आदरणीय सुधीजनो,
महोत्सव में 29 रचनाकारों नें दोहा, आल्हा, गीत-नवगीत, ग़ज़ल व अतुकान्त आदि विधाओं में अपनी उत्कृष्ट रचनाओं की प्रस्तुति द्वारा महोत्सव को सफल बनाया.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें. मंच संचालिका ओबीओ लाइव महा-उत्सव ******************************************************************* |
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क्रम संख्या |
रचनाकार का नाम |
विषय आधारित रचना |
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आ० सौरभ पाण्डेय जी |
समाज और बेटियाँ बेलौस बोलती.. भागती.. चीखती.. मुलायम नज़रों देखता वो तुम्हें / कुछ भी नहीं... . .. .
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2 |
आ० सत्यनारायण सिंह जी |
बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रहीं। झेलतीं संताप अनगिन, अस्मिता को खो रहीं ।। वेद मन्त्रों की ऋचाएँ, बेटियाँ ही भक्ति हैं। चेतना सामर्थ्य दात्री, बेटियाँ ही शक्ति हैं।१। नारियों को पूजते थे, देवियों के रूप में। देवता भी देखते थे, स्वर्ग के प्रारुप में।। घूमते निर्द्वंद्व हो के, आततायी देश में। माँगती है न्याय बेटी, निर्भया के वेश में।२।
कामियों के आज हाथों, लाज बेटी खो रही । भ्रूण हत्या कोख में ही, बेटियों की हो रही ।। यातना का दर्द सारा, नर्क का परिवेश हैं। लुप्त होती बेटियाँ औ, सुप्त सारा देश है।३।
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3 |
आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी |
आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥
न माँगे, भगवान से बेटी, बेटे की सब चाह रखें। पुत्र एक परिवार में है पर, एक और की आस रखें॥ और कोई न चाहे बेटी , माँ की चाहत रहती है। माँ- बेटी का प्यारा रिश्ता, माँ- बेटी ही समझती हैं॥ आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥
जिस घर में बेटी होती है, घर ज़्यादा प्यारा लगता। जिसकी बहन न बेटी कोई, किस्मत का मारा लगता॥ बचपन में गुड्डे गुड़ियों से, बिटिया खेला करती है। धीरे - धीरे ज़िम्मेदारी , स्वयं समझने लगती है॥ आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥
फर्क नहीं बेटी - बेटे में, बात बड़ी हम सब करते। किन्तु उपेक्षित है समाज में, उसे पराया धन कहते॥ सुखी रहे, मायका ससुराल , रोज प्रार्थना करती हैं। जीवन भर माँ और बेटियाँ, सखियाँ जैसी रहती हैं॥ आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥
बेटे को अधिकार सभी है, सब से ज़्यादा प्यार मिले। कुछ न माँगतीं कभी बेटियाँ, जीवन में बस प्यार मिले॥ बेटियाँ परिवार का हर पल, ध्यान बराबर रखती हैं। नन्ही बिटिया रोज पिता की, राह शाम से तकती है॥ आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥
जब होती है बेटी बिदा, घर आँगन सूना लगता है। बेटी जीवन भर सुखी रहे , परिवार दुवा करता है॥ हे समाज के ठेकेदारों , बेटी हम पर भार नहीं। माँ, बहन, बीबी के रूप में, दिल से करती, प्यार वही॥ सब रिश्तों को निभाने वाली, बिटिया सब कुछ सहती हैं। प्यार मिले घर में, समाज में, इसलिए जीती मरती हैं॥ आने दो प्यारी बिटिया को, घर की रौनक बढ़ती है। भरा-भरा घर आँगन लगता, जब चिड़ियों सी चहकती है॥ .
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4 |
आ० डॉ० विजय प्रकाश शर्मा जी |
बेटी !
