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पहेली है ये जिंदगी ......

क्या है - जिंदगी ,

संध्या है या प्रभात,

शीत है या उष्ण,

सूरज की लाली या चांदनी है चाँद की ,

आदि है या अंत 

स्वप्न है या चैतन्य ,

सुख है या दुःख ,

गूंज है ये सत्य की या  नाद ये असत्य की |

गीत है ये प्रेम का या है बिगुल संग्राम का,

शब्द हैं वाचाल के या संकेत है ये मूक का, 

अनंतता है सिन्धु की या है संकीर्णता है ये ताल की ,

अद्यतः अनभिज्ञ है , "जीवन-सिद्धांत" से 

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 29, 2013 at 8:45am

जींदगी की परिभाषा को सुन्दर बिम्बों के आधार ले खोजती सुन्दर रचना सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय अनुज कुमार पांडे जी.

Comment by Anuj kumar Pandey on May 27, 2013 at 6:55pm

सभी सम्मानित जनों को बधाई के लिए बहुत -२ धन्यवाद |

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 26, 2013 at 9:45am

आ0 अनुज भाई जी,   बहुत सुन्दर रचना।.. बधाई स्वीकारें।  सादर,

Comment by ram shiromani pathak on May 25, 2013 at 10:15pm

बहुत सुन्दर रचना, बधाई 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 25, 2013 at 7:32pm

ये मंथन करने का दार्शनिक प्रश्न है | जिंदगी क्या है, यह सबी के लिए अलग अलग है, किसी के लिए भौतिक सुखा भोगने 

तो किसी के लिए स्वाध्याय करने, किसी के लिए यह प्रभु की सुन्दर देन है | किसी के लिए यह सुख दुख का अहसास है \

और यही सब आपने रचना में उल्लेख करने का प्रयास भी किया है | बधाई 

Comment by Vindu Babu on May 25, 2013 at 7:23pm
जिन्दगी की गहन व्याख्या।
वास्तव में आदरणीय समझते-समझते जुंदगी गुजर जाती है पर समझ नहीं आता कि है क्या जिंदगी!
सुन्दर प्रस्तुति।
सादर
Comment by विजय मिश्र on May 25, 2013 at 10:45am

ऊपर वाला एक बहुत सफल दार्शनिक कथाकार है ,जिसके झोले में अनंत कथाएँ लिखी भरीं पड़ीं हैं ,इसलिए हर दो की जीवन कथा को सर्वथा जुदा कर देता है .,चटपटा ,झालदार ,मसालेदार ,कभी बंगाल ,असाम या झारखण्ड ट्रेन से आयें तो झालमुढ़ी खाएँ ,जिंदगी कुछ ऐसी ही है -खट्टी ,मीठी ,तीती और न जाने कितने स्वादों से भरी और एक टुकड़ा पतला सा नारियल का मिठास लिए . अजीब सी है -बिन्दू से सिंधु तथा शून्य से ब्रह्माण्ड तक का विन्यास इसमें निहित है .

पंकजजी , आपके प्रश्नों में सारे उत्तर हैं . सुंदर कविता .

Comment by बृजेश नीरज on May 24, 2013 at 10:58pm

आदरणीय बहुत सुन्दर प्रयास आपका। आपको ढेरों बधाई।
एक निवेदन करना चाहूंगा कि 'है'' का प्रयोग कई जगह आवश्यक नहीं है, उसके बिना काम चल सकता था लेकिन उसे प्रयोग किया गया है।
सादर!

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