सु्धीजनो !
दिनांक 20 सितम्बर 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 41 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए भुजंगप्रयात छन्द का चयन हुआ था.
यह छन्द विन्यास में एक उर्दू बहर से मिलता-जुलता होने के बावज़ूद सनातनी शैली का एक निराला छन्द है. सनातनी शैली की परिपाटियों के कारण ही यह छन्द रचनाकारों के लिए कठिन सा दिखता है. चूँकि दो लघुओं का संयुक्त हो कर एक गुरु होना छान्दसिक रचनाओं में संभव नहीं है. यही बन्धन छान्दसिक रचनाकर्म को तनिक क्लिष्ट बनाता है.
आयोजन में कुल 10 रचनाकारों की 11 रचनाओं का आना कम बड़ी बात नहीं है. वह भी उन परिस्थितियों में जब कि कई सक्रिय सदस्य अन्यान्य कारणों से इसी दौरान अति व्यस्त हों.
मैं स्वयं अपने मंच की कार्यकारिणी की सदस्या आदरणीया राजेश कुमारीजी की दूसरी पुस्तक के विमोचन समारोह में भाग लेने के लिए देहरादून गया था. तथा, अन्य समारोहों के सिलसिले में ऋषिकेश भी हो आना पड़ा.
एक बात मैं अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें. इस कारण रचनाओं की वैधानिक शुद्धता बनाये रखना रचनाकारों का प्रथम दायित्व है. छन्द की रचनाएँ और छन्द प्रभावित रचनाओं में बहुत अन्तर होता है. छन्द प्रभावित रचनाओं के लिए हमारे मंच पर ही अन्य अवसर और आयोजन हैं जहाँ रचनाकार विधान में यथोचित छूट लेकर या छन्दों के विधानों से प्रभावित हो कर अपनी रचनाधर्मिता को आवश्यक उड़ान दिया जा सकता है.
इन्हीं उपरोक्त कारणों से इस आयोजन की दो अच्छी रचनाएँ प्रस्तुत संकलन में सम्मिलित होने से वंचित हो गयी हैं, जिसका हमें भी खेद है. उन रचनाओं के रचनाकार मंच के उद्येश्य और परिपाटियों का संज्ञान लेकर हमारी सीमाओं को समझने का प्रयास करेंगे तथा हमारे विन्दुवत प्रयासों में सहयोग देंगे.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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1. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
सुहाना समा है , बसंती हवायें।
धरा में यही दृश्य, चारों दिशायें॥
यशो का दुलारा, बड़ा ही निराला।
सभी जीव को, चाहता नन्द लाला॥
कहाँ एक लल्ला, कहाँ गाय नंदी।
जहाँ प्रेम निस्वार्थ, छू ले बुलंदी॥
हनूमान का रूप , झंपी पधारे ।
किसी संत जैसा, सभी को निहारे॥
किसे ढूंढता है, सबेरे - सबेरे ?
जहाँ प्रेम पूजा, वहीं राम मेरे॥
न है ये अजूबा, न कोई तमाशा।
चलो सीख लें, प्यार की मूक भाषा॥
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2. आदरणीय सत्यनारायणसिंह
बड़ा ही सलोना बड़ा बाल भोला।
दिखे शांत ऐसा बुझा आग गोला।।
निशानी गरीबी मिली है उधारी।
तभी तो दिखे बाल जैसे मदारी।१।
बना बाल का आज नंदी सुसंगी।
दुलारे जिसे बाल बैठा त्रिभंगी।।
यही बाल की साधना कर्म पूजा।
सखा धर्म, माता पिता ईश दूजा।२।
नहीं आज भाती मिटा दूँ उदासी।
करूँ यत्न ऐसा भरूँ जी उजासी।।
अडा देख है बाल कैसा खिलाड़ी।
ठगा सा विधाता लगे है अनाडी।३।
सखा की सदा कीश चाहे हिताई।
तभी बाल की बैठ देखे मिताई।।
शिखी है खड़ा बाल माथा टिकाये।
झुकी शांत आँखें त्रिलोकी लुभायें।४।
हरे पेड़ पौधे सजी नाट्यशाला।
खुला व्योम मेरी सुनो धर्मशाला।।
