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अच्छी कथा बधाई आ. लक्ष्मण जी
प्रत्युत्तर
राहत शिविर में चूल्हे के सामने बैठी, दर्द और चिंता से व्याकुल माया की आँखों से अविरल अश्रु बहे जा रहे थे।सामने हरिया सर झुकाए लकड़ियों के छोटे छोटे टुकड़े काट रहा था।हरिया उसके घर का वफादार नौकर था।जब से वह ब्याह कर अपने ससुराल आयी उसने हरिया को यूँ ही सर झुकाये तल्लीनता से काम करते हुए ही देखा है।
"हरिया "माया ने उसकी तरफ देखते हुए कहा। "क्यों रे मुझे भी क्यों नही मर जाने दिया नदी में सबके साथ।बाढ़ से इतने लोग मर गए।पिताजी ,देवर,देवरानी,उनके बच्चे सब नाव में बैठे थे।नाव पलट गयी।कोई नही बचा।हाय!मै अभागी विधवा क्यों बच गयी?
"मालकिन जीवन और मृत्यु तो भगवान के हाथ में है।"
"हरिया कैसे पहाड़ सा जीवन कटेगा सोचा है तुमने?बाढ़ में सबकुछ तबाह हो गया।कौन मेरा भार उठाएगा?कैसे मेरे घर का चूल्हा जलेगा?"
हरिया ने पहली बार मालकिन की तरफ सर उठाकर देखा।धीरे धीरे चलते हुए चूल्हे के पास आया,चूल्हे में लकड़ी सजाया और माया की आँखों में देखते हुए माचिस की तिल्ली जला ली।चूल्हे की लपटों में प्रत्युत्तर तलाशती माया को छोड़ बाहर निकल गया।
(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
आदरणीया माला जी प्रत्युत्तर पर आप की लघुकथा बहुत ही बढ़िया हुई है.
बहुत मार्मिक लघु कथा बहुत खूब ...हार्दिक बधाई माला जी
आदरणीय माला जी, कथा की यह पंक्ित /चूल्हे की लपटों में प्रत्युत्तर तलाशती माया को छोड़ बाहर निकल गया।/ बहुत से प्रश्नचिन्ह छोड़ गई, चूल्हे की लपटें बहुत कुछ अनकहा छोड़ गई। गहन अर्थ समोए विषय को पूरी तरह परिभाषित करती इस स्टीक प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएं ।
ये बेहद गंभीर भाव लिए शानदार रचना बन पड़ी है आदरणीया माला जी। बारम्बार बधाई स्वीकार कीजिये।
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