हिन्दी में फैंटेसी को स्थापित करने वाले प्रख्यात कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की ‘ब्रह्मराक्षस’ नामक कविता भी ‘अँधेरे में’ की भांति ही एक उत्कृष्ट फैंटेसी है पर इसका कलेवर अपेक्षाकृत काफी छोटा है I ब्रह्मराक्षस का अर्थ है वह ब्राह्मण जो मरने के बाद प्रेत-योनि धारण करता है I जो ब्रह्मराक्षस इस कविता का मुख्य अभिप्रेत है वह अपने पूर्व मानव योनि में एक महत्वाकांक्षी प्रकाण्ड विद्वान था किन्तु उस आत्मचेता को यथार्थ महत्त्व नहीं मिला और प्राणों से उसकी अनबन हो गयी I आत्म-चेतना को विश्व-चेतना बनाने की अभिलाषा में अपने विराट व्यक्तित्व को लेकर सच्चे गुरु की तलाश में वह दर –दर भटका पर योग्य गुरु नहीं पा सका और अतृप्त आत्मा ब्रह्मराक्षस बन गयी I
कविता शहर से दूर एकांत में स्थित एक विशाल खँडहर में विद्यमान परित्यक्त बावली के रोमांचक वर्णन से प्रारंभ होती है जो ब्रह्म-राक्षस प्रभृति प्रेत के निवास हेतु एक उपयुक्त स्थान माना जा सकता है I बावली उस कूप को कहते है जिसके चारों ओर गोलाकार सीढियां होती है जिनके द्वारा कोई भी व्यक्ति कूप जल की सतह तक जा सकता है I उस बावली की अन्तिम सीढियां कूप के गहरे जल से डूबी हुयी हैं और कूप का जल किसी ऐसी आधारहीन बात की तरह है जो समझ में तो नही आती पर उसमे कोई गहरी बात छिपी होती है I
खँडहर और बावली के वर्णन द्वारा कवि ने एक रहस्यमय वातावरण का सृजन किया है, जो किसी प्रेत-कथा का एक आवश्यक अंग है I कवि इसे अधिकाधिक लोमहर्षक बनाते हुए कह्ता है कि बावली के ऊपर गूलर वृक्ष की उलझी हुई डालें लटक रही हैं, जिनकी शाखाओं पर उल्लू के घोंसले लटके है पर अब उल्लू भी वहां नहीं रहते I यह खँडहर किसी पुरातन श्रेष्ठता का ध्वंसावशेष है, जो हृदय में एक संदेह ,एक हूक, एक खटका और एक जिज्ञासा की सृष्टि करता है I कवि कहता है –
विद्युत् शत पुण्य का आभास
जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
हवा में तैर
बनता है गहन संदेह
अनजानी किसी बीती हुयी उस श्रेष्ठता का जो कि
दिल में एक खटके सी लगी रहती
मानवीकरण की सुष्ठु-योजना के अंतर्गत कवि कहता है कि सितारों की ज्योति लिये टगर (सुहागा) के कुछ सफ़ेद फूल हरित-वृंत रूपी कुहनियों को टेक कर बावली की मुंडेर पर जगमगा रहे हैं I उसी के पास कवि की प्रिय लाल कनेर की झौंर एक खास खतरे की ओर लोगों को खींचती है जहाँ बावली का विशाल खुला हुआ अँधा और वीभत्स मुख आकाश की ओर ताकता है I इस बावली की अटल गहराईयों में ही वह ब्रह्म्रराक्षस पैठा हुआ है I
बावली के अन्दर से गूँज और अनुगूंज ध्वनित होती है I कुछ पागल के प्रलाप जैसे स्वर उठते हैं I ब्रह्मराक्षस को अपने तन की मलिनता का आभास है और उस पाप की छाया का भी जिसके कारण उसे यह योनि मिली I वह बावली के जल से उस तमाम मैल और पाप की छाया को धो डालना चाहता है I वह अपनी सम्पूर्ण देह का मर्दन करता है I घिस-घिस कर स्नान करता है I पानी में छपाक -छपाक कर स्नान का पूरा आनंद लेता है I पर मैल है कि पर्त दर पर्त उभडती ही जाती है I
स्नानोपरांत अभ्यास से स्तोत्र पाठ और मंत्रोच्चार प्रारंभ होता है I किन्तु ब्रह्मराक्षस की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है , वह क्रोध में है अतः शुद्ध संस्कृत में वह गालियों तक की बौछार करता है I उसकी माथे की लकीरें घनी हो रही है I उसकी जोरदार आलोचना मुखर हो रही है I यह स्नान अखंड है I यह प्रवाह प्रमत्त है I इसकी संवेदना मलिन है I
और... होठों से
अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
मस्तक की लकीरें
बुन रहीं
आलोचनाओं के चमकते तार !!
उस अखंड स्नान का पागल प्रवाह...
प्राण में संवेदना है स्याह!!
