नजरें मिला के मारा, नजरें चुरा के मारा

 

ये आदमी की फितरत, दोस्त बन के मारा

इसको हंसा के मारा, उसको रूला के मारा

 

जो बह रहा है दरिया उसमें जहर घुला है

इन नफरतों ने सबको कैसे जला के मारा

 

बिस्तर न चारपाई, बस साथ ये बिछौना

इस आत्मा को मैंने तन से लगा के मारा

  

२.

इक रोज मैं तो अपने छत पर खड़ा हुआ था
उसने कहीं से मुझ पर कंकड़ उठा के मारा

 

होली के दिन न अपनी हरकत से बाज आए
सबने उसे गली में दौड़ा लिटा के मारा

 

वो रोज, तंग करता, लड़की को, आते जाते
लड़की ने फिर तो इक दिन थप्पड़ घुमा के मारा


तुझको खबर नहीं थी मुझको खबर लगी है
इक आइने ने सबको सूरत दिखा के मारा

 

मुझको तो ये पता था ऐसा ही वो करेगा
इसको हंसा के मारा उसको रूला के मारा

**********************************

मोहन बेगोवाल जी

कब दुश्मन ने हमें  चोराहे पे ला के मारा

ये तो दोस्त था जिस अस्मां गिरा के मारा

 

तारे न चाँद जब कुछ उसका बिगाड़ पाये,

तब अँधेरे को सुबह की लाली भगा के मारा  

 

हम कब बुरे थे जब हम बचपन की गोद में थे   

उड़ने की चाहत ने बचपन को चुरा के मारा

 

हम को मुफ्लसी ने ये केसा मंजर दिखाया,

छत को गिरा, कभी दीवारें गिरा के मारा

 

दुनिया को  बजार ने कुछ ऐसे बेचा खरीदा,

इसको  हँसा के मारा, उसको रुला के मारा 

**********************************

राज लाली शर्मा जी

इसको हँसा  के मारा, उसको रुला के मारा

कैसा समय यह निरछल  ,सभ को भगा के मारा !!

 

हमको ना  यह पता है  ,उसका कहाँ ठिकाना !

उसने तो  हम को अपना यारो बना के मारा !!

 

मिलते है वोह तो जब भी दिखते थे वोह अनाड़ी

पगला  सा फिर रहा हूँ आँखें झुका के मारा !!

 

तेरे प्यार की तडप है ,खुद को मैं ढूँढता हूँ !

चुप हो के ढूँढता हूँ जिसको रुला के मारा !!

 

फिर हम कभी मिलेंगे ऐसा हुआ  था  वादा !

कसमें भी उनकी झूठी ,उनको निभा के मारा !!

 

दरिया से पूछते हो आया कहाँ  से पानी !

नदियों का था यह  शिकवा किसने  वहा के मारा !!

 

चारों तरफ था चरचा महिफिल में किस का  यारा

हर आँख ही तो नम थी ,सभ को रुला के मारा !!

 

आँखे करूं जो बंद तो उनका दीदार   'लाली'  !

परदा उठा  जो सच का  सभ कुछ गिरा के मारा !!

**********************************                   

राजेश कुमारी जी

१.

शब्दों का आज उसने खंजर बना के मारा
इक शांत सी नदी में पत्थर उठा के मारा

 

नाराज आशिकों में होती रही ये चर्चा

जिस रूप के दीवाने उसने जला के मारा

 

उसकी नहीं थी फितरत धोखे से वार करना

दुश्मन को सामने से उसने बता के मारा

 

या रब मुझे बता दे ये कैसा फेंसला  है

इसको हंसा के मारा उसको रुला के मारा

 

क्यों आज मुहब्बत का दुश्मन हुआ ज़माना
इसको जहर से मारा उसको जला के मारा

 

समझा नहीं अभी तक क्या होती है आजादी

पिंजर में पंछियों को उसने सजा के मारा

 

विश्वास करके जिसका हमनें  किया भरोसा

ए "राज" आज उसने नफरत दिखा के मारा

 

२.

