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आपका हुक्म सर माथे नवीन भाई ...
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गुलों में भरी है जहां की नजाकत,
ख़ुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत
सभी एक जैसे ख़ुदा की नज़र में,
बड़ा हो कि छोटा,न कोई हिमायत
कई कारवाँ गुम हुए है यहाँ से
जगत ये नहीं है किसीकी अमानत
चमन रास आया न खुशबू गुलों की
ख़ुदा से कभी की न हमने शिकायत
लगी प्यास मुझको,बुझा दे ख़ुदाया
करो आज नाचीज़ पर तुम इनायत
मज़ा शेर का तो तभी खूब आए,
अगर काफ़िया साथ लाए अलामत
.... अरविंद
बहुत बहुत धन्यवाद नवीन जी...
सुंदर भावों से सजी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
शुक्रिया धर्मेन्द्र जी
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत सुंदर ग़ज़ल...
लिखने के लिए धन्यवाद
ख़ुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत,
वफ़ाओं से लबरेज़ है ये इमारत।
ख़ुदा वालों से भी ये डरती नहीं है
तिलक वालों को भी रुलाती है उलफ़त।
हुई तोड़ने की कई कोशिशें पर,
सदा चोट खाकर हुई और उन्नत।
ग़मों से निभाओ ख़ुशी से , मिलेगी
तसल्ली,सुकूनो-करारो-मसर्रत।
फ़िज़ाओं में दिल मेरा लगता नहीं है,
तेरी ज़ुल्फ़ों के साये में मेरी ज़न्नत।
ज़मानत चराग़ों की मैं ले चुका हूं,
कहां है तेरी आंधियों की अदालत।
समंदर को कल मैंने धमकाया है वो,
तेरी आंखों से रखता है क्यूं अदावत।
सफ़र से बहुत डरता था कल तलक , तू
मिली तो किया मंज़िलों से बग़ावत।
फ़कीरी मुहब्बत में तूने मुझे दी,
मेरे दिल के कासे पे भी कर इनायत।
रसोई मेरी सूनी सूनी है दानी,
उसे दस्ते-मासूम की है ज़रूरत।
धन्यवाद नवीन भाई।
बहुत खूब ... संजय जी क्या ग़ज़ब अंदाज़ है आपका ... नायाब शेर ... उस्तादों वाली बात है पूरी ग़ज़ल में ...
ये आपकी ज़र्रानवाज़ी है, धन्यवाद।
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