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5 |
आ० गिरिराज भंडारी जी |
आइये निराश हो जायें , पूर्ण निराश ************************************** समस्या ज्वलंत है , दुख की बात ये कि सदियों से समस्या ज्वलंत है और आगे भी ज़्वलंत ही रहने की पूरी सम्भावनायें जीवित हैं बात निराशाजनक है , लेकिन सत्य अगर निराश करे तो निराश हो जाना शुभ होता है निराशाओं की पूर्णता के बाद ही नई, असली आशाओं का जन्म होता है जैसे सुबह के पहले और गहरा जाना अँधेरे का
एक ही कारण नही होता किसी भी बीमारी का , समस्या का कारण बहुत होते हैं , हर कारण महत्वपूर्ण होता है , कम या अधिक हर कारण को स्वीकार करना जरूरी होता है , पूर्ण समाधान के लिये क्यों कि, स्वीकार ही सुधार की पहली सीढ़ी है अगर आप सच में निदान चाहते हैं तो
हर कारण समाज के किसी वर्ग विशेष से जुड़ जाता है, अंत में समस्या के कई कारण हैं, तो कई वर्गों मे बंट जाता है निदान भी लेकिन , हर वर्ग का अपना अहंकार है जो समस्या को स्वीकार कर समझदार , जागरूक तो साबित होना चाहता है पर स्वयँ को समस्या का जनक , कारण नहीं मानना चाहता , अहंकार पर चोट लगती है , खुद को भी समस्या का कारण मानने में जब की वास्तविकता यही है हम सभी कारण है , समाज का हर वर्ग दोषी है , पुरुष प्रधान समाज भी मै भी , आप भी , ये भी, वो भी , सभ्यता भी , संस्कार भी , पुलिस भी , प्रशासन भी , जनता भी , नेता भी , खलनायक भी अभिनेता भी , यहाँ तक कि , स्वयँ महिला वर्ग भी , बेटी भी किसी हद तक वो बेटी जो किसी तरह जन्म ले पाती है , बड़ी होकर माँ बनती है , और उसी शोषक वर्ग में शामिल हो जाती है , वो बेटी , तब एक ही रास्ता है आइये निराश हो जायें , पूर्ण निराश पूर्ण और वास्तविक निराशा के उस पार ही आशा का गाँव है , मेरा विश्वास है
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6 |
आ० कल्पना रामानी जी |
खुद थामो पतवार, बेटियों, नाव बचानी है। मझधारे से तार, तीर तक लेकर जानी है।
यह समाज बैठा है तत्पर। गहराई तक घात लगाकर। तुम्हें घेरकर चट कर लेगा, मगरमच्छ ये पूर्ण निगलकर।
हो जाए लाचार, इस तरह, जुगत भिड़ानी है।
यह सैय्याद कुटिलतम कातिल। वसन श्वेत, रखता काला दिल। उग्र रूप वो धरो बेटियों, झुके तुम्हारे कदमों बुज़दिल।
पत्थर की इस बार, मिटे जो, रेख पुरानी है।
हों वज़ीर के ध्वस्त इरादे। कुटिल चाल चल सकें न प्यादे। इस बिसात का हर चौख़ाना, एक सुरक्षित कोट बना दे।
निकट न फटके हार, हरिक यूँ गोट जमानी है।
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7 |
आ० गुमनाम पिथोड़ागड़ी जी |
समाज ने बनाये नियम टटोलते हो तुम गर्भ जब बेटी सहे कब तक ये जुलम तानों की गुलेल चलती है परम्पराओं ने निकला दम
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आ० लक्ष्मण धामी जी |
बेटियाँ - गजल *************** *** *** *** *** *** ***
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आ० डॉ० विजय शंकर जी |
प्रथम प्रस्तुति:- समाज का ऐश्वर्य सम्मान होतीं हैं बेटियां
द्वितीय प्रस्तुति :- इस राह पर चल कर वो कहाँ जायेगें |
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आ० राजेश कुमारी जी |
ग़ज़ल --------- 2212 2212 1212 2212 रोती रही हैं बेटियाँ समाज बस हँसता रहा कुतरी गई हैं बेटियाँ वो कैंचियाँ लगवा रहा
क्यूँ शब, सहर, धरती, फ़लक नहीं बने उसके लिए ये सोचती हैं बेटियाँ कसूर क्या उनका रहा
अपने निजी साए पे भी नहीं भरोसा है उन्हें जगती रही हैं बेटियाँ जहाँ भले सोता रहा
लगते हैं दावे खोखले ये भ्रूण हत्या रोकते कितनी बची हैं बेटियाँ हर आँकड़ा बतला रहा
सब नारियों को मानते समाज का सम्मान हैं कितनी पुजी हैं बेटियाँ दरख़्त हर दिखला रहा
जलती रही चिंगारियाँ कुरीतियाँ फलती गई मिटती रही हैं बेटियाँ समाज तो जिन्दा रहा
अस्तित्व रखना है अगर समाज का कायम यहाँ बेटे यही हैं बेटियाँ ये वक़्त भी समझा रहा
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आ० अखंड गहमरी जी |
हाथो में बेटी की लाश लिये बेटी का बाप जाग पड़ा
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आ० अविनाश बागडे जी |
प्रथम प्रस्तुति :-
अनुत्तरित से प्रश्न है , कितने सम्मुख आज
द्वितीय प्रस्तुति :-
कभी |
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आ० अरुण श्रीवास्तव जी |
कविताई के अवचेतन पलों पर टांक देता हूँ मैं - धरती चीरते अंकुए , पहाड़ उतरती नदी आंगन खेलती बेटी ! और पन्ना पलट लिखने लगता हूँ चाँद-तारे,ब्रह्माण्ड !
