नवगीत हिन्दी काव्यधारा की एक नवीन विधा है। नवगीत एक तत्व के रूप में साहित्य को महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ । इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान की प्रवाहमयी रचनाओं और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है ।
नवगीत विधा नें गीत को संरक्षण प्रदान करने के साथ आधुनिक युगबोध और शिल्प के साँचे में ढाल कर उसको मनमोहक रूपाकार प्रदान करने का काम किया है । समकालीन सामाजिकता एवं मनोवृत्तियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करती काव्य रचनाएँ नवगीत कहलाती हैं। नवगीत में गीत की अवधारणा कदापि निरस्त नहीं होती, अपितु वह तो पूर्णतः सुरक्षित है। गीत के ही पायदान पर नवगीत खड़ा हुआ है।
यदि कोई रचना सिर्फ प्रस्तुति के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है, जो हृदय सागर में व्याप्त भावों से निस्सृत होती है, यदि वह जन चेतना को शब्द नहीं देती, यदि वह अंतस की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति नहीं हैं, यदि वह उल्लसित हृदय का उन्मुक्त गीत नहीं है, यदि वह मस्तिष्क में कोई सवाल उठाने में सक्षम नहीं है, यदि उसमें मन में कौंधते सवालों का जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है, यदि वह अमृत रसधार की वर्षा से जन मानस को संतृप्त नहीं करती, तो वह निष्प्राण है, बेमानी है। इसी दृष्टिकोण से किये गए रचनाकर्म में नवगीत के प्राण हैं।
नवगीत में कथ्य, प्रस्तुति के अंदाज, रागात्मक लय और भाव प्रवाह का रचाकार के हृदय में ही नवजन्म होता है। नवगीत जितना ही बौद्धिक आयाम में स्वयं को संयत रखता है और आत्मीय संवेदन की अभिव्यक्ति बनता है , उतना ही खरा उतरता है। समकालीन पद्य साहित्य में नवगीत नें अपने माधुर्य, सामाजिक चेतना और यथार्थवादी जनसंवादधर्मिता के ही कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है ।
नवगीत का शिल्प :
अनुभूति की संवेदनशील अभिव्यक्ति किसी भी रचना को मर्मस्पर्शी बनाती है । महाकवि निराला की सरस्वती वंदना में “नव गति नव लय ताल छंद नव” को ही नवगीत का बीजमंत्र माना गया है ।
नवगीत सनातनी या शास्त्रीय छंदों में प्रयोग के तौर पर प्रारंभ हुए. जैसे, दोहे के मात्र विषम चरण को लेकर साधी गयी मात्रिक पंक्तियाँ, या किसी दो छंदों का संयुक्त प्रयोग कर साधी गयी पंक्तियाँ. आदि-आदि. बाद मे नवगीतकारों ने स्वयंसंवर्धित मात्राओं का निर्वहन करना प्रारम्भ किया और बिम्ब, तथ्य और कथ्य में भी विशिष्ट प्रयोग करने की परिपाटी चल पड़ी. इसी तौर पर आंचलिक या ग्राम्य बिम्बों पर जोर पड़ा.
समकालीन नवगीतकारों दो श्रेणियाँ आज स्पष्ट देखने को मिलती हैं : एक वे हैं जो छंदों को महत्त्व देकर उनकी मर्यादा में रहकर गीत लिखते हैं, और दूसरे वे हैं जो छंद में नए प्रयोग करते हैं और लय आश्रित गीत लिखते हैं । प्रथम मतावलम्बी कहते हैं कि नयेपन के लिए छंद तोड़ना आवश्यक नहीं, बल्कि उसकी सीमा का निर्वहन करते हुए आत्मा और हृदय की मुक्तावस्था को शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, मुहावरों, अलंकारों के द्वारा नयेपन के प्रति प्रतिबद्ध होना आवश्यक है । वहीं दूसरे वर्ग के मतावलम्बी अनुभूतियों की भावात्मक और उन्मुक्त प्रस्तुति के लिए लय व विधान के निर्धारण में भी स्वतंत्रता व अनंत विविधता के पक्षधर हैं ।
नवगीत में एक मुखड़ा व दो-तीन या चार अंतरे होते हैं । हर अंतरे का कथ्य मुख्य पंक्ति से साम्य लिए होता है, व हर अंतरे के बाद मुख्य पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है । हर अंतरे में अंतर्गेयता सहज व निर्बाध होती है साथ ही हर अंतरा दूसरे अंतरे व मुखड़े से सम्तुकान्ताता अनिवार्य रूप से रखता है । मुखड़े की पंक्तियाँ ही गीत की अंतर्धारा का निर्धारण करती हैं व गीत की आत्मा को चंद शब्दों में ही प्रस्तुत करने में समर्थ होती हैं ।
नवगीत में असाधारण कथ्य का एक उदाहरण पेश है..
"कांधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम हँसता है तम
युद्धों के लावा से उठते हैं प्रश्न और गिरते हैँ हम”
राधेश्याम बन्धु जी के नवगीत में से अदम्य जिजीविषा और चेतावनी का स्वर का एक उदाहरण देखिये
"जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे।"
मौसम पर आधारित नवगीत में परोक्ष सन्देश का एक उदाहरण देखिये
"धूप में जब भी जले हैं पाँव घर की याद आयी
नीम की छोटी छरहरी छाँव में डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता माँ-बँध ऑंगन
सफर में जब भी दुखे हैं पाँवघर की याद आयी”
इस नवगीत में ग्रीष्म का वर्णन भर न होकर संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश भी निहित है
अटल जी के प्रस्तुत नवगीत में सामयिक कथ्य और पीढा की अनुभूति देखिये
"चौराहे पे लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखरी चाल
कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं"
अटल जी के नवगीत में आह्वाहन भरी पंक्तियाँ देखिये
"आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।"
नवगीत लेखन में सावधानियाँ :
नवगीत जितना सहज होता है, उतना ही प्रभावशाली होता है। अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में यह नहीं भूलना चाहिए कि संप्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भाषीय क्लिष्टता और प्रयुक्त बिम्बों की दुरूहता चौंकाती ज्यादा है और सुहाती कम है, जिसके कारण उसका पाठकों व श्रोताओं से सहज संवाद स्थापित नहीं हो पाता । नवगीत का सहज गीत होना भी ज़रूरी है ।
नवगीतों नें सदा से ही लोकजीवन से ऊर्जस्विता ग्रहण की है, किन्तु यह नवगीत का प्रतिमान नहीं है । आँचलिकता रचना में नव्यता लाती है, किन्तु जब आँचलिकता ही प्रधान हो जाए तो वह नवगीत का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही पूरा नहीं करती। भाषायी स्तर पर किये गए अत्यधिक आँचलिक प्रयोग कथ्य की संप्रेषणीयता को कम करते हैं । कभी कभी तो रचनाओं को समझने के लिए शब्दकोशों का सहारा लेना पड़ता है । वास्तव में ऐसी क्लिष्टताओं से मुक्त गीत ही नवगीत होता है। अतः नवगीत में आँचलिक शब्दों को उनके परिवेश के अनुरूप ही संयत तरह से उठाना चाहिए ।
नवगीत में आत्मकथा कहने की प्रवृत्ति नहीं होती । जीवन के सुख-दुःख को विस्तार से समेटने, स्मृति की सिरहनों को सम्पूर्णता से शब्दशः व्यक्त करने , आगत अनागत को चित्रित करने , आपबीती का बखान करने आदि का विस्तार नवगीत में दोष माना जाता है ।
नवगीत में बिम्ब प्रधान काव्यता तो अभिप्रेय है, किन्तु सपाट बयानी नहीं , क्योंकि सपाट सिर्फ गद्य ही होता है, गीत नहीं। सपाट बयानी सम्प्रेषण का माधुर्य हर लेती है, बिना गेयता और प्रवाह के कोई भी अभिव्यक्ति नवगीत नहीं हो सकती ।
नवगीत सदा ही अर्थप्रधान होना चाहिए, कोरी तुकबंदी उसे फ़िल्मी गीत सा सतही, अत्यधिक आँचलिकता उसे लोक-गीत सा आँचलिक और आपबीती का बखान उसे सिर्फ साधारण गीत ही रहने देते हैं ।
नवगीत में मात्रा गणना के नियम :
नवगीत विधा गीत का ही नया आधुनिक स्वरुप है, तो जितने नियम गीत में होते हैं वह तो नवगीत में होंगे ही पर कुछ और नव्यता के साथ...
@सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि गीत क्या है......?
