उत्तर छायावाद के बाद स्वाधीन भारत में अज्ञेय के प्रादुर्भाव से हिदी की कविता में युगांतरकारी परिवर्तन हुआ I नयी कविता और प्रयोगवादी कविता में कविता का विषय बदला I उसकी वस्तु में परिवर्तन हुआ, जीवन के प्रति कवि का दृष्टिकोण बदला यहां तक कि शिल्प में भी उल्लेखनीय बदलाव आया I इन्ही कारणों से समीक्षा के मानक भी बदले I इस काल के कवि अप्रस्तुत और प्रतीक के छायावादी विधान से इतर बिम्बों की ओर अधिक आकृष्ट हुए और बिम्ब कविता की प्राण-शक्ति के रूप में उभरे I वैसे तो बिम्बों के निर्माण की प्रक्रिया संस्कृत साहित्य में पूर्व से प्रचलित थी पर अभी तक हिन्दी के कवियों ने बिम्ब को काव्य का प्राण-तत्व नहीं माना था । काव्य बिम्ब के सर्वश्रेष्ठ चितेरे के रूप में शमशेर बहादुर सिंह (1911-1993 ई0 ) की कविताओ को समझने के लिए बिम्ब को समझना आवश्यक प्रतीत होता है I काव्य-भाषा विवेचन के दौरान सुमित्रानन्दन पन्त ने जब चित्र-भाषा के प्रयोग की बात कही तो उन्होंने प्रकारांतर से बिम्ब को ही काव्य-शिल्प के अंग और आलोचना के प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया I आचार्य शुक्ल ने भी ‘चिन्तामणि’ के एक निबन्ध में लिखा कि “काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब या मूर्तभावना उपस्थित करना I’
शमशेर बहादुर सिंह की कविताओ का बिम्ब ही उनका वैशिष्ट्य है I ‘धूप ‘ नामक कविता में कवि को बादल की लहरों में नावें उछलती दीखती है I आकाश गुगुनाता है, सीटियाँ बजाता है और फिर उभरता है एक श्रृंगारिक बिम्ब -
कुसुमो-से चरणों का लोच लिए
थिरक रही है
भीनी भीनी
सुगंधियां
क्यों न उसासें भरे
धरती का हिया
इंद्रिय-सौंदर्य के मोहक एवं अतिसंवेदनापूर्ण चित्र देकर भी वे अज्ञेय की तरह सौंदर्यवादी नहीं हैं । उदाहरणस्वरूप ‘मुद्रा’ नामक कविता की मोहक मुद्रा से देखिये –
सुन्दर !
उठाओ
निज वक्ष
और–कस उभर
शमशेर वामपंथी विचारधारा और प्रगतिशील साहित्य से प्रभावित हुए। शमशेर का अपना जीवन निम्नमध्यवर्गीय औसत जीवन था। उन्होंने स्वाधीनता और क्रांति को अपनी निजी चीज की तरह अपनाया। उनमें एक ऐसा कडियलपन है जो उनकी विनम्रता को ढुलमुल नहीं बनने देता, साथ ही किसी सीमा में बंधने भी नहीं देता । दिनांक 12 जनवरी 1944 को ग्वालियर में मजदूरों ने अपनी भूख के विरोध में एक रैली निकाली और प्रतीक के रूप मे रोटियों को अपने लाल झंडे पर इस अभिप्रेत के साथ टांगा कि हमें कम से कम रोटी खाने भर तक की पगार तो मिले I पर इसका जवाब पूंजीवाद ने गोलियों से दिया I उस खूनी शाम शमशेर का ह्रदय रोया और उन्होंने ‘ य’शाम ’ शीर्षक से एक कालजयी कविता लिखी, जिसका एक अंश निम्न प्रकार है -
गरीब के हृदय
टंगे हुए
कि रोटियां लिए हुए निशान
लाल –लाल
जा रहे
कि चल रहा
लहू भरे गवालियर के बाजार में जुलूस
जल रहा
धुआं धुआं
गवालियर के मजूर का हृदय
शमशेर संघर्ष के हिमायती थे I उनकी नजर में भी जीवन संघर्ष ही रहा जिससे वह बावस्ता स्वयं जुड़े हुए थे I सर्वहारा के प्रति उनके मन में संवेदना और पीड़ा थी I वे आम जीवन में भी न्याय के लिए संघर्ष करने के हिमायती थे I एक बार उनका एक परिचित उनके पास आया और उसने अपनी समस्या उनके सामने रखी I शमशेर को लगा कि यह समस्या न्यायिक समाधान मांगती है I उन्होंने सम्बंधित को न्यायालय की शरण में जाने की सलाह दी I पर परिचित ने असमर्थता व्यक्त की I शमशेर ने बेबाक उत्तर दिया-
वकील करो
अपने हक के लिए लड़ो
नहीं तो जाओ
मरो I
‘वकील करो’ कविता से