लेकिन - जब खोज रहा होता हूँ चाँद के धब्बों का रहस्य , आँखों में नींद बटोरे ,बालों में पुआल लपेटे बेटियां - तय कर लेतीं है बेटी से लड़की होने तक का सफर !
भाई की किताब से झरते शब्द अंजुरी में रोप - चुप-चाप बटोर लेती है प्रेम-पत्र पढ़ने जितने शब्द ! दूध का जूठा ग्लास धोती लड़की - बिना दूध पिए बड़ी हो जाती है समय से पहले , सकुचाते हुए प्रेम को जरूरी मानती है - दुपट्टे जितना ,झाड़ू जितना ,चूल्हे जितना जरूरी !
प्रेम पोसती लड़की पालती है जंजीरें भी ! बियहुती साड़ी के खूंटे गठियाया किसी प्रेयस का प्रेम - पिता के सम्मान का विलोम नहीं रह जाता ! प्रेम और सम्मान को साथ रखने की जिद में - थोड़ा-थोड़ा रोज कम होती है लड़की ! और एक दिन रीत जाता है उसका लड़कीपन भी !
बेपरवाह सा डायरी पलटते मैं देख लेता हूँ आखिर- पीले पड़े पत्ते, सूखती हुई नदी, बड़ी हो चुकी बेटी !
तब उसकी गोद में एक बेटा लिख देता हूँ मैं ! बेटा अपनी किस्मत में बिदेस लिख लेता है , अपनी माँ की किस्मत में - चुहानी के धुँआए सांकल से लटकती अकेली मौत !
अब मैं जब भी लिखूंगा ‘बेटी’तो नहीं देखूंगा आकाश , लिखूंगा - कि वो छीन लेती है अपने हिस्से की किताबें ! दूध देख नाक सिकोड़ती लड़की - प्रेम को मानती है नमक जितना जरूरी ! प्रेयस के लिए चौराहे की दुकान से खरीदती है - “जस्ट फॉर यू” लिखा कॉफ़ी मग , पिता के लिए नया चश्मा कि देख सकें - सम्मान के नए शिखर , बेटी के मजबूत होते पंख ! फिर सौंप दूँगा उसे अपनी अधूरी डायरी - कि वो खुद तय करे अपनी कहानी का उपसंहार !