ब्रह्मराक्षस की महत्वाकांक्षा का प्रशमन तब होता है जब वह गहरी बावली की भीतरी दीवार पर गिरती हुई सूर्य की तिरछी रश्मियों को देखता है और उसे ऐसा लगता है मानो सूर्य ने झुककर सम्मानपूर्वक उसका अभिवादन किया है I उसके महत्वाकांक्षा की तुष्टि पुनः तब होती है जब कभी भटकी हुई चांदनी बावली की दीवाल पर छिटक जाती है और ब्रह्मराक्षस समझता है कि चांदनी ने उसे ज्ञान- गुरु मानकर उसका स्तवन किया है I उसका कंटकित मन सहसा प्रफुल्लित हो उठता है उसे लगता है कि समुन्नत आकाश ने भी उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार कर लिया है I तब वह उत्साहित होकर अपने प्रकांड पांडित्य का प्रदर्शन करने लगता है I यथा-
सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
मधुर वैदिक ऋचाओं तक
व तब से आज तक के सूत्र
छंदस्, मंत्र, थियोरम,
सब प्रेमियों तक
कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गांधी भी
सभी के सिद्ध-अंतों का
नया व्याख्यान करता वह
तब वह तृप्त होकर बावली के जल में घनी शून्यवत गहराईयों में निर्भर स्नान करता है I उसके वे व्याख्यान, उनसे उठती गरजती आंदोलित ध्वनियाँ उसके प्रभूत ज्ञान के सागर में आपस में टकराती है I एक विचार को दूसरा नया विचार खंडित करता है I एक शब्द दूसरे शब्द को काटता है I कवि ने ब्रह्मराक्षस के प्रतीक—रूप में एक अतिशय ज्ञानी के आत्म-संघर्ष, उलझन, भटकाव एवं अस्थिर मानसिक स्थिति को रूपायित किया है जिसके अंतर्गत अवस्थित मनीषा अपनी ही व्याख्या को नकारती है I ऐसा लगता है मानो एक कृति विकृत हो गयी है और ध्वनियाँ आपस में लड़ रही हों I कवि के शब्द- चित्र का निदर्शन निम्न प्रकार है -
...ये गरजती, गूँजती, आंदोलिता
गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
वह रूप अपने बिंब से भी जूझ
विकृताकार-कृति
है बन रहा
ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ
ब्रह्मराक्षस के उस प्रलाप को सितारों की ज्योति लिये टगर (सुहागा) के कुछ सफ़ेद फूल हरित-वृंत रूपी कुहनियों को टेक कर बावली की मुंडेर पर सुनते है I करौंदे के फूल और बरगद के उस पुराने विस्तृत वृक्ष के साथ ही साथ स्वयं कवि भी इन ध्वनियों को सुनता है I किन्तु एक पागल के प्रलाप सी वह प्रतीकात्मक ज्ञान मानो उसी बावली में फंस कर रह जाता हैं क्योंकि उसका विस्तार इन परिस्थितियों में सम्भव नहीं I यहाँ कविता का मध्यांतर होता है I
कविता के दूसरे भाग में मुक्तिबोध एक निराले आभ्यन्तर लोक के सांवले जीने की अंधेरी सीढियों की परिकल्पना करते है i आभ्यंतर लोक से लगता है कि यह ब्रह्मराक्षस के मानव जीवन से सम्बंधित उसका निज व्यक्तित्व है I अपने विराट ज्ञान -प्रासाद रूपी व्यक्तित्व की सीढियां पर चढ़ते-उतरते, उतरते-चढ़ते वह पिशाच कई बार गिरा I उसने मोच खाई और उसकी छाती में घाव भी हुए I उसका यह गिरना क्या है ? अपने मानव जीवन में ब्रह्मराक्षस ने अच्छे और बुरे के बीच का संघर्ष, अच्छे और अधिक अच्छो के बीच का युद्ध , नाममाँत्रिक असफलता और बड़ी सफलता के अंतराल का जो व्यापक अध्ययन किया उससे वह लहुलुहान ही हुआ I
कवि कहता है कि अतिरंजित पूर्णता की ये व्यथाएं बहुत प्यारी है I प्रश्न यह है कि अतिरंजित पूर्णता क्या है ? हमारी नैतिकता की ऊंचे-ऊंचे आदर्श, मानदंड यही न ! नैतिकता गणित की तरह शुद्ध है और पूर्णतः उसे आज तक पा कौन सका I इसी की आजमाईश में हम अपना जीवन होम देते हैं I परन्तु नैतिकता की कथाएँ बहुत प्यारी हैं I कवि के शब्दों में -
...अतिरेकवादी पूर्णता
की ये व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं...
ज्यामितिक संगति-गणित
की दृष्टि के कृत
भव्य नैतिक मान
आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान...
...अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
कब रहा आसान
मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!
