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गैर की ग़ज़ल थी तू... ग़ज़ल (मिथिलेश वामनकर)

वक़्त के थपेड़ो में.... खर्च आशिकी अपनी

आज फिर मुहब्बत ने हार मान ली अपनी

 

लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था

गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी

 

भूख की गुजारिश में रात भर बिता कर के

बेच दी चराग़ों ने........ आज रौशनी अपनी

 

आजकल कहीं अपना जिक्र भी नहीं मिलता

वक़्त था कभी अपना, बात थी कभी अपनी

 

आशना तसव्वुर में........ कुर्बते मयस्सर है

फिर किसी परीवश से जान जा लगी अपनी

 

आसमान की यारो छत मिली हमें लेकिन

चाँद भी नहीं अपना, चाँदनी नहीं अपनी

 

दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो

मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी

 

खूब हम समंदर से....... दुश्मनी निभाते थे

आज क्या रहे हम तो, आज क्या रही अपनी

 

वक़्त का परिन्दा फिर आसमां उठा लाया

हाय बेबसी अपनी..... और बेक़सी अपनी

 

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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
-----------------------------------------------------

 

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अशतर:

अर्कान –   फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन / फ़ाइलुन / मुफ़ाईलुन

वज़्न –    212 / 1222 / 212 / 1222

 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on August 18, 2015 at 2:46pm

आदरणीय नितिन गोयल जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरे लिए ख़ुशी की बात है. सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. आपने इस मिसरे पर मार्गदर्शन किया है -

आसमा /न की यारों // छत मिली / हमें लेकिन

   212/    1222  /     212  /      1222

इस हिसाब से बह्र तो सही है किन्तु मिसरे की कहन में सुधार की गुंजाइश है -

आस्मां की छत यारों हमको भी मिली लेकिन

आपकी इस्लाह को ही लिया है बस हमें के स्थान पर हमको किया है. सादर 

Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 11:58am
बाकी....गज़ल के लिये ढेरों बधाई ।
Comment by Nitin Goyal on August 18, 2015 at 11:57am
मिथिलेश जी बड़ी प्यारी गज़ल है,लेकिन "आसमान की यारों छत मिली हमें लेकिन" में वज़्न कम है और बह्र भी अपूर्ण लग रही है । चाहे तो ये कर सकते हैं "आस्मां की छत यारों हमें भी मिली लेकिन" या "आस्मां की छत यारों हमको भी मिली किंतु"

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 30, 2014 at 1:05am

आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी ग़ज़ल पर आपकी इस उत्साहवर्धक और स्नेहपूर्ण आत्मीय टिप्पणी के लिए आभार, हार्दिक धन्यवाद 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 29, 2014 at 1:56pm

आदरणीय मिथिलेश जी आपकी इस ग़ज़ल के सभी शेर उम्दा हैं लेकिन इन दो शेरो के लिए बिशेष रूप से बधाई स्वीकार करें 

आसमान की यारो छत मिली हमें लेकिन

चाँद भी नहीं अपना, चाँदनी नहीं अपनी...वाकई ऐसी छत से क्या फ़ायदा 

 

दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो

मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी...यहाँ खोने के लिए कुछ नहीं है   और जो पाया है बेहिसाब है बहुत बढ़िया  सादर 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 11:32pm
आदरणीय सोमेश भाई जी आप को ये ग़ज़ल पसंद आई लिखना सार्थक हुआ उत्साह वर्धन के लिए आभार धन्यवाद
Comment by somesh kumar on December 28, 2014 at 11:07pm

लफ्ज़ भी किसी के थे, दर्द भी किसी का था

गैर की ग़ज़ल थी तू... सिर्फ सोच थी अपनी

दौलते जहां भर की आपको मुबारिक़ हो

मस्त है फ़कीरी में आज जिंदगी अपनी

भाई जी आपकी माला में से मैंने अपनी पसंद के मोती चुन लिए |सुंदर गज़ल | हर रोज़ नए अर्कान एवं वजन की गज़ल देकर आप इस मंच के वजनदार रचनाकारों में शामिल हैं ,दिली दुआ है की इसी प्रकार आप की बरक्कत हो और आप साहित्य का एक सितारा बनें |

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 8:01pm

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी बहुत बहुत आभार, हार्दिक धन्यवाद .... इसका श्रेय इस मंच के गुनीजनों को है ... सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on December 28, 2014 at 7:59pm

आदरणीय मिथिलेश जी बहुत ही सुन्दर ,आपकी रचनाओं मैं निखार निरंतर महसूस होता रहता है ,हार्दिक बधाई आपको !


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Comment by मिथिलेश वामनकर on December 28, 2014 at 6:09pm

आदरणीय गिरिराज सर इस प्रयास की सराहना और स्नेह के लिए बहुत बहुत आभार ... हार्दिक धन्यवाद  

\\आज क्या रहे हम तो, आज क्या रही अपनी\\ ..... इसमें तो के स्थान पर भी, औ, फिर, अब (अब हम) करने की सोच रहा हूँ . सर निवेदन है कुछ आप सुझाने की कृपा करें ...

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