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आ० मीना पाठक जी |
*आक्रोश* |
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आ० सुशील सरना जी |
बेटियां - सभ्य समाज का आईना .... देश को अभिमान होता है समाज शर्मसार होता है जब अख़बार का कोई पन्ना जब झाड़ियों,मंदिर के अहातों और कचरे के ढेर में बेटी के जन्म लेते ही क्यों गर्भ में मादा भ्रूण की हत्या करवा दी जाती है समाज में ये वर्तमान सभ्यता कैसा दंश है विवाह की पावन अग्नि के समक्ष सात फेरों में बेटियां तो समाज का आईना होती हैं एक सभ्य और उन्नत समाज के लिए
जब तक बेटियों के प्रति
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आ० अन्नपूर्ण बाजपेयी जी |
बेटी घर की रौनके , इनसे घर का गान । सजाती सँवारती ये , घर मे डाले जान ॥ घर मे डाले जान , कोना कोना महकाये । बेटी बनी चिराग , सप्त स्वर ये गुंजाये ॥ कहती हरदम ‘अंजु’ , बागडोर थाम लेती । रौशन कर दें नाम, सभ्य सुसंस्कृत बेटी ॥
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आ० नादिर खान जी |
बदल रहा है समाज आगे बढ़ रही हैं बेटियाँ हाँ ! कभी कभी घटनायें कलंकित कर देती हैं समाज को डरने लगते हैं माँ-बाप मगर बेटियाँ ... न जाने किस मिट्टी की बनी है न टूटती हैं न डरती हैं दुगने हौसले के साथ नई उमंग लिए उठ खड़ी होती हैं और देती हैं ज़ोर का तमाचा उन गालों पर जो कमजोर कर रहे हैं खोख़ला बना रहे है समाज को दिखा रहे हैं खोखली मर्दानगी अपने वहशीपन से
बेटियाँ रुक नहीं रहीं न डर रही हैं हिम्मत के साथ आगे बढ़ रहीं है तकलीफ़ों और विषमताओं के बावजूद छोड़ रही हैं अपनी छाप दिखा रही हैं अपना दमखम मजबूत कर रही है समाज में अपनी जगह अपनी पहचान बता रही हैं सबको बेटियाँ जड़ हैं समाज की बेटियों से समाज है
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आ० कुंती मुखर्जी जी |
कितनी बार दोहराओगे बाबू! बेटी-‘’कितनी बार दोहराओगे बाबू! भोतरे ज़बान से जंग लगे रीति रिवाज़. बदल गयी हवा गाँव-गाँव शहर दस्तक दे रहा घूँघट अब सही न जाती अब रेंप पर चोली घाघरा का फ़ैशन.’’ बाबू- ‘’कट गया जंगल भर गये भेड़िये शहर-शहर मत जा बिटिया बाहर घर-खेत-खलिहान इसी में तेरा जीवन.’’ बेटी- ‘’ऐसा वशीकरण मंत्र दे बाबू भेड़िया सुपात्र हो जाए बदले उनकी मानसिकता जंगल-जंगल ही रहे. कभी न बने शहर गाँव इतिहास गवाह है जब भी अपमानित हुई नारी राष्ट्र का विनाश हुआ अश्वमभावी. मैं घर भी लिपूँगी उपले भी पाथूँगी एक मोटरकार ले दे मुझे तुझे देश की सैर कराऊँगी. बेटा नहीं तेरे पास तो क्या हुआ समझ मुझे ही श्रवणकुमार बाबू.’’ बाबू- ‘’तू जुग जुग जी सौ बेटा तुझ पर वारूँ पर क्या करूँ बिटिया मन मेरा थर थर काँपे तू जब भी चलती घूँघट उठाये हाड़ मांस का बना हूँ तन मेरा लोहा नहीं कैसे तुझे बचाऊँ गिद्ध कौवों से.’’ बेटी- ‘’मैं लाश नहीं बाबू न मात्र देह औरत ममतावश बलिदान है देती कब तक बेटी धरा पर जाएगी कुचली? चलती फिरती अग्नि हूँ एक बार छोड़ देख मुझे...... कितनी ज्वाला कितने आक्रोश कब तक सहेगी धरती सोच....बाबू....सोच.’’
