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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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पुलिस की शह पर पिछवाड़े दिनभर बनती दारू ,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है |
मजाहिया तंज़ पर जो शेर आप कह लेते है वो पढ़ कर मैं अक्सर जल भुन कर ख़ाक हो जाता हूँ
ऽ
अपने अपने ज़ख़्मों को सब सीने आते हैं,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
लाज़वाब शे'र ,उम्दा ग़ज़ल बधाई।
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