सुर लय और ताल समेटे एक गेय रचना जो अंतर्भावों की प्रवाहमय सहज अभिव्यक्ति हो
@अब यह जानना होगा कि समान गेयता और सुर लय ताल कैसे आते हैं?
यदि हम मात्रिक नियमों का पालन करते हैं... शब्द संयोजन में कलों के समुच्चय का निर्वहन करते हुए..यानी सम शब्दों के साथ सम मात्रिक शब्द लेकर व विषम शब्दों के साथ विषम मात्रिक शब्द लेकर.
स्वयं ही देखिये कि क्या एक पंक्ति में १४ मात्रा और दूसरी पंक्ति में १७ मात्रा किन्ही दो पंक्तियों में सम गेयता दे सकती हैं?
यह सही है कि मात्रा के निर्धारण में स्वतंत्रता होती है, पर जो निर्धारण मुखड़े में किया जाता है ...यदि अंतरे की अंतिम पंक्ति उसी का पालन नहीं करेगी तो फिर उसी लय में मुखड़े को दोहराया कैसे जाएगा..
यदि मुखड़ा १६, १६ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी ८ या १६ की यति पर होनी चाहियें
यदि मुखड़ा १२, १२ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी १२ की होनी चाहियें
इसमें ....अनंत विविधताएं ली जा सकती हैं इसीलिये इसे नियमबद्ध करना संभव नहीं है....पर एक बात ज़रूर है कि एक ही गणना क्रम का पालन तो पूरे गीत में करना ही चाहिए
अब एक महत्वपूर्ण बात आती है...कि सुधि पाठक जन और रचनाकार कई उदाहरण पेश कर सकते हैं जो इस क्रम का पालन न करते हों, फिर भी नवगीत की श्रेणी में लिए जाते हों... तो इस महत्वपूर्ण बात को समझना आवश्यक है, कि नवगीत विधा को साहित्यकारों का खुला समर्थन अभी तक प्राप्त नहीं है..
दुर्भाग्यवश इस विधा के आलोचक भी नहीं हैं, और जो आलोचक हैं वो पूर्वाग्रह ग्रसित हैं और इस विधा को ही अस्वीकार कर देते हैं तो शिल्प गठन पर तो चर्चा ही नहीं होती..
इस विधा में मात्रा का निर्धारण अभी तक नियमों में आबद्ध नहीं है, लेकिन यदि सुविवेक से कोई भी प्रबुद्ध रचनाकार एक गेयता में पंक्तियों को बाँधता है तो यह मात्रा निर्धारण या वार्णिक क्रम निर्धारण के बिना संभव ही नहीं.. इस बिंदु पर ही एक स्वस्थ चर्चा की आवश्यकता है... इसीलिये मैंने आलेख में किसी भी उदाहरण को प्रस्तुत नहीं किया था...
सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...
सादर.
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नोट: प्रस्तुत आलेख अंतरजाल पर उपलब्ध जानकारियों व तदनुरूप विकसित निजी समझ पर आधारित है.
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//गीत ही अपने भाव पक्ष की नव्यता के कारण नवगीत हो जाता है, शिल्प स्तर पर मुझे कोई विशेष अंतर नहीं दिखता //
या,
//नवगीत की नव्यता और इसके बिम्ब भी, पुरानी बात हो चुके हैं
अब तो इसमें भी उत्तर नवगीत की कल्पना की जाने लगी है //
इन्हीं विचारों के मद्देनज़र हमने ऊपर की एक प्रतिक्रिया में निम्नलखित वाक्य निवेदित किया है --
इन्हीं संदर्भों में मैं आज के/ अपने बीच के श्री राकेश खण्डेलवाल जी के गीतों को सादर रखना चाहूँगा.
यह भी एक तथ्य है कि है जो अवश्य निवेदन करना चाहूँगा कि रामेश्वर शुक्ल अंचल, शंभुनाथ सिंह, बच्चन आदि के समय से गीतों ने बहुत सफ़र तय किया है.
नवगीत का विकास इन्हीं गीतों के आगे का प्रवाह है. जहाँ नईम, बुद्धिनाथजी, यशजी आदि-आदि समर्पित दिखते हैं.