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आ० सूबे सिंह सुजान जी |
मुक्तक-
समाज बनता है बेटियों से दिया भी जलता है बेटियों से। जो बेटियाँ मारते रहोगे, समाज घटता है बेटियों से।।
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आ० सीमा अग्रवाल जी |
क्या लिखू? कैसे लिखू? |
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डॉ० प्राची सिंह जी |
भारी हृदय है गहरा ज़खम है बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है
लाडो दुलारी, जाँ थी हमारी गिद्धों नें नोचा, उफ़! बारी-बारी गुड़िया हिफाज़त को गिड़गिड़ाई रक्षक ही भक्षक, अह! आतताई
किस दिश निहारें? हर ओर तम है बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है
चीखी चिंघाड़ी रोई बिलख कर दानव न ठहरे - ठिठके निरख कर लूटा-घसीटा पटका- सताया नन्ही परी को सूली चढ़ाया
हैवानियत का कैसा चरम है बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है
मंज़र को ताकें भौचक निगाहें, अंतर को चीरें चीखें-कराहें कातिल दरिन्दे फाँसी चढ़ा दें पुरुषत्व छीनें गरदन उढ़ा दें
इन दानवों को हर दंड कम है बोझिल कलम औ’ दृगकोर नम है
शासन प्रशासन को अब झँझोड़ें हर सुप्त उर की तन्द्रा को तोड़ें अब त्रासदी से बिटिया उबारें नैतिक रसातल से राष्ट्र तारें
स्वर्णिम भविष का रखना कदम है बोझिल कलम औ’ दृग्कोर नम है
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आ० अशोक कुमार रक्ताले जी |
२१२१ २१२१ २१२१ २१२ राह अब समाज को दिखा रही हैं बेटियाँ, सत्य झूठ का सफा पढ़ा रही हैं बेटियाँ,
बेटियाँ विकास की मिसाल हैं समाज में, मान आज देश का बढ़ा रही हैं बेटियाँ,
फौजियों के वेश में लड़ा रही है जान जो, देश में समाज में बला रही हैं बेटियाँ ,
दानवों की सोच में अधिक नहीं है देह से, जान आज देश में गँवा रही हैं बेटियाँ,
लोभ कूप में गिरे कई-कई हैं आदमी, मूल्य लोभ का मगर चुका रही हैं बेटियाँ,
कायरों की भीड़ और शोर व्यर्थ के सभी, रोज ही गुनाह जब छुपा रही हैं बेटियाँ,
शेरनी का रूप आज हिरनियाँ ठगी गयी, जाल में बहेलिये के जा रही हैं बेटियाँ,
शायरों की शायरी हरेक गीत छंद में, दर्द है कहाँ कहाँ लिखा रही हैं बेटियाँ,
बोलना ‘अशोक’ का रास भी न आए तो, बुजदिली का दौर है बता रही हैं बेटियाँ |
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आ० माहेश्वरी कनेरी जी |
मुक्त कर दो मूक आसमान देखता रहा धरती भी शर्मसार हुई लुटी अस्मिता जब जब बेटी की माँ का आँचल, तार तार हुआ सुप्त समाज में जब भी सेंध लगी हर बार बहु बेटी ही ढेर हुई युग बीता,वक्त बदलता गया पर जन मन की नियत बदली नहीं सीता, द्रोपदी कुंतियाँ और कितनी बार छली जाएंगी ? कब तक आँसुओ से उनके जुल्म का इतिहास लिखा जाएगा बहुत हुआ ! अब तोड़ दो घिनौने समाज के इस ढा़चे को जहाँ चीख दबी हुई है बेटियों की कर दो आजा़द उन्हें.. और मुक्त कर दो सहमी सी आँखों के उस डर को बसने दो वहाँ पर सपने आँगन की चिरैया सी उड़ने दो उन्हें अलमस्त तब न होगी धरती कभी शर्मसार न होगा किसी माँ का आँचल तार तार
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आ० अरुण कुमार निगम जी |
समाज और बेटियाँ ...... मार दिया है मुझे गर्भ में , फिर भी मैं मानूँ उपकार ऐसी दुनियाँ में क्या जीना , जहाँ सिर्फ है अत्याचार
भला हुआ जो मरी भ्रूण में , ताने अब मारेगा कौन कौन सुनेगा सन्नाटे को , कौन बाँच पायेगा मौन
माँ तुझको सब कहे कुमाता , यह कैसे कर लूँ मंजूर कैसे मेरा मान बढ़ेगा , अगर पिता मेरे हों क्रूर
बस बेटे को चाहा सबने , बेटी समझी बोझ समान धन की खातिर बिके चिकित्सक , समझे जाते जो भगवान