ईश्वर की इस सृष्टि में प्रकृति कवियों को सदैव आकृष्ट करती रही है I वैदिक काल से आज तक साहित्य में प्रकृति के सौष्ठव को पूरी गरिमा से चित्रित किया गया है I इतना अवश्य है वर्णन के शिल्प में व्यापक बदलाव आया है I पहले के प्रकृति चित्र उपमा और रूपक पर आधारित थे पर अब प्रतीक और बिम्बों ने उनका स्थान ले लिया है I शमशेर का कवि विभा और विभावरी को पृथक पृथक देखता है I विभा पहले है विभावरी बाद में I विभा उतरती है पहले, वह चौकसी करती है फिर राह ताकती है विभावरी के आने का और इस क्रिया का नाम है अगोरना I अमावस्या की रात तपलीन पार्वती की भांति है – भावलीन बावरी I मौन-मौन मानसी I कुछ और बिम्ब देखिये -
1- जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था पत्थर
सजग होकर पसरने लगा
आप से आप !
- ‘सुबह’ कविता से
2- सावन की उनहार
आँगन पार
मधु बरसे, हुन बरसे
बरसे स्वाति धार
आँगन पार I
‘गीत‘ कविता से
3- नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो
और
जादू टूटता है ऊषा का अब
सूर्योदय हो रहा है
-कविता संग्रह- ‘टूटी हुयी बिखरी हुयी’ की कविता ‘ऊषा’ से
संगीत से शमशेर का बहुत लगाव था I वे कभी कभी संगीत में इतना खो जाते के उन्हें आस-पास की भी सुध न रहती I कहना न होगा कि उनकी कई प्राणमय कवितायेँ इन्ही संगीत लहरियों की प्रेरणा से रची गयी है I इस सम्बन्ध में एक घटना का उल्लेख उन्होंने स्वयं किया है I आकाशवाणी के किसी कार्यक्रम को वे रेडियो पर सुन रहे थे और उसमे एक रूपहला संगीत बज रहा था I शमशेर कहते हैं - यह संगीत यों तो योरपीय था, मगर जिस तरह इसका चित्र मेरी भावनाओं में उभरता गया, मुझे लगा कि जैसे किसी अरबी-रूमानी इतिहास के हीरो और हीरोइन अपने घुटते आवेश, मर्म से जलते उच्छ्वास, दर्दनाक फरियादों के क्षण और आँसुओं-भरे मौन को मूर्त कर रहे हैं। उसी संगीत से मिलती-जुलती शैली में उसी भावुक प्रभाव को शब्दों से बाँधने का यह कुछ प्रयास है I कवि के इस प्रयास की बानगी देखिये जिसे उन्होंने ‘अरुणा’ और ‘एम् ए सिद्दीकी’‘ को समर्पित किया है -
परदो - में जल के -शांत
झिलमिल
झिलमिल
कमल दल I
रात की हंसी है तेरे गले में
सीने में
बहुत काली सुरमई पलकों में
सांसो में लहरीली अलको में
आयी तू, ओ किसकी
फिर मुस्कराई तू
- ‘रेडियो पर एक योरपीय संगीत सुनकर’ कविता से
कविता के आलंबन से शमशेर बहादुर अपने जीवन में तीन किरदारों से बहुत मुतस्सर नजर आते है और वे है- महाप्राण निराला , अज्ञेय और प्रसिद्ध एकांकीकार भुवनेश्वर I निराला शमशेर के आदर्श थे I भले ही अज्ञेय को निराला की वर्चस्वता स्वीकारने में समय लगा पर शमशेर और निराला के जीवन में ऐसा साम्य था कि निराला शमशेर के लिये प्रेरणा स्रोत बन गए I दोनों मातृहीना थे I दोनों की पत्नियों ने शीघ्र ही साथ छोड़ दिया I दोनों के जीवन में अर्थाभाव रहा I इन परिस्थितियों में भी निराला का व्यक्तित्व एक दृढ चट्टान की तरह अडिग था I शमशेर को निराला का यह अप्रतिहत स्वाभाव मांजता था I वे लिखते हैं -
भूल कर जब राह- जब-जब राह.. भटका मैं
तुम्हीं झलके हे महाकवि,
सघन तम की आंख बन मेरे लिए ।
शमशेर अज्ञेय के ‘तार सप्तक’ से जुड़े थे I दोनो में काफी घनिष्ठता भी थी I दोनों एक दुसरे के सुख दुःख के सहभागी थे I ‘अज्ञेय’ नामक अपनी कविता में ‘सुरुचि‘ की मृत्यु पर शमशेर ने जो संवेदना व्यक्त की है, वह इस सत्य का प्रमाण है I इस संवेदना में कवि स्पष्ट करता है की जो नहीं है उसके लिए क्या लड़ना I चिर मौन होना अमरता है I अमरत्व के लिये शोक क्यों ? शोक बिम्ब की बानगी प्रस्तुत है –
जो है
उसे ही क्यों न संजोना ?
