सृष्टि के मुख्य दो अवयवों, व्यष्टि-समष्टि, से बँधा गीत वस्तुतः मानवीय चेतना का ललित शब्द-स्वरूप है. विभिन्न भावों को ग्रहण कर उसकी वैयक्तिक अभिव्यक्ति मानवीय विशिष्टता है. गीत नैसर्गिक अभिव्यक्ति का गेय रूप हैं. इसी कारण, गीतों का सम्बन्ध हृदय से हुआ करता है. गीत शाश्वत हैं क्योंकि सारी सृष्टि ही गीतमयी है. सृष्टि के समस्त अवयव एक विशेष लय से संस्कारित और क्रियाशील होते हैं. प्रारम्भ से ही लोकमानस गीतों में अपने विभिन्न भावों की अभिव्यक्ति पाता रहा है. मानवीय मन के उल्लास या संत्रास तथा परिवर्तनजन्य स्थितियों-परिस्थितियों को गीत समान रूप से अभिव्यंजित करता रहा है. गीतों में गेयता शब्दों के विन्यास में सुगढ़ मात्रिकता के कारण संभव हो पाती है. मात्रिकता के कारण ही गीत सरस तथा कर्णप्रिय होते हैं. किन्तु, कई मायनों में यही गुण गीतों के लिए सीमा भी बन जाते हैं.
हिन्दी साहित्य में साठ के दशक के बाद गीति-काव्य के लेखन ही नहीं, गीति-काव्य के विन्यास तक में शिल्पगत अंतर महसूस किया जाने लगा. कारण कई थे. प्रमुख कारण यही था कि छायावाद के उत्तर चरण में गीत जन की अपेक्षाओं के साथ तालमेल मिला पाने में असक्षम होने लगे. रचनाकारों की वायवीय अनुभूतियाँ पाठक-श्रोताओं के यथार्थ अनुभवों को समायोजित कर पाने में लसर रही थीं. इसका परिणाम यह हुआ कि लोक-जन में प्रचलित छन्दों, आंतरिक संगीत और बिम्बधर्मिता में व्यापक अंतर अपना कर गीत एक नये ही ढंग में सामने आये. यह ढंग गीतों के मात्र भौतिक स्वरूप तक ही सीमित नहीं था, बल्कि गीत-तत्त्वों तक में नयापन का संवाहक था. वस्तुतः, गीतों में यह नयापन गीतों में व्याप गये ’वही-वहीपन’ का त्याग था. इसे पारम्परिक गीतों को सामने रख कर समझा जा सकता है, जहाँ बिम्ब-प्रतीक ही नहीं कथ्य तक एक ढर्रे पर टिक गये दिखते हैं. अभिव्यक्तियों के बासीपन से ऊब तथा स्वभावतः अभिव्यक्ति में नवता की तलाश सृजनात्मकता प्रक्रिया का आधार बनी, जो कुछ परिणाम आया वह नवगीत के नाम से प्रचलित हुआ. गीत नये विन्दुओं के कारण नये प्रतिमानों के प्रति आग्रही हुए. यानि गीति-काव्य में नव्यता के दर्शन होने लगे. इसी नव्यता के कारण गीत की संज्ञा के साथ ’नव’ उपसर्ग लगा. सजग रचनाकार सदैव परिष्कार और नवता के प्रति आग्रहशील रहे हैं. बिम्बों के हिसाब से ताज़ा तथा अभिव्यक्ति के हिसाब से परिष्कृत रचना ही साहित्य में स्थान बना पाती है. पारम्परिक गीतों से गीतों के इस नये स्वरूप की पहचान सीधे ढंग से हुई. यही कारण है, कि गीत के मर जाने की घोषणा का गीत के इस नये प्रारूप ने न केवल प्रतिकार किया, बल्कि आज नवगीत हर उस प्रतिवाद का प्रत्युत्तर बन कर सामने है, जिसने गीत की विधा को ही धता बताना साहित्यकर्म समझ लिया था. गीतों की विशिष्टता को उसकी सीमा समझने लेने के कारण, उनको न साध पाने की संकीर्ण विचारधारा के कारण जो समक्षकीय टिप्पणियाँ की जाती रही थीं, यथा गीत भावाभिव्यक्ति के मृत स्वरूप हैं, आदि-आदि, का नवगीत ने करारा प्रतिकार किया. नवगीत जटिल जीवनानुभूतियों को समग्रता में अत्यधिक सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त करते हुए दिखने लगे. नवगीत की विधा के अनन्य स्वरूप जनवादी गीतों के पैरोकार नचिकेता के ही शब्दों में सुनें तो - जबतक साथ कबीर-सूर के / मीराबाई होगी / तबतक कविता से गीतों की / नहीं विदाई होगी. / जबतक रंगों की पहचान / बची होगी आँखों में / पर्वाजों की इच्छा होगी / चाहत की पाँखों में / खुश्बू की अँगड़ाई होगी / अगर बचा रिश्ता होगा / बचपन से किलकारी का / क्षीरसना आँचल होगा / ममता की फुलवारी का / और बची गेहूँ के आटे में / गोराई होगी /
अभी तक नवगीतों की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन पायी है. उस हिसाब से देखें तो यही नवगीत की विशेषता भी है. रागात्मकता के आयाम में रह कर प्रयोगधर्मिता का सम्मान, यही तो नवगीत का प्रयास तथा हेतु हुआ करता है. वैसे, जहाँ अनुभूति-संप्रेषण में प्रयुक्त छन्द, लय, तान, शैली, तथा संवेदना-संप्रेषण में नव्यता हो, नवगीत संभव हो जाता है. गीत के कलेवर में सोच को प्रस्तुत करने में अपनायी गयी शिल्पगत नव्यता को समझने तथा निखारने के लिए जिस अंतर्दृष्टि की आवश्यकता होती है, वही नवगीतकारों को विशिष्ट रूप से श्रेणीबद्ध करती है. ऐसा विशिष्ट संप्रेषण ही नवगीतकारों को सामान्य गीतकारों से अलग करता है. इसी कारण मुझे व्यक्तिगत तौर पर नवगीत रुचता है. नवगीतों के माध्यम से कोई विवाद स्वर नहीं पा सकता. यहाँ वैचारिक विवाद की संभावना नहीं है. वस्तुतः, जहाँ मतभिन्नता की अभिव्यक्ति कर्कश हो, विवाद की संभावना बनती है. गीत, जो कि नवगीतों के शिल्प का आधार हैं, सनातन सरस माध्यम हैं. नवगीतों में बौद्धिक अभिसार मात्र नहीं, बल्कि मन की साधना दृष्टिगत होती है. अनुभूतिजन्य भावनाएँ सरस निवेदन के साथ शाब्दिक होती हैं तो वह गीत का रूप अपना लेती हैं. नवगीत तो विद्रुपताओं को भी सरसता के साथ प्रस्तुत करने का माध्यम की तरह सामने आते हैं. उदाहरण स्वरूप मैं अपने एक नवगीत के दो बन्द प्रस्तुत करता हूँ - सेमल के घर आग लगी है / भीतर-बाहर रुई-रुई / आँखों पारा छलक रहा है / बहते हैं अवसाद कई / निर्जल राहें अवसादों की / रखें तरावट छालों में.. / ... / एक मुहल्ला अब भी / बसता-ढहता है / हर शाम-सुबह / दृष्टि गड़ाये गिद्ध लगे हैं / नवजातों पर करें सुलह / इस मरघट में मैना कैसे / सोचे तान खयालों में ?
गीत मानवीय भावनाओं का सस्वर प्रस्फुटीकरण हैं. इसी गुण को नवगीत ने अपनाया है. उपरोक्त तथ्य को समझने के लिए सुधांशु उपाध्याय के इस नजरिये को देखें - बन रहे हैं पुल / हो रही है नदी व्याकुल.. / नाव से नाता नदी का / सदियों पुराना है / और अब इस्पात से / रिश्ता निभाना है / एक तह पानी की चढ़ती / एक तह जाती खुल ! ..