अग्नि - परीक्षा भी करवाई , कभी कराया है विष - पान चुनी गई मैं दीवारों में , मुझे मिला है कब सम्मान
लूटा नोंचा हत्या कर दी , और दिया वृक्षों पर टांग न्याय दिलाया है कब किसने , सबके सब बस करते स्वांग
ओ समाज के ठेकेदारों , दोगे कब तक ऐसे दंश बिटिया ही जब नहीं रहेगी , कौन बढ़ाएगा फिर वंश
सोच बदल लो अभी वक्त है , कोख नहीं हो जाए बाँझ भूला भूला नहीं कहाए , अगर लौट घर आये साँझ
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आ० बृजेश नीरज जी |
निहितार्थ समझने होंगे
समय-चक्र के साथ पा तो लिया रूप-रंग चिकनी चमड़ी लेकिन मानव हुआ कब आदम ही हैं इन्द्रियाँ
सोच में वीभत्स चेहरे विचारों में खीसें निपोरते बंदरों से झपट्टा मारते सूँघते ही मादा गंध फडकने लगते हैं नथुने
अब यहाँ बादल नहीं छाते फुहारें नहीं पडतीं नर्म ठंडी हवा नहीं है नदी सूख गई
रासायनिक बदलाव हो रहे हैं दरक गई धरती फ़ैल रहा है जहर वातावरण में जड़ों से होता पूरे शरीर में जंगल में फ़ैल रही है देह-पिपासा
बेटी मौसम के इस परिवर्तन को जानो समझो रासायनिक परिवर्तनों को मुँह से टपकती लार आँखों में छिपी डोरियों को पहचानो तुम्हें जीने के लिए भाषा-भावों के निहितार्थ समझने होंगे
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आ० मंजरी पाण्डेय जी |
बेटी हाड़ मांस का पुतला नहीं |
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आ० गीतिका ‘वेदिका’ जी |
अब तक तो है साध अधूरी कब होगी ये कविता पूरी! जब भी मेरी बिटिया ने छत पर गेंहूँ फैलाया है तब तब देखो कुदरत बादल ने पानी बरसाया है क्या दूँ मै उसकी मजदूरी जब कर ले वह कविता पूरी! मन भी है उड़ने को आतुर खुला गगन भी रहा सामने हवा संग बह रहीं उड़ानें बाँह करें हौसला थामने पंख नहीं तो क्या मजबूरी होनी होगी कविता पूरी!
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आ० नादिर खान जी |
विषय - समाज और बेटियाँ
बेटियाँ जानना चाहती हैं क्यों तंग हो जाते हैं रास्ते क्यों तन जाती हैं भौहें उनके लिए
बेटियाँ जानना चाहती हैं लोगों की नियत मे खोट है तो ढेरों पाबंदियाँ उनपर क्यों
बेटियाँ जानना चाहती हैं आधी आबादी के पीछे रह जाने का पूरा सच
बेटियाँ चाहती हैं पूरा इंसाफ आधी आबादी के लिए
बेटियाँ बदलना चाहती हैं बेतुकी,असंवेदनशील मान्यताओं को जो थोपी गई है उनपर बेवजह,बेसबब
बेटियाँ बदलना चाहती हैं सिस्टम को जो नहीं दे पा रहा उन्हें सुरक्षा नहीं दे पा रहा भय मुक्त माहौल बेटियाँ बदलना चाहती हैं समाज की मानसिकता ....
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आ० बोधिसत्व कस्तूरिया जी |
क्यूँ आज भी समाज़ मे घुट-घुट के जी रही हैं बेटियाँ? |
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आदरणीय अशोक रक्ताले जी आपकी ऊर्जस्वी उपस्थिति के लिए आभारी हूँ
सादर.
डॉ . प्राची सिंह जी!
इस महा-उत्सव अंक-४४ की समस्त रचनाओं को संकलित करने के लिए बहुत-बहुत आभार. यह संकलन एक नयी सोंच को जन्म देता है,समसामयिक दुराचारों को उजागर करता है,दुराचारियों को ललकारता है,सुधि जनों में सदैव ही आशा का नया संचार करता रहेगा . ऐसे आयोजन भविष्य में भी करतें रहें ताकि सामाजिक बुराइओं पर निरंतर चोट होता रहे जबतक वे समाप्त नहीं हो जाते. यह अंक अत्यंत उपयोगी है.
सादर.
आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी
इस आयोजन और संकलन की सार्थकता पर आपका मुखर अनुमोदन हमारे प्रयासों की सदिशता को मिला अनुमोदन है...
मंच ऐसे ही सामाजिक और जन जन के भावना से जुड़े मुद्दों को काव्य-साहित्य की परिधि में लाते हुए सामाजिक विषमताओं को चीर मार्ग दर्शाते हुए सार्थक रचनाकर्म हेतु कृत संकल्पित है.
आपकी सदाशयता के लिए सादर धन्यवाद.