चिलमन  गिरा के मारा चिलमन उठा के मारा

दिल फेंक आशिकों  को यूँ दिल जला के मारा

 

होली की आड़ में था उसका घिनौना मकसद

गुझिया में भांग विष की मदिरा पिला के मारा

 

बच्चों से जा के उलझा वो भांग के नशे में 

इसको हँसा के मारा उसको रुला के मारा

 

जिस को सता रहा था वो फाग के बहाने

उसकी सहेलियों  ने टब में डुबा के मारा 

 

अनजान बन रहा था शौहर  बड़ा खिलाड़ी     

बीबी ने आज शापिंग का बिल दिखा के मारा

 

दिन रात जिस कुड़ी को मिस काल भेजता था

उसके ही भाइयों ने  कंबल उढ़ा के मारा

 

खाए सभी टमाटर बेखौफ बंदरों ने

टोका जरा  सा उनको थप्पड़ घुमा के मारा

 

हम सब को ज़िंदगी की देते खुराक जंगल

उनकी ही गर्दनों पे आरी चला के मारा 

**********************************

 

राम शिरोमणि पाठक जी  

(इस गज़ल में गिरह का शेर नहीं है)

पागल मुझे बनाया पत्थर उठा के मारा,
अपनी नज़र से उसने मुझको गिरा के मारा !१

 

न्योता दिया अकेले ही भोज में बुलाया,
फितरत न जान पाया बासी खिला के मारा !२

 

लड़की से छेड़खानी भारी बहुत पड़ा है,
लोगो ने खूब पीटा  डाकू बता के मारा !३

 

बेगम ने बॉस ने भी समझा मुझे निकम्मा , 
इसने भगा के मारा उसने बुला के मारा !४

 

साड़ी का ना दिलाना मुझको पड़ा था महंगा,
भारी शरीर से थी मुझको दबा के मारा !५

 

दर दर भटक रहा था किस्मत मुझे रुलाती ,
मुझको सभी चिढाते पागल बता के मारा !६

********************************** 

विशाल चर्चित जी
चिमटा चला के मारा, बेलन चला के मारा
फिर भी बचे रहे तो, भूखा सुला के मारा

बरसों से चल रहा है, दहशत का सिलसिला ये
बीवी ने जिंदगी को, दोजख बना के मारा

कैसे बतायें कितनी मनहूस वो घडी थी
इक शेर को है जिसने शौहर बना के मारा

वैसे तो कम नहीं हैं हम भी यूं दिल्लगी में
उसपे निगाह अक्सर उससे बचा के मारा

चर्चित को यूं तो दिक्कत, चर्चा से थी नहीं पर
बीवी ने आशिकी को मुद्दा बना के मारा

**********************************

सौरभ पाण्डेय जी

नज़रें मिला के मारा, आँखें चढ़ा के मारा  
साथी मिली भंगेड़ी पीकर-पिला के मारा 

फूटीं मसें जभी से, चिड़िया उड़ा रहा हूँ 
ये बात अब अलग है सबने चढ़ा के मारा 

हर वक़्त मन रंगीला सिर पे खुमार भारी 
बातें करे मुलायम धड़कन बढ़ा के मारा 

’इस्टार’ होटलों में चिखचिख हुई जो बिल पर   
बैरे का ताव देखो फूहड़ बता के मारा 

घुच्ची व गिल्लियों के हम खेल में फँसे यों 
साथी बड़े कसाई दौड़ा-पदा के मारा 

पकवान उत्सवों में, ये बात अब पुरानी   
सरकार ने चलन को कीमत बढ़ा के मारा 

इक पाश है जगत ये सुख-दुख ग़ज़ब के फंदे  
इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

**********************************

संदीप कुमार पटेल जी  

अव्वल तो उसने हमको नजरें मिला के मारा

जी भर गया जो हमसे नज़रें चुरा के मारा

 

कितनों को बेबफा ने दिल से लगा के मारा

इसको हँसा के मारा, उसको रुला के मारा

 

कुछ काम बेहया की मुस्कान कर गयी और

फिर दोस्तों ने हमको पानी चढ़ा के मारा

 

बातें शहद सी मीठी, मासूम सी अदा ने

नादान मेरे दिल को पागल बना के मारा

 

दीदार एक पल दे पर्दानशीं हुए वो

तिश्नालबी-ए-दीद को हद से बढ़ा के मारा

 

पर इश्क के दिए औ पहुँचाया आसमाँ पर

तीरे दगा चला फिर हमको गिरा के मारा

 