नवगीतों में शिल्प के क्रम में प्रयोगधर्मिता अवश्य है. बिम्बों में अभिनव स्वरूप अपनी अहमियत अवश्य दिखाता है और कस्बायी मनस की पृष्ठभूमि या ग्राम्य अंचल से जुड़े रहने की परंपरा को भौतिकतः या स्मृतियों में जीने की सुखद अनुभूति रचनाकर्म का अन्योन्याश्रय अंग होता है. या, रचनाकार उन पहलुओं को साग्रह प्रस्तुत करता है जो उस समाज का अभिन्न हिस्सा हैं. यहीं, आज के सामाजिक पहलू का क्रूर रूप आधुनिक जीवन की विसंगतिया नवगीतों में जगह पाती जाती हैं.
इस क्रम में यह भी एक ठोस तथ्य है कि कोई सार्थक और सफल नवगीत उच्च वर्ग या उच्च मध्यवर्ग के पहलुओं को नहीं जीता, न ही प्रस्तुत करता है. यहीं, इसी ठौर पर, नवगीत अपनी ज़मीन तलाशता हुआ दिखता है.
यहीं मैं एक बात जोड़ना चाहूँगा, कि, कोई नवगीत हो, आम आदमी की बात उन अर्थों में कत्तई नहीं करता जिन अर्थों में कोई वैचारिक या अतुकांत कविता करती है. कारण स्पष्ट है, दोनों के व्यवहार और लक्ष्य का महान अंतर है.
इस तथ्य के लिए अपनी ही कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा -
देखो अपना खेल अजूबा.. . देखो अपना खेल
द्वारे बंदनवार प्रगति का
पिछवाड़े धुरखेल.. . भइया देखो अपना खेल..
अक्की-बक्की
पवन की चक्की
देखे दुनिया हक्की-बक्की
फसल निकायी
खेत गुड़ायी
माई अनमन, बाबू झक्की
जतन-मजूरी, खेती-बाड़ी..
जीना धक्कम-पेल.. .भइया, देखो अपना खेल.. .
आपको शत शत नमन! बहुत कुछ कह दिया आपने! अपनी टिप्पणी में भी और अपनी रचना में भी।
इस पूरी चर्चा को पढ़ने के बाद एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि संक्षेप में गीत और नवगीत के मौलिक अंतर को स्पष्ट किया जाना यहां आवश्यक है जिससे हम जैसे बच्चों को दोनों विधाओं का मूल अंतर स्पष्ट हो सके। नवगीत के प्रतिमानों की स्थापना या उनकी समझ विकसित होना तभी संभव होगा जब उसके शिल्प की विविधता स्पष्ट हो सके। निवेदन है कि मुझ जैसे बच्चे को ध्यान रखते हुए इस विषय पर भी आप सुधी जन कुछ प्रकाश डालें।
भाई बृजेश जी, नये बच्चों में हर गुण उच्च स्तर में विद्यमान है, बस यही एक चीज कम है जिसका नाम तुलसी बाबा धीरज कर गये हैं. हा हा हा हा.. . .
आप एक-एक कर सभी टिप्पणियों को पढ़ते जाइये. बहुत कुछ मिलता जायेगा. उसे विन्दुवत करते चलिये. (बाद में मैं आपसे ये नोट ले लूँगा.. हा हा हा.. )
प्रस्तुत टिप्पणी के ऊपर दो-एक टिप्पणियाँ इस विधा के शिल्प पर भी भले इंगित में ही सही लेकिन आयी हैं. धीरे-धीरे और भी तथ्य खुलते जायेंगे.
आदरणीय सौरभ जी बच्चा जब बूढ़ा होने लगे और नर्सरी कक्षा भी न पास कर पाए तो धीरज चला ही जाता है। :)
आगे कुछ न कहूंगा नहीं तो विषयांतर हो जाएगा।
सादर!
http://www.openbooksonline.com/group/chhand/forum/topics/5170231:To...