आश्चर्य नहीं, यदि कोई यह सोच बैठे कि इन पंक्तियों का रचनाकार प्रगति का विरोधी है ! किन्तु परम्परा निर्वहन की सार्थक आदत और अनुशासन अनायास हाशिये पर न जाये. इसी विमर्श के लिए नवगीत वातावरण उपलब्ध कराते हैं. सुधांशु उपाध्याय अपने एक गीत में इसी तथ्य को उभारते हुए कहते भी हैं - धूप हैं लेकिन / यहाँ आती नहीं ! / कुछ किताबें, शब्द हैं, पाती नहीं / सो रही हैं पेड़ पर क्यों पत्तियाँ / कुछ सोचिए.. / फूल पर आतीं नहीं क्यों तितलियाँ / कुछ सोचिए ..
ऐसा नहीं है कि रचनाकर्म में नयेपन का ऐसा कोई आह्वान कोई अद्वितीय घटना थी. हर काल में हर रचनाकार अपनी रचनाओं में बिम्बात्मक या प्रस्तुतीकरण के हिसाब से नये तत्त्वों का समावेश करता रहा है. हर रचनाकार के लिए नवीनता सृजन-यात्रा को गतिमान रखने हेतु आवश्यक हुआ करती है. कवि-कर्म सदा से इस नवता का विशेष आग्रही हुआ करता है. प्रत्येक युग में, ’नव’ उपसर्ग शब्द भले न लगाया जाता हो, प्रस्तुतियों को कोई उपयुक्त शीर्षक अवश्य दिया जाता रहा है. अलबत्ता, इस बार गीतों के साथ ’नव’ शब्द वैधानिक रूप से जुड़ा. निराला के ’नवगति नवलय ताल छन्द नव’ ने अवश्य इस भाव को मुखरता तथा प्रखरता से शाब्दिक किया. सुखद परिणाम यह हुआ कि आगे यही नवगीत समग्र जीवनानुभूतियों को अभिव्यक्त करने में सक्षम साबित हुए. क्यों कि इनका फलक विस्तृत हो चुका था. यश मालवीय को सुनें तो यह कथन और स्पष्ट होगा - खुद से कटते रस्ते देख / बचते हुए नमस्ते देख ! /.. / इनको देखो दायें-बायें / राजपथों से आयें-जायें / सुख-सुविधा के बीज बिखेरे / यहाँ-वहाँ चादर तहियायें / दण्ड-कमण्डल जप-तप वाले / बिस्तर-बिस्तर धँसते देख ! .. कहना न होगा कबीर के ’मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा’ का वर्तमान स्वरूप कैसे स्वर के साथ मुखर हुआ है. इस अभिव्यक्ति में आजकी विद्रुपता के विरुद्ध आज की आवाज़ है.
गीत में गेयता उसकी प्रमुख शर्त होती है. यह शर्त नवगीतों के संदर्भ में एक मान्य विन्दु की तरह सामने आया. हालाँकि कई बार शब्द-चातुर्य, क्लिष्ट भाव-अभिव्यंजनाओं तथा गहन वैचारिकता के कारण यही गेयता प्रभावित भी होती रही है. किन्तु, मेरा दृढ़ मत यही है कि ऐसा कोई कम्प्रोमाइज मुख्य रूप से रचनाकारों की अक्षमता के कारण ही हुआ करता है. नवगीतों का मुख्य स्वर जटिल भावों की अभिव्यक्ति होता है. नवगीत का शिल्प ही विशिष्ट बन कर उसे सामान्य गीतों से वस्तुतः अलग करता है. मैं अपने एक नवगीत के बन्द से इस तथ्य को सामने रखना चाहूँगा जहाँ जटिल बिम्ब के निर्वहन का प्रयास हुआ है किन्तु गेयता से कोई समझौता मान्य नहीं है - थिर निश्चल निरुपाय शिथिल सी / बिना कर्मचारी की मिल सी / गति-आवृति से / अभिसिंचित कर / कोलाहल भर, हलचल हल्की.. / अँकुरा दो / प्रति विन्दु देह का / लिये तरंगें अधर पटल पर.. / छू दो तुम फिर / सुनो अनश्वर !
इसीकारण, देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ का स्पष्ट मानना है कि - प्रत्येक नवगीत प्रथमतः गीत है, किन्तु प्रत्येक गीत नवगीत नहीं हो सकता. देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ के इस कथन को समझने की आवश्यकता है. नागेन्द्र प्रसाद द्विवेदी को इन्हीं भावों के साथ सुनना उचित होगा - हर गीत सृजन की बेला में / नवगीत हुआ करता है / पर पल-पल नवता धारण कर / नवगीत चुआ करता है / अभिव्यंजनमूलक स्वर जिसका / लोकोन्मुखी प्रतीति चाहिये / ... /जीवन की विद्रुप दशायें / सहज विसंगतियों का चित्रण / यथार्थवाद की भावभूमि पर / कुंठाओं का समुचित वर्णन / जन-जीवन सामान्य जगत का / ऐसा गीत-प्रगीत चाहिये.