धोखा फरेब हमको सौगात में दिया फिर

नफरत के घूँट कडवे सच में पिला के मारा

 

मजबूरियाँ बता के पहले तो साथ छोड़ा

आशिक को फिर उसी ने आँसू बहा के मारा

 

क्या हो गयीं हवाएं अब “दीप” तुम ही देखो

गर्दिश से जा मिलीं औ तुमको बुझा के मारा

**********************************

 

हरजीत सिंह खालसा जी

आँखे मिला के मारा, या मुस्करा के मारा,

उसने मुझे दिवाना, अपना बना के मारा,

 

कैसे कहूँ कि उसने, किस किस तरह से मारा,

पहले करीब आकर, फिर दूर जा के मारा,

 

इस ओर था ज़माना, उस ओर थी मुहब्बत,

इसको हंसा के मारा, उसको रुला के मारा ,

 

तरसा दिया बहुत जब,  तब ही गले लगाया,

खुद प्यास को बढ़ाया, खुद ही बुझा के मारा,

 

वो नित नए बहाने, मुझपे था आजमाता,

बांटी ख़ुशी कभी तो, ग़म भी सुना के मारा ....

 

की कोशिशें हजारों पर काम इक न आई,

उसने हमें हमारे दिल में समा के मारा

 नोट :-

1-ग़ज़लों को संकलित और त्रुटिपूर्ण मिसरों को चिन्हित करने का कार्य बहुत ही सावधानी पूर्वक किया गया है, यदि कोई त्रुटि दृष्टिगोचर हो तो सदस्य गण टिप्पणी कर सुधार करा लें ।

2-ग़ज़लों को संकलित करने का कार्य श्रीमती डॉ प्राची सिंह (सदस्या प्रबंधन समिति) तथा त्रुटिपूर्ण मिसरों को चिन्हित करने का कार्य श्री वीनस केशरी (सदस्य ओ बी ओ) द्वारा संपन्न किया गया है ।

 

Views: 4269

Reply to This

Replies to This Discussion

बहुत सुन्दर प्रयास हुआ है. डॉ. प्राची को ग़ज़ल संग्रह के कष्टसाध्य कार्य के लिए और वीनस को बेबह्र और दोषपूर्ण मिसरों को चिह्नित करने के लिए बधाई.

कतिपय मिसरों की सघन केशराशि में सिन्दुरिया रंग तनिक अबूझ लगा है, भाई, उनको तो नीले गगन के तले रहने देना अधिक उचित होता..  :-))

सौरभ जी,

नीले रंग की फरमाईश अनुचित नहीं है मगर फिर तो जैसा आपने कहा नील गगन की बात तो सारा आकाश नीला है ...

जो किसी दशा में स्वीकार्य नहीं है उनको ही चिन्हित किया गया है और जहाँ हल्का सा, किसी भी तरह की स्वीकारता को ग़ज़ल विधा में स्थान मिला है या मुझे संशय रहा है मैंने उसे छोड़ दिया है,

इस सन्दर्भ में "रंगीला" को १२२ वज्न पर बाँधने पर आपका विशेष ध्यान चाहूँगा क्योकि अभी तक किसी उस्ताद की ग़ज़ल में इस वज्न का प्रयोग मेरी नज़र से नहीं गुज़ारा है, यदि आपकी नज़र से गुज़ारा हो तो मेरी जानकारी बढ़ेगी  ....

आगे कोशिश रहेगी कि धीरे धीरे सूक्ष्म बातों की ओर बढ़ा जाये ...
जहाँ आपको अनुचित लगे अपनी बात कहें, क्योकि सीखने के क्रम में भूल किसी से भी हो सकती है ....



//फिर तो जैसा आपने कहा नील गगन की बात तो सारा आकाश नीला है ...//

हम खुद ही नीले पड़ गये.. ..

रंगीला को १२२ के वज़्न में बाँधना ही उचित नहीं है.  लेकिन इस शब्द का प्रयोग १२२ के वज़्न में कैसे हुआ यह पता ही नहीं चला.

हमें एक बात फिर से साझा करनी होगी कि कई शब्द के ऐसे अक्षर जिसमें दीर्घ स्वर मिला हो गिरा कर लघु करना उचित नहीं होता. जैसे कि सोच के सो को गिराना किसी हाल में उचित नहीं होगा. लेकिन जिन शब्दों के रूप को मान लिया गया है उनमें छूट तो है ही. जैसे कि कोई. इसका को गिर कर कुई भी होता है.