बृजेश जी नवगीत पर एक आलेख मैंने भी लिखने का प्रयत्न किया था जो इसी समूह में मौजूद है ....एक दृष्टि उस पर भी डालिए आपको शायद कुछ मिल सके (और अगर आपको उसमे कुछ न भी मिले तो मुझे तो पाठक मिलेगा ही)
आदरणीया सीमा जी आपका आभार कि आपने मेरी जिज्ञासा का संज्ञान लिया। आदरणीया मैंने आपका लेख पढ़ा है। हां, उस पर कोई टिप्पणी नहीं की थी क्योंकि तब मुझे इस विधा को कोई ज्ञान नहीं था। नवगीत को लेकर मेरी जो भी समझ विकसित हुई वह आपके लेख की ही देन है। उस लेख से प्रेरित होकर मैंने भी एक नवगीत लिखने का प्रयास किया था। जिस पर आदरणीया प्राची जी की टिप्पणी द्वारा नवगीत पर कुछ चर्चा भी हुई थी। रही बात पाठक की तो आदरणीया मैं तो आपका बहुत पुराना पाठक हूं बस प्रशंसकों की भीड़ में आप पहचान न सकीं मुझे।
सादर!
सामयिक मुद्दों पर एक नवगीत समीक्षार्थ प्रस्तुत है, इसके गुण दोष पर आलोचना कर कृतार्थ करें
सादर
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:360533
नवगीत पर सुंदर आलेख एवं इसपर की गई चर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिला । मैंने अबतक जितने भी नवगीत पढ़े हैं उनमें से कई तो मात्राओं के हिसाब से संतुलन बनाए रखती हैं पर ऐसा भी नहीं है कि बिना इस संतुलन के नवगीत ना लिखे गए हों । दोनों तरह से नवगीत लिखे गए हैं और प्रभावी भी रहे हैं । बिंब की नवीनता कुछ हद तक मायने जरूर रखती है पर वे ठूंसे हुए नहीं दिखने चाहिए, रचना में रचे-बसे होने चाहिए । मेरे हिसाब से मूल बातें इस प्रकार है 1. मुख्य पंक्ति के बाद प्रस्तुत हर बंद अंत में मुखड़े पर लौटने में सहायक होना चहिए 2. भाषायी सहजता आवश्यक है अन्यथा पाठक उसे स्वीकार नहीं करेंगें 3. प्रवाह सही होना चाहिए 4. विशेष ध्यान कथ्य पर हो कि आखिर आप कहना क्या चाहते हैं यानि विषय से भटकाव ना हो और 5. शब्दों का चयन विषय एवं भाव के अनुरूप हो । 6. उनकी कसावट सही हो ऐसा ना लगे कि वे छितरे हुए है । मेरे हिसाब से नवगीत का शिल्प मूलत: इतना ही है हां बाकी बातें लेखक के सामर्थ्य के उपर है कि वे कितनी सघनता से अपने विचार रखते हैं । इसमें बहुत सारे प्रयोग विभिन्न शिल्पधनी अपनी सुविधा से ही करते हैं । सादर
राजेश जी, आपने बहुत सुंदर और सरल भाषा में नवगीत की सटीक व्याख्या की है। कथ्य हमेशा वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर ही होना चाहिए, अगर ज़बरदस्ती बिम्ब थोपे जाएँ तो रचना अपना सौन्दर्य खो देती है। आपने थोड़े से शब्दों में सब कुछ कह दिया है। आपका हार्दिक आभार।
आ० राजेश जी नवगीत पर यह चर्चा आपको सीखने-सिखाने के क्रम में उपयोगी लगीं यह जान कर संतोष मिला है..हार्दिक आभार. आपने नवगीत की बेहद महत्वपूर्ण बातों को बिन्दुवत प्रस्तुत किया है, यह एक तरह से विधा के सारांश की तरह है. मात्रिकता के अनुसार संतुलन का निर्वाह करके नवगीत लिखना अतिरिक्त धैर्य और साधना की अपेक्षा रखता है..जबकि सिर्फ लयाधारित गीत किसी भी गणना से आबद्ध नहीं होते और उनमें कहीं कहीं मात्राओं को गिरा के पढ़ने की आवश्यकता भी महसूस होती है..
//बिंब की नवीनता कुछ हद तक मायने जरूर रखती है पर वे ठूंसे हुए नहीं दिखने चाहिए, रचना में रचे-बसे होने चाहिए //
बिल्कुल सही कहा आपने.. यदि बिम्ब सहज ही प्रस्तुत होते हैं तभी नवगीत में मनमोहक लगते हैं अन्यथा नवगीत भी पहेली से ही हो जाते हैं.
सादर.
आपका हार्दिक आभार आदरेया, आपकी टिप्पणी से आश्वस्त हुआ कि मैं सही दिशा में हूं । आप हमें इसी तरह दिशा प्रदान करते रहें, सादर
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