पुनः कहना चाहूँगा, कि, नवगीत अपने आप में संपृक्त विधा न हो कर गीतात्मक अभिव्यक्ति का ही माध्यम है. वर्तमान के बिम्बों का सहज प्रयोग तथा भाषायी विन्यास में आधुनिक व्यंजनाएँ इन्हें नयापन अवश्य देती हैं. किन्तु, इन्हें मात्रिक या लय के अनुसार सधा होना अत्यन्त आवश्यक है. इसके लगातार सधे होने तथा उसी अनुरूप स्वस्थ सृजन हेतु विचार-विमर्श आवश्यक है. कहते हैं, गीत स्वतःस्फूर्त है तथा आनुभूतिक ईमानदारी की अभिव्यक्ति ही इसकी प्रमुख शर्त है. गीत या नवगीत को किसी साँचे में नहीं फिट किया जासकता. पूर्व में गीतों का एक साँचा हुआ करता था जो विषयों के पद्यात्मक निर्वहन के लिए छान्दसिक वर्णिकता या मात्रिकता का अनुपालन करता था. किन्तु, आज गीत सामयिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक, सच्चाइयों की अनुभूतियों को या कहें कि समस्त जीवनानुभूतियों को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त कर रहा है जहाँ रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति के अनुरूप छन्द रचना कर लेते हैं. इस विन्दु को और स्पष्ट करने के लिए भारतेन्दु मिश्र को उद्धृत करना समीचीन होगा - दिल्ली में अब / संसद-भवन के निकट / कापालिक बोल रहे क्लीं-क्लीं-फट / .. / छोड़ कर मसान-घाट / जनपथ पर आ गये / सोम पिये होठों से जनहित बरसा गये / मन्दिर में रहते हैं बन्द किये पट / .. / मरी पड़ी जनता के वस्त्र वे उतारते / पथा की बाधाओं को / फोन पर निवारते / घुग्घु-से बैठे हैं द्वार पर सिमट.
गुलाब सिंह के हवाले से इन पंक्तियों में इन्हीं विन्दुओं को देखना सार्थक होगा - देश अपना तो / दुधारू गाय है / गाय शुचिता का / प्रथम अध्याय है / ... / दे रहे चारा अकिंचन / दुह रहे हैं ’भद्रजन’ / भूख की समिधा जला कर / करें समता का हवन / जो है जितना निष्कलुष / उतना ही वह निरुपाय है.
इस हिसाब से सही कहा जाय तो, नवगीत के इतने समर्थ स्वरूप को वैधानिक प्रस्तुतीकरण के हिसाब से किसी निश्चित कसौटी पर कसना अन्यायपूर्ण होगा. इसलिए कथ्य में अद्वितीयता अपने आप प्रत्यक्ष रहती है, जो लोग केवल शैल्पिक चातुर्य से सृजनकर्म में प्रवृत रहते हैं, उनका सृजन स्वयं ग्रहणीयता खो बैठता है. एक विन्दु जो सर्वमान्य है कि नवगीतों में बिम्ब या प्रतीक ठूँसे नहीं जाने चाहिये. भिन्न भावभूमि, भिन्न परिवेश, भिन्न पारिवेशिक संस्कार तथा भिन्न शिल्पगत विशेषताएँ, ये सब मिल कर ही नवगीतों के आकार का कारण बनती हैं. यदि सभी एक जैसे छन्दों, बिम्बों, प्रतीकों, और विषयों क चयन करने लगें तो नव्यता के बात बेमानी होगी. कोई रचना या गीत तभी ग्राह्य नवगीत बन पाता है, जब उसकी भावाभिव्यक्ति में नवीनता हो. विशिष्टता हो. कुछ रचनाकार नवीनता के नाम पर दुरूह शब्दावली और यथार्थ के नाम पर सपाटबयानी को स्वीकारने लगते हैं. मैं इसे संतोषजनक प्रयास नहीं मानता. किन्तु, दुरूहता या शाब्दिक क्लिष्टता सापेक्ष समझ मुखापेक्षी हुआ करती है. और यह एक अलग तरह का विषय है.
