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आदरणीय मोहन बेगोवालजी, आपकी सहभागिता तथा प्रस्तुति केलिए हार्दिक धन्यवाद. शिक्षक के मन में उठते सार्थक प्रश्नों को बढिया दिशा देने का प्रयास किया है आपने. शुभकामनाएँ
एक सहज सुझाव अवश्य साझा करना चाहूँगा. किसी प्रस्तुति को पोस्ट करने के पूर्व यदि हम दो दफ़े पढ़ लें तो कई त्रुटियाँ नज़र में आ जाती हैं. और पाठक इत्मिनन से रचना-सुख ले सकते हैं.
सादर
लघुकथा – सत्य
मित्र, मित्र को देख कर चकित था, “ महात्मन् ! कुछ जिज्ञासा है. समाधान चाहता हूँ.”
“कहो वत्स !” वे मुस्काए.
“मैं, बचपन में निर्वस्त्र होने पर शरमाने वाले और आज के इस महात्मा के सत्य को जानना चाहता हूँ,” एकांत पाते ही मित्र ने पूछा.
“वत्स ! दोनों ही सत्य है.”
“समझा नहीं, महाराज !”
“बचपन में वे मातापिता के दिए गए संस्कार थे और यह सत्य को जानने का संकल्प,” कह कर महात्मा मौन हो गए और मित्र इस ‘सत्य’ को जान कर.
(मौलिक व अप्रकाशित)
सत्य एक जीव मात्र होने का ·······बहुत ही गूढ़ संकल्प लिखी है आपने यहां अपनी कथा में। बधाई आपको आदरणीय ओमप्रकाश जी इस सार्थक रचना के लिए।
आदरणीय कांता जी आप की पहली प्रतिक्रिया पा कर प्रसन्नता हुई. आप ने इस गूढ़ संकल्प कह दिया, मेरे लिए काफी है. आभार आप का .
आदरणीय शेख उस्मानी जी आप की सह्रदयता का आभारी हूँ. आप जब भी लिखते है मन खोल कर लिखते हैं. आप की यह आदत ही कभीकभी हमें बेबाक राय रखने पर मजबूर कर देती है. यही विशेषता आप को अपनी लेखनी में उत्कृष्ट पर ले जा रही है. यह मेरी आत्मिक भाव है जो आज व्यक्त हो गए. आभार आप का .
वाह वाह, बहुत ही खूबसूरत लघुकथा हुई है आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी I संस्कार और संकल्प की यह जुगलबंदी लघुकथा को ऊंचाई पर ले गई, ढेरों ढेर बधाई प्रस्तुत है I
आदरणीय योगराज जी भाई साहब , इस बार मैं ने तय कर लिया था कि मैं एक भी शब्द निर्थक नहीं लिखूंगा. फिर जब यह लघुकथा लिखी तो सोचा कि बहुत ही गहन हो रही है . कहीं कोई इसे निरस्त न कर दे. मगर , आप की प्रतिक्रिया पढ़ कर लगा कि लघुकथा सही व सार्थक हुई है, आप की इस प्रतिक्रिया का ह्रदय से आभारी हूँ.
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