आदरणीया प्राची जी , आपके मंच संचालन में एक और सफल-सार्थक् आयोजन के लिये आपको ढेरों बधाइयाँ ॥ बहुत सारी रचनाओं के माध्यम से समाज की , समाज मे रहने वालों की बहुत सी कमियाँ उजागर हुईं हैं । मै समझता हूँ कारणों को केवल जानने के लिये ही नही जानना चाहिये , अपने स्तर पर निदान की इमानदार कोशिश भी होनी चहिये । यही मै अपने आप से और सभी से आपेक्षा करता हूँ । जागरूकता विचारों से शुरू होकर कर्म तक पहुंचे यही मेरी ईश्वर से प्रार्थना है ॥
बिलकुल सही कहा आदरणीय गिरिराज भंडारी जी // कारणों को केवल जानने के लिये ही नही जानना चाहिये , अपने स्तर पर निदान की इमानदार कोशिश भी होनी चहिये//................. सही विचारों का कर्म रूप में आचरण रूप में परिणत होना ही किसी विचार की सार्थकता है...अन्यथा ऐसे विचारों और मुंगेरी लाल के सपनों में क्या फर्क?
जागरूकता विचारों से शुरू होकर कर्म तक पहुंचे यही मेरी ईश्वर से प्रार्थना है...................आपके शब्दों के साथ ही मैं भी यही प्रार्थना करती हूँ
सादर धन्यवाद
आदरणीया डॉ प्राची जी इस सफल आयोजन एवं शीघ्र संकलन के लिए मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें.
धन्यवाद आदरणीय अखंड गहमरी जी
आदरणीया डॉ प्राची जी इस सफल आयोजन मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें. सभी रचनाओं का संकलन देख कर बहुत ख़ुशी हुई तथा समस्त रचनाएँ एक साथ पढ़कर सचमुच बहुत अच्छा लगा । आपको एवं सभी को हार्दिक बधाई |
धन्यवाद आदरणीया माहेश्वरी कनेरी जी
आ. मंच संचालिका जी सादर,क्या अब प्रस्तुति में संशोधन किया जा सकता है? यदि संभव हो तो मूल रचना निम्नवत संशोधित रचना के स्वरुप में परिवर्तित कर दी जाय,
बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रही।
झेलती संताप बेटी, अस्मिता को खो रही।।
वेद मन्त्रों की ऋचाएँ, बेटियाँ ही भक्ति हैं।
चेतना सामर्थ्य दात्री, बेटियाँ ही शक्ति हैं।१।
नारियों को पूजते थे, देवियों के रूप में।
देवता भी देखते थे, स्वर्ग के प्रारुप में।।
घूमते निर्द्वंद्व हो के, आततायी देश में।
माँगती है न्याय बेटी, निर्भया के वेश में।२।
कामियों के आज हाथों, लाज बेटी खो रही ।
भ्रूण हत्या कोख में ही, बेटियों की हो रही ।।
यातना का दर्द सारा, नर्क का परिवेश हैं।
लुप्त होती बेटियाँ औ, सुप्त सारा देश है।३।
-मौलिक व अप्रकाशित
सादर धन्यवाद
यह एक सार्थक तथा सराहनीय प्रयासकर्म है, आदरणीय सत्यनारायणजी. मैं आपकी इस संलग्नता और सतत प्रयास को सादर सम्मान की दृष्टि से देखता हूँ.
सादर
आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
आपके इस सतत और सजग रचना कर्मिता के प्रति नत हूँ.....
रचनाकार एक बार अपनी प्रस्तुति दे कर उत्सव के दौरान भी जहां सुधीजनों द्वारा सुझाए गए सुधारों पर बिना चिंतन मनन किये अगली प्रविष्टियाँ देने के मोह में फंस जाते हैं...वहीं आपको संकलन आने के इतने दिनों बाद भी अपनी रचना पर सुधार प्रेषित करते देखना बहुत संतोष प्रदान कर रहा है...
आपकी मूल रचना को इस नयी रचना से प्रतिस्थापित कर देती हूँ.... लेकिन उससे पहले एक और सुझाव है..
बेटियाँ गंगा नदी सी, पाप सारे धो रही। ...............यहाँ रही की जगह रहीं होना चाहिए क्योंकि बेटियाँ बहुवचन है
झेलती संताप बेटी, अस्मिता को खो रही।।...............झेलतीं संताप अनगिन, अस्मिता भी खो रहीं ....क्या ऐसा करना उचित होगा ?
आप देख लीजिये और बताइये..मैं फिर परिवर्तन स्वीकृत कर लेती हूँ
सादर.
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