एक बात और, नवगीत तथा ग़ज़ल दोनों यद्यपि गीतिकाव्य की विधाएँ हैं, परन्तु गीत भाव-प्रबन्ध हैं. इनमें एक ही भाव को विस्तार दिया जाता है. जबकि ग़ज़लों में अधिकांशतः अलग-अलग अनुभूतियों का संचार होता है. यही वह अंतर है जो दोनों विधाओं को विशिष्टता देता है. किसी विशिष्ट भाव में सतत आप्लावन का सुख ग़ज़ल के माध्यम से संभव नहीं है. जबकि नवगीत किसी भाव-विशेष को सांगोपांग सस्वर करने का माध्यम है. यही कारण है कि प्रतीक, बिम्ब, कथ्य, तथ्य सभी के लिए अंचल से नवगीतकारों को जुड़ना आवश्यक हुआ करता है. यानि किसी सफल नवगीतकार को लोक एवं लोकसुलभ बिम्बों के संसार से स्वयं को जोड़ना ही होगा. यह लोक गाँव का देसी लोक हो सकता है तो महानगरीय जीवन में लथपथ सतत जूझता हुआ लोक भी हो सकता है, जिसके अपने सुख-दुख तथा अपने हेतु हैं. मैं इस विन्दु को यों नवगीतात्मक स्वरूप देता हूँ – श्रम सधे समर्थ हो प्रयास की लहर-लहर.. / अर्थ स्वेद-धार का गहन मगर विकर्म-सा ! / ज्योति-शृंखला बले शिरा-शिरा सिहर-सिहर.. / कम्पनों से व्यक्त हो प्रगाढ़ प्रेम नर्म-सा ! / लालिमा प्रभात की वियोग की कथा रचे / किन्तु, ’मावसी निशा सुहाग का समास दे ! / रात भर विभोर तू / दियालिया उजास दे..
या फिर, एक बन्द और देखें – क्या हुआ हम दुकानों के काबिल नहीं / भींच कर मुट्ठियाँ क्या मिलेगा मगर ! / मैं कहाँ कह रहा-- हम बहकने लगें ? / पर, कभी तो जियें / ज़िन्दग़ी है अगर.. ! / नेह रौशन करे / ’मावसी साँझ को, / हम भरोसों भरें भाव जोड़े हुए..
आज के बाज़ार से संत्रस्त मूल्यों को यों देखा जाय - बिस्तर-करवट नींद तक / रिस आया बाज़ार.. /... / रजनीगंधा सूँघता / लती हुआ मन रेह का / फेनिल-कॉफ़ी घूँट पर / बाँध तोड़ता देह का / अधलेटे म्यूरॉल पर / बाँच रहा अख़बार.. !
कुल मिला कर पूर्णिमा वर्मन के शब्दों से समझा जाये तो आपने नवगीत को विधात्मक स्वर देने का गीतात्मक प्रयास किया है - नवगीत में एक ओर उत्सवधर्मिता का विस्तृत संसार है तो दूसरी ओर जनमानस की पीड़ा का गहरा संवेदन है. साथ ही धैर्य और विरक्ति की ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को हर मुश्किल से निकाल ले जाती है. नवगीत में आशावादिता की वह सुनहरी किरण भी है जो भारतीय दर्शन का मूल सूत्र है.
