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भक्त ने भगवान से कहा, "भगवन! आपके पास जितना ज्ञान है वो सारा का सारा मुझे भी प्रदान कर दीजिए।"

भगवान बोले, "तथास्तु।"

भक्त को दुनिया की सारी कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक और धर्मग्रन्थ इत्यादि याद हो गए। उसे हर तरह की कला एवं संगीत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया। उसे दर्शन एवं विज्ञान के सभी सिद्धान्त याद हो गए। इस तरह वह परमज्ञानी हो गया।

उसने अपनी कलम उठाई और एक कविता लिखने का प्रयास करने लगा। कुछ पंक्तियाँ लिखने के बाद उसे लगा कि इस तरह की कविता तो अमुक भाषा में पहले ही लिखी जा चुकी है। उसने चित्र बनाने का प्रयास किया तो वहाँ भी उसे लगा कि अमुक चित्रकार तो इस तरह का चित्र पहले ही बना चुका है। वो जो कुछ करना शुरू करता उसे लगता कि ये सब कुछ पहले ही किया जा चुका है।

अंत में हारकर भक्त फिर भगवान से बोला, "मुझे पहले जैसा बना दीजिए।"

भगवान के अधरों पर मुस्कान तैर गई।

--------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 11:13pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सुनील जी

Comment by shree suneel on July 15, 2015 at 12:06am
बहुत हीं रोचक लघु-कथा कही अापने आदरणीय. मतलब... ज्ञान की अंतिम सीमा पर भी एक जटिल स्थिति उत्पन्न हो सकती है!
बहरहाल, बधाई आपको इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए.
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 9:47pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया सविता जी

Comment by savitamishra on July 13, 2015 at 9:39pm

परम ज्ञानहोने से अच्छा अज्ञानी ही बने रहना हैं। सर्वज्ञ घातक हैं मानुस के लिये...बढ़ी6या कथा

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 8:49pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय तेज वीर जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 8:48pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ओमप्रकाश जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 8:48pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विनय कुमार जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 13, 2015 at 8:47pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by TEJ VEER SINGH on July 13, 2015 at 10:54am

आदरणीय धर्मेंद्र कुमार सिंह जी, मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ बनने की चाहत का सुंदर वर्णन!मगर परिणाम, लौट के बुद्धू घर को आये,बहुत अच्छी रचना!हार्दिक बधाई!

Comment by TEJ VEER SINGH on July 13, 2015 at 10:53am

आदरणीय धर्मेंद्र कुमार सिंह जी, मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ बनने की चाहत का सुंदर वर्णन!मगर परिणाम, लौट के बुद्धू घर को आये,बहुत अच्छी रचना!हार्दिक बधाई!

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