रुलाती हँसाती लुभाती कलाएँ।
सुहानी लगें हैं बुलाती दिशाएँ।५।
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3. आदरणीया कल्पना रामानी
ज़रा गौर, से देख, लो ये नज़ारा।
खुशी से भरा, एक मासूम प्यारा।
बड़े प्रेम से, भोज्य गौ को खिलाया।
दुआ के लिए, शीश आगे झुकाया।
सुना है कि, गौ ना किसी को सताती।
बड़े हों कि बच्चे, सभी को सुहाती।
बड़े प्यार से दूध, अपना लुटाए।
इसी से सदा गाय, माता कहाए।
हमारा यही फर्ज़, हो मान इसका।
युगों से सुधा सा, पिया दुग्ध जिसका।
वरें धर्म को, नीति की बात जानें।
रुके गाय-हत्या, यही लक्ष्य ठानें।
सदा रक्ष माता, रहे ये हमारी।
विरोधी खलों से, रखें जंग जारी।
बचें पाप से, मूक गौ को बचाएँ।
करें कर्म वे, नेक कर्मी कहाएँ।
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4. आदरणीय गिरिराज भंडारी
कहीं गाय, माता, गयी है पुकारी
कहीं गाय ही पे चली है दुधारी
कहीं पे बुराई कहीं धर्म देखा
कहीं जाँ शिला सी कहीं नर्म देखा
बड़े प्यार से तिफ्ल माथा छुआ है
कहीं गाय को भाव ये छू गया है
वहीं एक बन्दर भी ये सोचता है
यही देश है, गाय जो पूजता है
यही दर्द मेरा यही भाव मेरा
यही है सचाई यही घाव मेरा
जहाँ पे नदी , लोग माता पुकारें
वहाँ क्यों हमीं गाय बे मौत मारें
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5. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
यही गाय माँ है बताया हमें है |
इसी गाय को,पूजते ईश भी है ||
मिले दूध पाले तभी गाय को ये
इसी कर्म में पूजते गाय को ये |
सदा से रही है, हमारी गऊ माँ |
हमे दूध देती, कहे प्यार से माँ ||
ख़ुशी से खिलावे इसे घास बच्चे |
लगे साधना बाल सच्ची करे ये ||
हनूमान का दूत प्यारा लगे है |
कभी देखता घूरता सा हमे है ||
द्वितीय प्रस्तुति
हमें तो सिखाया यही जा रहा है
गऊ में सभी का बसेरा रहा है |
सदा पूजते है जिसे साँझ बेला
सभी देवता को गऊ ने है झेला ||
सभी दूध पीते बड़े हो रहे है |
तभी लात गौ की सहे जा रहे है
ख़ुशी से खिलाते इसे घास चारा
सभी बाल माने गऊँ का सहारा ||
गऊ वास का ध्यान खासा रहा है
गऊ स्थान बाडा बनाते रहा है ||
हमारी धरा में हुए है दुलारे |
पुकारे सभी कृष्ण गोपाल प्यारे ||
सभी वर्ण के मानते ईश दूजा
सुहावे सभी को यही कर्म पूजा |
सभी का सहारा गऊ को सँभालो
यही आसरा मान गौ को बचालो ||
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6. सौरभ पाण्डेय
नहीं गाय है मात्र तू.. क्या बताऊँ
तुम्हीं माँ ’हमारी’.. तुझे पूज गाऊँ
पिला दूध संझा-सवेरे सम्हाला
गऊ मुग्ध पाके बछेड़ा निराला !
ज़माने ! जिया जो, बता क्या सुनाऊँ ?
हुई मूक वाणी कहूँ.. क्या बताऊँ ?
इन्हीं उच्च भावों दिलों की कड़ी में
पली ज़िन्दग़ी कष्ट वाली घड़ी में !!
भले पेड़ हों या पखेरू कि प्राणी
सराहें सभी भावना-दृश्य-वाणी
यही भाव हैं जो सभी ने सकारे
तभी तो मनोभूत साथी हमारे
वहीं देख ताके, न बैठे-खड़े ही
मिली जाति है बंदरों की भले ही
सधी वृत्तियों में नहीं दोष आता
लिये भाव मातृत्व की एक माता
धरा आर्द्र होगी जहाँ माँ रहेगी
शिला की नसों में नमी सी बहेगी
न संज्ञा, न देही, न है जाति-नाता
भरी भावना से सुधा-सत्य माता !!