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-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकाशित)
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आदरणीय सौरभ जी
गीत शाश्वत हैं क्योंकि सारी सृष्टि ही गीतमयी है. सृष्टि के समस्त अवयव एक विशेष लय से संस्कारित और क्रियाशील होते हैं.----सत्य वचन
गीतों में गेयता शब्दों के विन्यास में सुगढ़ मात्रिकता के कारण संभव हो पाती है---गीत और मात्रिक छंद में अन्तर भी स्पष्ट हो i सादर i
वायवीय अनुभूतियाँ पाठक-श्रोताओं के यथार्थ अनुभवों को समायोजित कर पाने लसर रही थीं.--- कुछ छूट गया शायद
गीत के मर जाने की घोषणा का गीत के इस नये प्रारूप ने न केवल प्रतिकार किया, बल्कि आज नवगीत हर उस प्रतिवाद का प्रत्युत्तर बन कर सामने है, जिसने गीत की विधा को ही धता बताना साहित्यकर्म समझ लिया था.----------सुन्दर -सहमत
अभी तक नवगीतों की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं बन पायी है. ---सर्वमान्य कोई परिभाषा तो अनेक 'वाद' के भी नहीं है i कुछ लक्षण विशेष ही इनकी दशा और दिशा तय करते है शायद
सेमल के घर ---क्या सुन्दर नव्-गीत है i
कवि-कर्म सदा से इस नवता का विशेष आग्रही हुआ करता है. प्रत्येक युग में, ’नव’ उपसर्ग शब्द भले न लगाया जाता हो, प्रस्तुतियों को कोई उपयुक्त शीर्षक अवश्य दिया जाता रहा है.------- वह वह --- क्या बात है ?
ऐसा कोई कम्प्रोमाइज मुख्य रूप से रचनाकारों की अक्षमता के कारण ही हुआ करता है. ----- बिलकुल सही
आज गीत सामयिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक, सच्चाइयों की अनुभूतियों को या कहें कि समस्त जीवनानुभूतियों को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त कर रहा है ------------------निस्संदेह
जो लोग केवल शैल्पिक चातुर्य से सृजनकर्म में प्रवृत रहते हैं, उनका सृजन स्वयं ग्रहणीयता खो बैठता है.----------कुछ रचनाकार नवीनता के नाम पर दुरूह शब्दावली और यथार्थ के नाम पर सपाटबयानी को स्वीकारने लगते हैं ------शाश्वत सत्य i
नवगीत में आशावादिता की वह सुनहरी किरण भी है जो भारतीय दर्शन का मूल सूत्र है- पुर्णिमा वर्मन जीने भरपूर परिभाषित किया है
सादर i
आदरणीय गोपाल नारायनजी,
नवगीत सम्बन्धी इस वैधानिक आलेख को आपने मनोयोग से पढ़ा इसके लिए मैं हृदय से आभारी हूँ. वस्तुतः, हर ऊर्जस्वी मंच को आपके जैसे पाठकों की आवश्यकता है जो ऐसे लेखों के अर्थ तदनुरूप मूल्य समझता है.
हार्दिक साधुवाद, आदरणीय.
//गीतों में गेयता शब्दों के विन्यास में सुगढ़ मात्रिकता के कारण संभव हो पाती है--- गीत और मात्रिक छंद में अन्तर भी स्पष्ट हो //
इस आलेख में ऐसे डाइवर्सन की आवश्यकता ही नहीं है. गीतों में मात्रिकता के साधने का अर्थ है कि पंक्तियों में सम के बाद सम और विषम के बाद विषम शब्दों का कलात्मक संयोजन. यह नियम ही मूल है, विधा चाहे मात्रिक छन्द की हो अथवा गीत-नवगीत की.
//वायवीय अनुभूतियाँ पाठक-श्रोताओं के यथार्थ अनुभवों को समायोजित कर पाने लसर रही थीं.--- कुछ छूट गया शायद //
हाँ, समायोजित कर पाने के बाद में छूट गया है. यानि पूरी पंक्ति होगी - वायवीय अनुभूतियाँ पाठक-श्रोताओं के यथार्थ अनुभवों को समायोजित कर पाने में लसर रही थीं.
पुनः आपने जिस मनोयोग से इस आलेख को पढ़ा है वह आपकी पाठकधर्मिता की गरिमा का परिचायक है.
सादर आभार.
आदरणीय सौरभ जी
आपके लेख से फिर रिप्लाई से बहुत सीखने को मिला i सादर i
नवगीत के संदर्भ में इतनी वृहद और उपयोगी जानकारी शेयर करने के लिए आदरणीय सौरभ सर बहुत शुक्रिया ...
नादिर भाईसाहब, एक अरसे बाद आपको मंच के पटल पर देखना अच्छा लग रहा है. विश्वास है आपका प्रवास आपके लिए मनोवांछित और रोचक रहा होगा..