उसी के क्यों न होना
जो कि है
जो नहीं है
जैसे की सुरुचि
उसका गम क्या ?
वह नहीं है I
भुवनेश्वर की याद करते ही शमशेर को उसका लतीफा याद आता है – इंसान रोटी पर ही जिन्दा नहीं I कवि मरी हुयी भूख के अन्दर तपते पत्थर की मानिंद अपने मित्र की याद करता है जिसके ओठ बीडी के मुसलसल पीने से काले पड गए है I स्मृति में कवि को लगता है कि उसका मित्र एक टूटी हई नाव की तरह है, जो डूबती नहीं, जो सामने भी है और कही नहीं है I फिर याद आता है भुवनेश्वर का वह चेहरा जो भूख मिटाने के लिए पुड़िया फांकता है, सस्ती दारू पीता है और सबका हिसाब भी नोट करता है I बानगी स्वरुप “भुवनेश्वर‘ कविता का एक दृश्य प्रस्तुत है –
तुम्हे कोरी चाय या एक पुडिया का बल
भी ?---हिसाब ; मसलन : ताड़ी कितने
की ? कितने की देसी ? -और रम ?
कितनी अधिक से अधिक ,कितनी कम से
कम? कितनी असली कितनी---I
नयी कविता और प्रयोग समर्थक कवियों ने नारी के मांसल सौन्दर्य का बड़ा ही अत्युक्तिपूर्ण वर्णन किया है I ऐसे ही कवियों में से किसी एक ने लिखा है – ‘कोषवत सिमटी रहे यह चाहती नारी I खोलने का लूटने का पुरुष अधिकारी I’ यह कथन तो फिर मर्यादित है I कई कवियों ने ऐसे भी वर्णन किये हैं, जिन्हें बेसाख्ता, बेझिझक भदेश और अश्लील कहा जा सकता है I इसके विपरीत शमशेर बहादुर के वर्णन अधिक सुष्ठु एवं मर्यादित है I यदि कोई घोर श्रृंगारिक सदर्भ आया भी तो उन्होंने शब्दों से ऐसा चमत्कारी बिम्ब प्रस्तुत कर दिया कि प्रुबुद्ध पाठक मुस्करा उठे I ऐसा ही एक बिम्ब यहाँ पर उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत है -
1- ऐसा लगता जैसे
तुम चारो तरफ मुझसे लिपटी हुई हो
मै तुम्हारे व्यक्तित्व के मुख में
आनंद का स्थाई ग्रास हूँ
‘तुमने मुझको’ शीर्षक कविता से
2- एक सोने की घाटी जैसे उड़ चली
जब तूने हाथ उठाकर
मुझे देखा
एक कमल सहस्त्रदली ओठों से
दिशाओं को छूने लगा
जब तूने आँख भर मुझे देखा
न जाने किसने मुझे अतुलित
निकाला ----जब तू बाल, लहराए
मेरे सम्मुख खडी थी – मुझे नहीं ज्ञात
- सौन्दर्य’ कविता से
किन्तु असफल प्रेम की परिणति सदा निर्वेद में होती है I मनुष्य के ह्रदय में संसार से एक विराग भी उत्पन्न होता है I तब कवि अपने प्रेम को अध्यात्म से जोड़ता है I हिन्दी साहित्य के प्रेमाभिव्यन्जक काव्य इसके प्रमाण है I चाहे वह जायसी का ‘पद्मावत’ हो या कुतुवन की ‘मृगावती’ या फिर मंझन की ‘मधु-मालती‘ I बाद के कवियो में भी यह प्रवृत्ति भरपूर मिलती है I असफल प्रेम की परिणति कभी-कभी अध्यात्म से दूर दर्शन तक पहुँचती है और प्रेमी दार्शनिक बनकर हर वस्तु की व्याख्या अलग तरीके और ढंग से करने लगते हैं I शमशेर की कविताओ में ऐसे स्वर मुखर हुए है I कवि कहता है कि अभी मैने प्यार किया ही कहाँ है और जब करूंगा तब तुम्हारे साहचर्य में मुझे सुख और जय की प्राप्ति होगी –