रंगीला रे रेरे रे @@@@@@@@@@@@@@@

तेरे रंग में @@@@@@@@@@@@@@.....  :-))))))))

हा हा हा हा .....

:):):)

सौरभ जी शुक्रिया,
आपके कहे से मेरा संशय दूर हुआ है
निवेदन है कि आप अपनी ग़ज़ल के इस मिसरे को लाल कर दें >> हर वक़्त मन रंगीला सिर पे खुमार भारी

// जिन शब्दों के रूप को मान लिया गया है उनमें छूट तो है ही //

मेरी जानकारी में ऐसे तीन शब्द हैं -
१- कोई
२- तेरा
३- मेरा
कोई चौथा शब्द हो तो साझा होना चाहिए जिससे जानकारी बढ़े ...

दीवाना, दीवाली आदि अभी मानक रूप से दिवाना, दिवाली रूप में स्वीकार्य नहीं हैं इसलिए उनकी गिनती इसमें नहीं की जा सकती
इसके अतिरिक्त और को अपवाद स्वरूप (मानक रूप से) अर् के बरवज्न दीर्घ मात्रिक (२) इस्तेमाल कर सकते हैं

सादर

हे वीनस महोदय महाप्राण.. !

जो कार्य आपके अधिवीक्षण में संभव हुआ मान्य तथा सुलभ हुआ है उस कार्य को मुझ असक्षम से सम्पादित करवाना .. ओह आह आउच !

जिह्वा में मोच आ गयी ; कलइया मुरुक गई ; उँगलियाँ जड़वत भईं...   :-)))))

भांग सर चढ़ के बोले तो रंगारंग कार्यक्रम संभव है ही है !!....

:-))))))

धन्य-धन्य !!..

उद्धृत शब्दों में से दीवाना का दी आवश्यकतानुसार भाईलोग अमूमन गिराते-विराते रहते हैं कि दिवाना लिखा मिलना अब चौंकाता तक नहीं.  यह अवश्य है कि दिवाली दीपावली का मान्य रूप है. दीपावली में दी दीर्घ ई के साथ और दिवाली में दि ह्रस्व दि के साथ.  दिवाली और दीपावली के बारे में ऐसा हम अपने जुनियर कक्षाओं से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं. यह कितना शुद्ध है इसे अब अवश्य देखना होगा.

जय हो.. .

और हाँ.. .   

देखा अइसे नजर नच्छत्तर,, जड़िवत लालम्लालभये..  .. .  :-))))))))

दिनांक - 26/ 04/ 2015

================

जिस समय इस मुशायरे में संकलित हुई ग़ज़लों पर चर्चा चल रही थी, ’सीखने-सिखाने’ के दौर में ’रंगीला’ के वज़न को १२२ करने पर वीनस भाई को आपत्ति थी. हम भी इसके पक्ष में कोई उदाहरण पेश नहीं कर पाये थे. बाद में जैसा कि पूर्व की टिप्पणियों से मालूम हो रहा होगा हमने भी मान लिया कि रंगीला का वज़न २२२ ही होगा. लेकिन चर्चा बनी रही.
कई वरिष्ठ शाइरों से लगातार बातचीत के बाद आज समझ का स्तर इस विन्दु तक आया है कि वीनस भाई और हम दोनों इस तथ्य से संतुष्ट हैं कि रंगीला का वज़न १२२ ही होना चाहिये.

ठीक इसी तर्ज़ पर -
चोट - चुटीला
नोक - नुकीला
तो, रंग - रंगीला
वस्तुतः रंगीला को सही ढंग से रँगीला लिखा जाना चाहिये.

आदरणीय सौरभ सर,

ये आपने अच्छी बात बताई, हार्दिक आभार 

रंग का वज्न 21 लेने के कारण रंगीला का वज्न  222 लगता है 

रँगीला सही अक्षरी है और वज्न 122 होगा.

सादर 

अवश्य ..

हम आप इसी तथ्य को स्वीकार करें कि रंगीला का वज़न 122 होता है..

शुभ-शुभ

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
8 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
22 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
23 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service