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आदरणीया रश्मि जी, जब घटनाएँ आरोपित न हो और स्वतः घट जाए तो लघुकथा का प्रभाव दुगुना हो जाता है. यही आपकी लघुकथा का सबसे दमदार पक्ष है. आपने बहुत ही सार्थक लघुकथा लिखी है जो सहज और संप्रेष्य है और सीधा दिल में उतरती है. सुधा की समझदारी भा गई. बहुत बहुत बधाई इस शानदार लघुकथा हेतु.
परिवार को विघटन से बचाने का अच्छा निर्णय ..बधाई इस अच्छी संदेशप्रद कथा के लिय
संकल्प
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" अरे सुनते हो जी आखिर माँ पिताजी कितने दिनो तक रहेगे यहॉ ? हमे भी घर गृहस्थी देखनी है कि नही ? मै कब तक सबका करती रहूंगी ?बच्चो को सम्भालना घर के काम सारा दिन खटती रहती हूं और अब मॉ बाबूजी भी ! मुझसे नही होगा ये सब कह देती हूं ! तुम्हे कुछ करना ही होगा !"
बहू के कमरे से आती धीमी आवाज राजेश्वर बाबू को जगा गई !
स्वाभिमान से जीने के संकल्प ने एक बार पिताजी का घर छुड़वा दिया था और आज फिर ...........
अपना घर जमीन बेटे के नाम करके सारा जीवन उसके साथ रहने का विचार त्यागकर स्वाभिमान का संकल्प ले आज वो फिर गांव लौट रहे थे और हर चेहरा मुस्कुरा रहा था !
मौलिक व् अप्रकाशित
//स्वाभिमान का संकल्प ले आज वो फिर गांव लौट रहे थे और हर चेहरा मुस्कुरा रहा था !// बेहतरीन रचना सामयिक रचना.हर कोई आज अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहता है.
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