‘सरल से भी गूढ़ गूढ़तर
तत्व निकलेंगे
अमित विस्मय
अब मथेगा प्रेम सागर
ह्रदय
निकटतम सबकी
अपर शौर्यों की
तुम
तब बनोगी एक
गहन मायामय
प्राप्त सुख
तुम बनोगी
तब प्राप्त जय
‘चुका भी हूँ मै नहीं’ कविता से
एकाकीपन और द्वन्द यह वयोवृद्ध लोगो का अनिवार्य अभिशाप है जिससे व्यक्ति को शेष-जीवन –पर्यंत लड़ना पड़ता है I यदि पत्नी ने साथ छोड़ने में बिलम्ब न किया हो तो यह अभिशाप और भी बढ़ जाता है I बूढ़े व्यक्ति के पास कोई बैठना पसंद नहीं करता I वह बाते करे तो क्या और किससे ? कुछ लोग तो एकाकीपन को ही अपनी जीवन –शैली बना लेते हैं I एकाकीपन में ही सुकून तलाशना वृद्ध पुरुषकी अनिवार्य मजबूरी है I शमशेर इस एकाकीपन को परिभाषित करते हुए कहते है कि -
खुश हूँ कि अकेला हूँ
कोई पास नहीं है
बजुज एक सुराही के
बजुज एक चटाई के
बजुज एक जरा-से आकाश के
जो मेरा पड़ोसी है मेरी छत पर
बजुज इसके कि तुम होती ?
-‘आओ’ शीर्षक कविता से
मनुष्य के जीवन में हठात आने वाले झंझावातो के बीच किम्कर्तव्यम का निदान न कर पाने की स्थिति में मनुष्य द्वन्द का शिकार होता है i निराला ने ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम के अंतर्द्वंद का बड़ा ही खूब्सूरत चित्रण समुद्रमे हा-हा कर उठने वाली लहरों से किया था –‘ शत पूर्णावर्त, तरंग –भंग, उठते पहाड़/ जल-राशि राशि-जल पर चढ़ता खाता पछाड़,/ तोड़ता बंध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत-वक्ष /दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष /‘ शमशेर बहादुर ने ‘अपने घर ‘ शीर्षक कविता में सागर का ही आलंबन लेकर मानसिक द्वंद का चित्रण बिल्कुल नये ढंग से किया है -
बार बार
स्वप्न में रौन्दी –सी विकल सिकता
पुतलियो सा मूँद लेते
आँख!
यह् समंदर की पछाड़
तोड्ती है हाड तट
अति कठोर पहाड़
यह समंदर का पछाड़
शमशेर सिंह हिन्दी ही नहीं उर्दू के भी अधिकारी विद्वान थे I
इस सत्य का प्रमाण उनके द्वारा रची गयी अनेक गजलें व् रुबाईयां
हैं I इनकी प्रसिद्ध गजलो मे- राह तो एक थी’, ‘मै आपसे कहने को ही था’, ‘गीत है यह गिला नहीं’, ‘कहो तो क्या न कहें पर कहो तो क्योंकर हो ‘आदि प्रमुख हैं I उदाहरणस्वरुप शेर और रुबाई के कुछ शब्द-चित्र यहां पर प्रस्तुत है -
शेर
राह तो एक थी हम दोनो की आप किधर से आये गए ?
