परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 34 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है. इस बार का तरही मिसरा जनाब अनवर मिर्ज़ापुरी की बहुत ही मकबूल गज़ल से लिया गया है. इस गज़ल को कई महान गायकों ने अपनी आवाज से नवाजा है, पर मुझे मुन्नी बेगम की आवाज़ में सबसे ज्यादा पसंद है . आप भी कहीं न कहीं से ढूंढ कर ज़रूर सुनें.
पेश है मिसरा-ए-तरह...
"न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाये "
1121 2122 1121 2122
फइलातु फाइलातुन फइलातु फाइलातुन
अति आवश्यक सूचना :-
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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// वो जफ़ा का तोहफा देकर हाल पूछते हैं
न कुरेदो जख्म मेरे कहीं हाथ जल न जाये//
वाह, वाह ! बहुत अच्छे खयाल हैं।
विजय निकोर
आदरणीय विजय निकोर जी आपकी प्रतिक्रिया से मन हर्षित है मेरा लिखना सार्थक हुआ |
मेरी एक कोशिश आप सबके समक्ष प्रस्तुत है।
मेरी ख्वाहिशों का मंज़र किसी शाम ढल न जाए
ये शहर की भीड़ मुझको कभी यूं निगल न जाए
यूं ही जिंदगी की खातिर जो बेज़ार से रहे हम
मेरी आंख में शमा बन कहीं वो पिघल न जाए
जो सूरज की चंद किरनें मेरे घर में खेलती हैं
किसी रोज तो हमारी कहीं नींद जल न जाए
ये सब्र आखिर हमारा देगा भी तो साथ कितना
कहीं भूख की तपिश में वो शीशा उबल न जाए
जो उठी तेरी पलक तो यहां चांदनी है बिखरी
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए
देती हैं जो रोज लहरें किनारों को यूं चुनौती
कभी इस अदा पे साहिल का ही दिल मचल न जाए
किसी ख्वाब को भी हमने न छुआ तनिक उम्र भर
मुझे डर था इस बहाने जिंदगी ही छल न जाए
- बृजेश नीरज
waah kya baat hai sabhi sher bahut acche page .........hardik badhai
आदरणीया शशि जी आपका आभार!
आ0 बृजेश नीरज भाई जी, सुन्दर गजल। ’मेरी ख्वाहिशों का मंज़र किसी शाम ढल न जाए
ये शहर की भीड़ मुझको कभी यूं निगल न जाए’ बहुत ही उम्दा। बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय केवल जी आपका आभार!
आदरणीय बृजेश नीरज जी सादर, बहुत सुन्दर गजल कही है. मतले का शेर और अंतिम शेर तो बहुत कमाल हैं. बहुत बहुत दाद कुबुल फरमाएं.
आदरणीय रक्ताले साहब आपने जो हौसला अफज़ाई की है उसके लिए आपका आभार!
भाई बृजेशजी, पहले तो बधाई इस बात की कि इस फ़ितरत की ग़ज़ल लिखी जिसका अंदाज़ रवायती है. (वैसे कुछ भावों का घालमेल भी है) दूसरे, आपने इस बह्र को साधने का प्रयास किया जो अपनी खुसूसियत से इस मुशायरे में कमाल कर रहा है और सबको अनुशासित कर रहा है.
आपके मतले ने दिल जीत लिया.
उसके बाद पहला शेर बहुत सुन्दर होता. बस उला को थोड़ा और स्पष्ट करें. सानी ग़ज़ब की हुई है.
दूसरे शेर में फिर सानी अँटक रही है. वैसे यह भाव कमाल का है. इसके लिए खूब बधाई.
ये सब्र ... यह मिसरा बेबह्र ही है. मुझे ऐसा ही लग रहा है.
फिर, गिरह.. भाव के लिए बधाई-बधाई-बधाई.. . वैसे इसे मंच संचालक भाई राणा जी ने मुझे ऐसे प्रयोग में ऐबे शुतुर्गुर्बा का दोष बताया है. जो अब मुझे भी सही लग रहा है. तू के लिए तेरी हुआ लेकिन सानी में उसी बिम्ब के लिए तुम है. ऐसा दोष जहाँ हो उसमें शुतुर्गुर्बा का दोष माना जाता है. यानि शुतुर्मुर्ग़ और गुर्बा यानि बिल्ली का संबंध.. यानि बेमेल. जैसे एकवचन के साथ उसी बिम्ब के लिए बहुवचन.. आदि-आदि.
किनारों को ११२ में नहीं बांध सकते. ऐसा करना उचित नहीं है. ना की मात्रा नहीं गिरनी चाहिये. इस शेर का सानी .. वाह वाह !
आखिरी शेर में उम्र नहीं उमर मिसरे के वज़्न में आयेगा. और इसके सानी में ज़िन्दग़ी मिसफ़िट लगी मुझे.
भाई जितना सीखा है उतना सिखा दिया.. . :-))))
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ जी, आपके मार्गदर्शन के लिए आपका आभार! आपने जिस विस्तार से समझाया है उससे मुझे बहुत मदद मिली है।
अपनी रचना में कुछ सुधार करने का प्रयास किया कृपया इस देखें और मार्गदर्शन प्रदान करें।
सादर!
मेरी ख्वाहिशों का मंज़र किसी शाम ढल न जाए
ये शहर की भीड़ मुझको कभी यूं निगल न जाए
मेरे दिल में पल रही है ये जो पीर इतने दिन से
मेरी आंख में शमा बन कहीं वो पिघल न जाए
जो सूरज की चंद किरनें मेरे घर में खेलती हैं
किसी रोज इनसे आंगन कहीं मेरा जल न जाए
जोर जुल्म सब सहे हैं मैंने पेट की ही खातिर
कहीं भूख की तपिश में ये शीशा उबल न जाए
जो उठी ज़रा पलक तो यहां चांदनी है बिखरी
न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाए
देती हैं ये रोज लहरें यूं उछल के जो चुनौती
कभी इस अदा पे साहिल का ही दिल मचल न जाए
किसी ख्वाब को भी हमने न छुआ तनिक उमर भर
मुझे डर था इस बहाने जिंदगी ही छल न जाए
- बृजेश नीरज
आदरणीय ब्रजेश नीरज जी
प्रयास सराहनीय है परन्तु अभी भी बहुत सारी शिल्पगत खामियां हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए| ध्यान दें की दी गई बह्र में पहले और तीसरे रुक्न ११२१ हैं जिनमे प्रारंभ के दो लघु स्वतंत्र हैं इन्हें मिलाकर एक गुरु अर्थात २ मात्राएँ नहीं किया जा सकता है| ग़ज़ल की तकतीई करने से यह स्पष्ट हो जाएगा की कहाँ पर चूक हुई है| ख्याल आपके उम्दा हैं एक बार बहर पर पकड़ हो गई तो ग़ज़ल को चार चाँद लग जायेंगे| मेरी तरफ से ढेर सारी शुभकामनाएं|
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