आपको नवगीत पर लिखा यह आलेख उपयोगी लगा, यह जानना मेरे लिए भी तोषदायी है. इस लेख पर समय देने तथा तदनुरूप टिप्पणी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद, नादिर भाई.
नवगीत नवगीत सुना बहुत था पर नवगीत क्या है मैं इस आलेख को पढने से कुछ क्षण पूर्व तक नहीं जानता था ठीक रात के 2.50 बजे नवगीत को कुछ ऐसे स्वयं को समझाने का प्रयास कर रहा हूँ -
-नवगीत जटिल जीवनानुभूतियों को समग्रता में अत्यधिक सम्प्रेषणीयता के साथ अभिव्यक्त करते हुए
-नवगीतों की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं और यही नवगीत की विशेषता
- रागात्मकता के आयाम में रह कर प्रयोगधर्मिता का सम्मान,
- अनुभूति-संप्रेषण में प्रयुक्त छन्द, लय, तान, शैली, तथा संवेदना-संप्रेषण में नव्यता हो,
- नवगीतों में बौद्धिक अभिसार मात्र नहीं, बल्कि मन की साधना
-अनुभूतिजन्य भावनाएँ सरस निवेदन
-विद्रुपताओं को भी सरसता के साथ प्रस्तुत करने का माध्यम
- गेयता प्रमुख शर्त अर्थात छन्द के बंधन से मुक्त किन्तु लयात्मकता
- शब्द-चातुर्य, क्लिष्ट भाव-अभिव्यंजनाओं तथा गहन वैचारिकता के कारण गेयता प्रभावकारी
-नवगीतों का मुख्य स्वर जटिल भावों की अभिव्यक्ति
- बिम्बों व प्रतीकों का सहज प्रयोग तथा भाषायी विन्यास में आधुनिक व्यंजनाएँ किन्तु, मात्रिक /लय के अनुसार सधा होना अत्यन्त आवश्यक
-एक तो बिम्ब या प्रतीक ठूँसे नहीं जाने चाहिये और नए प्रतीक व नए बिम्बों का प्रयोग होना आवश्यक
- समस्त जीवनानुभूतियों को पूरी शिद्दत के साथ अभिव्यक्त करना किन्तु कहने का ढंग कुछ नया और प्रभावशाली हो
-नवगीत में एक ओर उत्सवधर्मिता का विस्तृत संसार तो दूसरी ओर जनमानस की पीड़ा का गहरा संवेदन
-धैर्य और विरक्ति की ऐसी शक्ति जो मनुष्य को हर मुश्किल से निकाल ले जाए
-आशावादिता की वह सुनहरी किरण यानी सकारात्मक वैज्ञानिक दृष्टिकोण
आदरणीय सौरभ पांडे सर इस आलेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आभार और नमन आपको इस नई विधा से परिचित कराने के लिए .. बहुत ही स्पष्ट और सार्थक आलेख ... सादर
आदरणीय मिथिलेशजी, आपने नवगीत विधा पर प्रस्तुत हुए इस आलेख से विन्दुवार तथ्य प्रस्तुत कर वाचनकर्म की सार्थकता को स्थापित किया है.
//शब्द-चातुर्य, क्लिष्ट भाव-अभिव्यंजनाओं तथा गहन वैचारिकता के कारण गेयता प्रभावकारी //
उपरोक्त तथ्य को समझने में या उसे प्रस्तुत करने में संभवतः भूल हुई है. शब्द-चातुर्य, क्लिष्ट भाव-अभिव्यंजनाओं तथा गहन वैचारिकता के कारण गेयता प्रभावकारी न हो कर गेयता प्रभावित होती है. अर्थात गीत के सरस वाचन या गायन में रुकावट आती है. यह किसी गीति-काव्य का दोष माना जायेगा. यह अवश्य है कि नवगीत पारम्परिक गीत सदृश नहीं होते. इनका कथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है. लेकिन प्रस्तुतीकरण गेय होता है.
विश्वास है, मैं उक्त विन्दु को ढंग से साझा कर पाया.
एक बात और, नवगीत साठ के दशक से पाठकों श्रोताओं के बीच हैं. यह अब नयी विधा नहीं है. यह अवह्स्य है कि इसके प्रारूप को लेकर आजभी रचनाकारों में खींचतान चलती रहती है.
सादर
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