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रावणों के बीच कलियुग में रहते हैं
रावण के पुतले जलाते हैं हम
क्या वो मिट जाते हैं
उम्र बढ़ती है ए इससे उनकीं
बहुत खूब कहा ....आ0 भाई विजय शंकर जी । इस यथार्थवादी सुंदर रचना के लिए कोटि कोटि बधाई ।
// मेरी अपनी सोंच है कि " विशिष्ट सोंच " को इतना सरल सुगम्य कर दो कि असीम साधारण लगने लगे और हरेक को भी ग्राह्य लगे , वह दो पंक्तियाँ पढ़ के छोड़ न दे कि चलो फिर पढ़ेंगे , फुरसत से //
इस तथ्य के कायल तो हम सभी हैं. यही तो कई मायनों में उच्च लेखन की कसौटी भी है. लेकिन साधारणीकरण के फेर में कोई रचना लसर न जाये इसका ध्यान तो उसके लेखक को ही रखना पड़ेगा न ? मेरा इशारा उस ओर है, आदरणीय. यदि आप भावों की शाब्दिक परिणति से एक लेखक के तौर पर संतुष्ट हैं तो फि मुझे कुछ नहीं कहना.
दूसरे, रचनाओं के साधारणीकरण का मानक कौन तैयार करेगा ? पाठक और लेखक के मानसिक स्तर में व्याप्त असंतुलन किसी रचना के साधारणीकरण की प्रक्रिया को प्रश्नों के दायरे में तो लाती ही है, कई बार परिणति को हास्यास्पद भी कर देती है. ऐसा अकसर होता भी रहा है.
सादर
दिल से कहूँ तो एक अत्यंत ही विशिष्ट सोच को एक तरीके सतही ट्रीटमेण्ट मिला है. कविता भी वाचाल हो ही गयी है. अर्थात एक ही बात बार-बार सामने आती है. इससे उस बात की महत्ता भी कम हो जाती है. छन्दमुक्त रचनाएँ जहाँ सोच को खुला आकाश देती हैं वहीं रचनाकार से स्वयंं पर अंकुश की अपेक्षा भी करती हैं.
आपसे गहन सोचकी कई अच्छी कविताएँ मिल चुकी हैं आदरणीय, अतः अपेक्षाएँ बढ़ गयी हैं तो अतिशयोक्ति न होगी.
सादर
अति सुन्दर शब्द चयन , आपको साधुवाद प्रेषित करती हूँ
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