अपने मानव रूप में विचार- घायल ब्रह्मराक्षस के उद्विग्न भाल पर दीवारों पर लाल-चिता की रक्त-सरिता बहाकर उदित होता सूर्य सफेद –धवल पट्टी बाँध देता है i अर्थात प्रातः होने पर उसका प्राकृतिक उपचार स्वतः ही हो जाता है I आकाश में अनगिनत दशमलव से सितारे फैले हुए हैं I ऐसा प्रतीत होता है कि आकाश गणित का एक उलझा हुआ मैदान है और चारो ओर सर्वतः सितारे बिखरे हुए है I विचार –घायल वह मानव अपने वैचारिक संघर्षों से उत्पन्न विरोधाभासों और अपना आप की लड़ाई से हारकर अन्ततः असमय ही मर जाता है I उसका वक्ष और उसकी बाहें फैली हुई हैं I उसका निर्जीव शरीर पसरा पड़ा है i अपने अति उच्च प्रासाद जैसे व्यक्तित्व के अंतर-संघर्ष में उसकी अकाल मृत्यु हुई है और वह प्रेत-योनि प्राप्त करने हेतु अभिशप्त हुआ है I मुक्तिबोध कहते है कि वह अपने भाव-संगत एवं तर्क-संगत कार्य-सामंजस्य-योजित समीकरण से सम्बंधित गणित के शोधन हेतु आदर्श गुरु की खोज में भटका पर पा नहीं सका I यथा –
वे भाव-संगत तर्क-संगत
कार्य सामंजस्य-योजित
समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
हम छोड़ दें उसके लिए।
उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-शोध में
सब पंडितों, सब चिंतकों के पास
वह गुरु प्राप्त करने के लिए
भटका!!
मुक्ति-बोध ब्रह्म राक्षस की असमय मृत्यु पर भी शोध करते है I शोध का निष्कर्ष यह है कि उन दिनो युगांतरकारी परिवर्तन हुआ I ज्ञान व्यवसायियों के स्थान पर कीर्ति व्यवसायियों का प्रादुर्भाव हुआ और वे लाभकारी कार्यों से धन उगाहने में प्रवृत्त हुए I धन से मन की दिशा बदली और धनाभिभूत मन से सत्य की छाया दूर होती गयी I सत्य दूर से झलमलाता पर पास न आता I मानब –ब्रह्मराक्षस आत्म-चेता था I उसके समीकरण के अनुसार विश्व-चेतना आकार नहीं ले पाई I वह विषादमना आत्म-चेता अपने महत्त्व को जीना चाहता था पर वह संभव न हुआ और प्राणों से उसकी अनबन हो गयी I आहत, निराश, विषण्ण कवि कहता है कि उन दिनों जब ब्रह्मराक्षस की विचार-घायल अतृप्त आत्मा बेचैन थी, उन दिनों यदि उसकी भेंट मानव ब्रह्म–पिशाच से होती तो उसका अभिशप्त जीवन कवि स्वयम् जी कर उसके जीवन का यथार्थ महत्व समूची दुनिया को बताता और यह भी बताता कि हम सरीखो के लिए उसके जीवन की आन्तरिकता का क्या मोल था ?
मुक्तिबोध के अनुसार ब्रह्मराक्षस अपनी आतंरिक विचार- घायल स्थिति और बाहरी जगत के उभरते पूंजीवादी स्वरुप इन दो पाटों के बीच पिसकर रह गया I उसके जीवन की यह त्रासदी बहुत ही निम्न स्तर की हैं I वह बावली में अपने गणितीय समीकरणों में उलझकर सघन झाड़ी के कटीले औए अंधकारपूर्ण विवर में एक मृत पक्षी की भाँति संसार से विदा हो गया और ज्ञान की वह ज्योति हमेशा–हमेशा के लिए बुझ गयी i यह क्यों हुआ ? यह नहीं होना चाहिए था I इन परिस्तिथियों में अश्रुपूरित मुक्ति –बोध घोषणा करते हैं –
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूँ I
ई एस -1 /436, सीतापुर रोड योजना कॉलोनी
सेक्टर-ए, अलीगंज , लखनऊ I
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आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर , रचना का सटीक विश्लेषण , बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख ,...ये पंक्तियाँ भी देखिये ..
ब्रह्मराक्षस
घिस रहा है देह
हाथ के पंजे बराबर,
बाँह-छाती-मुँह छपाछप
खूब करते साफ,
फिर भी मैल
फिर भी मैल!!....फैंटेसी भी लगता है कही न कही कवि के अवचेतन मन से प्रकट होती है ! महत्वपूर्ण आलेख के लिए आपका आभार ! सादर
आदरणीय दुबे जी
आपका आभार और प्रस्तुति पर स्वागत i
आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ पर पुनर्विचार और सटीक विश्लेषण से पुनः इस कालजयी रचना को समझने का अवसर प्रदान करने के लिए हार्दिक आभार. साथ ही इस बेहतरीन समीक्षात्मक आलेख के लिए हार्दिक बधाई. यदि आपको उचित लगे तो एक निवेदन है कि बावली को बावड़ी कर दे. सादर. नमन.
प्रिय वामनकर जी
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया का आभारी हूँ i बावली और बावडी समानार्थक है फिर भी बावडी अधिक उपयुक्त है आपके सुझाव का स्वागत करताहूं इसादर i
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