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7. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले
इसे बैल बोलो, कहो गाय चाहे |
दिखा ग्राम में दृश्य गाहे-बगाहे |
वहां एक लंगूर, हैरान सा है |
यहाँ बाल ये भक्त शान सा है ||
नमो गाय माता, कहे ये पुजारी |
लगा शीश आशीष मांगे दया री |
हरो गाय माता, तुम्ही कष्ट सारे |
तुम्हे भाव से बाल माता पुकारे ||
यहाँ हैं जहां के, सभी पुण्य छोटे |
दिखे आज सच्चे, नहीं भाव खोटे |
तभी बांदरा भी, पडा सोच में है |
कहे क्या ? नमो मात, संकोच में है ||
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8. आदरणीया सरिता भाटिया
शिखी है खड़ा देख आँखें झुकाये
भला बाल है एक माथा टिकाये
न ही जिन्दगी से उसे अब गिला है
बिना माँग के प्यार उसको मिला है
कभी खेत में वो करे है जुताई
लगामें तनी अब बना पर मिताई
बना बाल है दीन ऊँचे इरादे
अड़े बैल को प्रेम से वो झुका दे
वहां कीश बैठा उसी को निहारे
जहाँ मूक भाषा बनी अब सहारे
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9. आदरणीया महेश्वरी कनेरी
गले से लगा बाँटते प्यार देखा
जुबां मौन है बोलते भाव देखा
यही भक्ति आस्था यही धर्म माना
यही प्रीत प्यारी यही छाँव जाना
बड़े प्यार से दूध माँ तू पिलाती
तभी गाय माता सदा तू कहाती
दही दूध तेरा सभी को लुभावे
अभागा वही है इसे जो न पावे
नहीं माँगती सिर्फ देती सभी को
नहीं दर्द माँ बाँटती है किसी को
झुका शीश आशीष को माँ दया दे
रहूँ पूजता माँ सदा ये दुवा दे
(संशोधित)
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10. आदरणीया छाया शुक्ला
गरीबी सभी को बड़ा है सताती
भले लाल को ये मदारी बनाती
बड़ा शांत है ये हनूमान वंशी
लगे छेड़ देगा अभी तान कंसी ||
हरे पौध सारे हरी है दिशाएँ
वही चाल मस्ती भरी हैं हवाएं
झुका कान क्या ये सुने क्या अनाडी
बची फौज जाके छिपाया खिलाड़ी ||
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आपकी कोशिश रंग ला रही है आ० महेश्वरी जी ,बहुत सुन्दर लिखा हार्दिक बधाई
काव्य कलश का एक एक बूँद जो ह्रदय मे उतार लिया है उसी का ये रंग है..आभार आप का..
आपने बिल्कुल सही कहा, आदरणीया राजेशकुमारीजी..
सादर धन्यवाद ! आदरनीय भाई सौरभ जी
अपना बहुमूल्य समय देकर रचना का मान बढाने के लिए ह्रदय से अतिशय धन्यवाद
सादर नमन !
रचनाएँ अपने अनुसार अवश्य मान पाती हैं आदरणीया छायाजी.
अयोजन में आपकी गरिमामय उपस्थिति हमसभी के लिए आश्वस्तिकारी रही.
सादर
आज सभी की रचनाएँ पढ़ी सभी ने बहुत सुन्दर लिखा ...छंद भी बहुत प्यारा था और चित्र भी.. मैंने मिस किया |सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई |
आपने जिस तरह से छान्दसिक रचनाओं को अपना व्यवहार बनाया है, आदरणीया राजेश कुमारीजी, उस हिसाब से छन्दोत्सव के प्रत्येक आयोजन में आपकी उपस्थिति अनिवार्य रूप से बनती है. यह अवश्य है कि व्यस्तताओं से बना व्यवधान हमें भी कचोटता है.
सद्यः-समाप्त आयोजन की रचनायें आपको रुचिकर लगीं, यह अवश्य ही रचनाकारों के लिए आश्वस्ति का कारण होगा.
सादर
आदरणीय सौरभ भाईजी / संचालक महोदय
व्यस्त कार्यक्रमों के बीच समय निकालकर संकलन का कार्य पूर्ण करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आभार।
हनूमान का रूप , झंपी पधारे ।
आदरणीय हनुमान को हनूमान लिखने का उद्देश्य सिर्फ मात्रा बढ़ाना नहीं था , पद्य में कृष्णा , हनुमाना , हनूमान, शिवा , देवा , रामा जैसे शब्दों का प्रयोग होते देखकर ही यह लिखा था, गलती यदि कुछ और है तो स्पष्ट करने की कृपा करेंगे ताकि संशोधन किया जा सके।
आप भूलवश चाहता नंद लाला को चाहता गाय लाला कर दिए थे , मैंने टिप्पणी मे लिखा भी है पर आप कहीं और व्यस्त थे , शायद देहरादून में थे। वैसे संशोधन के समय वह भी ठीक हो जाएगा।
सादर
आदरणीय अखिलेशजी,
यह अवश्य है कि इधर कई साहित्यिक एवं व्यक्तिगत किन्तु महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में सम्मिलित होने से मंच की गतिविधियों में मेरी उपस्थिति वैसी नहीं बन पा रही है जैसी कि अपेक्षा हुआ करती है.
आयोजन की रचनाओं का यह संकलन भी चलती ट्रेन में संभव हो पाया है. विश्वास है, आपके माध्यम से साझा हुई यह सूचना अन्यान्य सुधीजनों को आश्वस्त करेगी.
नन्द लाला को, आदरणीय, ठीक कर दिया गया है. अत्यंत खेद है कि आयोजन के दौरान मुझसे हुई ऐसी भूल को आयोजन के समय ही सुधारा न जा सका.
आदरणीय, जहाँ तक व्यक्तिवाचन संज्ञाएँ ही नहीं, किसी तरह की वर्तनी अशुद्धि को खड़ी हिन्दी की रचनाओं में स्वीकार्यता नहीं मिलती. आपने जिन उदाहरणों को साझा किया है वे ऐसी रचनाओं के शब्द हैं जो शुद्ध हिन्दी की रचनाएँ न हो कर आंचलिक हिन्दी या आंचलिक भाषाओं की रचनाएँ हैं. वहाँ शब्दों के वर्तनी के शुद्ध रूपों के अलावे उनके ध्वन्यात्मक रूप भी प्रचलित हैं. या शब्दों का ’पद रूप’ मान्य होता है. जैसे, राम शब्द (व्यक्तिवाचक संज्ञा) का रामहिं पद स्वरूप है. शुद्ध या खड़ी हिन्दी में ऐसे प्रयोग नहीं किये जाने चाहिये. इसी कारण, हनुमान, जो कि व्यक्तिवाचन संज्ञा है, की वर्तनी हनूमान मान्य नहीं हो सकती. होनी भी नहीं चाहिए.
विश्वास है, आदरणीय मेरे कहे से आप सहमत होंगे.
पुनः आयोजन में आपकी गंभीर प्रतिभागिता तथा संयत प्रयास के लिए पुनः बधाई.
सादर
परम आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम,
छ्न्दोत्सव अंक-४१ की सभी रचनाएं एक साथ प्रस्तुत करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार. छंदोत्सव के माध्यम से सनातनी छंद विधा की उपयोगी जानकारी साझा करने हेतु आपका एवं मंच का बहुत बहुत आभार आदरणीय
आदरणीय सत्यनारायणभाईजी, यह भी सही है कि आपकी रचनाओं की अपरिहार्य उपस्थिति आयोजनों का अनिवार्य अंग हैं. आपके मुखर अनुमोदन से मंच का प्रयास सार्थक प्रतीत हुआ है.
सादर आभार
बड़ा ही रसीला बड़ा ही रसीला
लगा छंद जैसे बड़ा ही सजीला
रचे छंद न्यारे भले खूब भाई
बधाई बधाई सभी को बधाई
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