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आदरणीय मदनलाल जी, आपने प्रस्तुति के व्यावाहारिक पक्ष को मान दे कर मेरे प्रयास को प्रासंगिक करार दिया है. आपका सादर धन्यवाद.
आदरणीय Saurabh Pandey जी
प्रणाम.
आप ने लघुकथा की बुनियाद का बहुत ही सटीक और शानदार वर्णन हुआ है. घरपरिवार की बुनियाद अपने संस्कार से ही पड़ जाती है. उम्दा लघुकथा आदरणीय आप की.
आदरणीय ओमप्रकाशजी, प्रस्तुति का मर्म आपने छुआ है. आपकी प्रतिक्रिया सुखद है. सादर धन्यवाद
बच्चे माँ बाप से ही सीखते है | गुप्ता जी को ये बात बहुत देर से समझ आई ..| राजेश समय रहते समझ जाए यही कामना लिए उत्कृष्ट रचना हेतु बधाई प्रेषित कर रहा हूँ आ. सौरभ पाण्डेय जी | सादर
आदरणीय सुधीरभाई, आपने ठीक उस विन्दु को रेखांकित किया है, जो मेरी लघुकथा का हेतु है. आपकी संवेदनाशीलता से यह प्रस्तुति सम्मानित हुई. हार्दिक धन्यवाद
//आज के माता,पिता ही अपने माता,पिता को समझ नहीं पाये //
आदरणीया नीता कसरजी, आपने सही कहा. इसी तथ्य को सामने लाने का एक प्रयास इस लघुकथा के माध्यम से हुआ है. आपकी प्रशंसा से मन मुग्ध है.
सादर
हम अपने ही किये गए कर्मों का फल पाते हैं ... पूरी तरह स्पष्ट है ...इस सच्चाई को आपने जिस खूबी से, यानी स्वाभाविक गति से प्रस्तुत किया है, उसके लिए मैं आपका अभिनन्दन करता हूँ, आदरणीय सौरभ सर! हमारी संतानें हमसे ही सीखती है वस्तुत: उसकी बुनियाद में खाद, पानी हम ही तो डालते हैं...सादर!
आदरणीय भाई जवाहरलालजी, आपकी सम्मति से शतप्रतिशत सहमत हूँ. यही कुछ साझा करना इस प्रयास का उद्येश्य भी था. कथा-विन्दु सार्थक ढंग से संप्रेषित हो पाये यह जानना सुखी कररहा है. अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद
आदरणीया नीता कसरजी, आपका दुबारा इस प्रस्तुति पर आना श्रद्धावनत कररहा है. सादर आभार
लघुकथा बहुत ही सधी हुई कही है आ० सौरभ भाई जी, कमज़ोर बुनियाद ने बड़े मौके पर गुप्ता जी को हकीकत से वाक़िफ़ करवाया है। सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि विषय में नयापन है, वर्ना अक्सर एकतरफा तस्वीर ही पेश की जाती है, मेरी हार्दिक बधाई निवेदित है।
लघुकथा में अंतिम पंक्ति/पंक्तियाँ यदि "नॉक आउट" पंच देने में सफल हो जाए तो रचना की उम्र और प्रभाव कई गुणा हो जाया करता है। इसी सम्बन्ध में रचना की अंतिम पंक्ति का उल्लेख विशेष तौर करना चाहूँगा।
//जब हम गाँव में अम्मा-बाबूजी को छोड़ यहाँ सेटल हो गये थे.. बाबूजी कितना// "बाबूजी कितना" यह दो शब्द बिना कुछ कहे पूरी कहानी कह जाते हैं।
//.. पर.. "// इस "पर" से पहले ही कथा समाप्त कर दी जाती, क्योंकि रचना को जो सन्देश देना था वह दे ही चुकी थी। यदि फिर भी अंतिम पंक्ति लाज़मी ही थी तो गुप्ता जी की स्वीकरोक्ति को और बल देकर उनसे या उनकी पत्नी के मुख कुछ कहलवाना बेहतर होता। जैसे कि:
"अब बबूल के पेड़ पर आम तो उगने से रहे।"
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