हमजो लुट गए पिट गये आप तो राजभवन में पाए गये I
जब मौत की राहो में दिल जोरो से धड़कने लगता
धडकनों को सुलाने लगती उस शोख की चाल यकायक I
जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
वही शमशेर मुजफ्फरनगरी है शायद
आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
तक पर मेरे हिस्से की धरी है शायद I
रुबाई
था बहती सफ़द में बंद यक्त्ता गौहर
ऐसे आलम में किसको तकता गौहर
दिल अपना जो देख सकता , ठहरा है कहाँ
दरिया का सुकून देख सकता गौरव
शमशेर की कविताये कई संकलनो में प्रकाशित हई है , जिनके नाम क्रमशः है – कुछ कविताये (1959 ), कुछ और कविताये(1961 ), चुका भी नही हूँ मैं (1975 ), इतने पास इतने(1980 ), उदिता संघर्ष की अभिव्यक्ति का संघर्ष (1980), बात बोलेगी (1981 ) एवं काल तुझसे से होड़ है मेरी (1988 ) I इसके अतिरिक्त ‘एक पीली शाम’ ,’अमन का राग’, ‘मै बार-बार कहता रहा’, ‘चाँद से थोड़ी सी गप्पें’, ‘वाम-वाम दिशा’ ‘एक नीला आइना बेठोस’, ‘सूर्यास्त’ और ‘सागर तट’ आदि अनेक प्रभावशाली और उल्लेखनीय कविताये उन्होंने रची I यह सब इतना प्रभूत भंडार है कि इन सारी रचनाओ के वस्तु का निरूपण एक छोटे से लेख में कर पाना प्रायशः संभव नहीं है I शमशेर जी की कविताओ पर शोध हुआ है पर उनका काव्य-फलक इतना व्यापक है कि शोध की सम्भावनाये निरंतर बनी रहेंगी I
शमशेर जी की कविताओ का शिल्प बहुत उच्च -कोटि का है I उन्होंने स्वय शिल्प पर विशेष ध्यान दिया है I आलोचकों के मत से उनका शिल्प अंग्रेजी साहित्य से उर्जस्वित और प्राणवान हुआ है I इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से एजरा पाउंड (Ezra pound) का नाम लिया जाता है जिन्होंने अपने साहित्य में शिल्प को लेखन की कसौटी मानकर 70 से भी अधिक पुस्तके लिखी I द्वितीय विश्व युद्ध में प्रो –फासिस्ट भाषण देने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया था I शमशेर एजरा के साहित्य, शिल्प और कर्तृत्व से प्रभावित थे i उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि इलियट-एजरा पाउंड एवं उर्दू दरबारी कविता का रुग्ण प्रभाव उनपर है, लेकिन उनका स्वस्थ सौंदर्य-बोध इस प्रभाव से ग्रस्त नहीं है । वे सौंदर्य के अनूठे काव्य- चित्रों और बिम्ब सृष्टा के रूप में हिंदी जगत में सर्वमान्य हैं I
ई एस -1 /436, सीतापुर रोड योजना कॉलोनी
सेक्टर-ए, अलीगंज , लखनऊ I
[मौलिक व् अप्रकाशित ]
Tags:
आदरणीय गोपाल नारायण सर "शमशेर बहादुर सिंह" पर बहुत ही सुन्दर आलेख है यह ! शमशेर की कार्यशाला वास्तव में एक विशाल चित्रशाला है !
सादर
आ० हरि प्रकाश जी
सादर आभार i
आदरणीय गोपाल नारायण सर शमशेर बहादुर सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बेहतरीन आलेख है . आपने बखूबी उसे वर्णित किया है हार्दिक आभार
आ० वामनकर जी
आपका शत-शत आभार i
बहुत ज्ञानवर्धक आलेख ॥ आभार ।
नीर जी
आपका आभार प्रकट करता हूँ i
शमशेर के कृतित्व और व्यक्तित्व पर चर्चा अपने आप एक दुरूह कार्य है. इसपर आदरणीय आपने सजग कलम चलायी है. वैसे प्रतिनिधि उद्धरणों को तनिक और पारिभाषिक होना था. कई कवितांश तनिक चलताऊ ढंग से उद्धृत हो गये हैं. यों भी कोई लेख यदि सांगोपांग हो तो बहुत कुछ समेटने के क्रम में ऐसा हो जाता है.
आपके इस साहित्यिक प्रयास पर मेरी हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ.
एक तथ्य जो टंकण त्रुटि के कारण अटपटा सा लगा है, वह है, 1911 में जन्मे शमशेर 1912 में कविताई कैसे करने लगे ? इसे दुरुस्त कर लीजियेगा.
मंच पर इस सारगर्भित आलेख को प्रस्तुत करने के लिए सादर धन्यवाद
आ० वामनकर जी
त्रुटि का सुधार कर दिया गया है i सादर i
आ० सौरभ जी
गीतों की संख्या काफी थी i सबको समेट पाना संभव नहीं था i कही कही चर्चा में मितव्यय होना पडा i आपकी जागरूक एवं सतर्क नजर ने जो त्रुटि पकडी वह वस्तुतः गंभीर थी i मैंने अब संशोधित कर दिया है i सादर i
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |