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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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महाजन के खाते में, पहले ही बकाया है,
चुकाये-बिन फिर कैसे, देने को उधार कहे ।
उसकी आँखो में जंगल, जिस्म जैसे महके संदल
बियाबान को बाराबाँ, कैसे गुलजार कहे ।
badhiya prastuti...bahut bahut badhai aapko... Puniyaji..
हिज्र का मौसम मत पूछो तुम कैसा लगता है,
अश्कों की बरसात अगर हो अच्छा लगता है.
शाम गए जब जशने-चिरागां होता है लोगो ,
और भी दिलकश दूर से उसका कूचा लगता है
अबके बरस कुछ ऐसे उसने ज़ख़्म दिए मुझको,
तन्हाई का एक एक लम्हा अच्छा लगता है .
रुखसत हो जायेंगे एक दिन खुशिओं के लम्हे,
आने वाले हर मौसम से ऐसा लगता है.
दिन तो गुज़र जाता है लेकिन यादों का उसकी,
" शाम ढले इस सूने घर मैं मेला लगता है "
क़ुरब के लम्हे भूल गए हम वक़्त की ठोकर से,
अपना रोशन माजी भी अब सपना लगता है.
क्या जाने वो ज़ात है कैसी जिसकी खुशबू से,
सारा जहां "ममनून' ये मुझको महका लगता है.
Hamaray Ek Mitr Dr. Mamnoon nay koshish ki hai , agar aapko qubool ho. Mazhar Masood
और भी दिलकश दूर से उसका कूचा लगता है
bahut hi badhiya prastuti mazhoor sahab....
वाह वाह वाह , ममनून साहिब, मतले से आपने जो शमा बाँधी वो मकता तक बखूबी कायम है, हर एक शे'र दिल की गहराइयों में उतरता हुआ लगता है , गिरह लगाने में आपने कमाल की कोशिश की है , सब मिलाकर पूरी ग़ज़ल शानदार है | ओपन बुक्स ऑनलाइन पर आप जनाब का ह्रदय से स्वागत है |
बहरहाल इस खुबसूरत प्रस्तुति पर बधाई कुबूल करें |
जनाब मजहर मसूद साहिब को भी कोटिश: धन्यवाद जो एक फनकार के फन से रूबरू होने का मौका दिया |
दिन तो गुज़र जाता है लेकिन यादों का उसकी,
" शाम ढले इस सूने घर मैं मेला लगता है "
सुभानाल्लाह .....!!
क़ुर्ब के लम्हे भूल गये हम वक़्त की ठोकर से,
अपना रौशन माज़ी भी अब सपना लगता है।
बेहतरीन शे'र , और मेयारी ग़ज़ल के लिये मज़हर साहब को मुबारक़बाद ।
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