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आपकी कथा को अधिक सम्प्रेषणीय बनाने का प्रयास किया है, ज़रा देखकर बताएं कुछ अंतर आया है कि नहीं भाई विजय जोशी जी ?
"तुम इस बार न्यू ईयर में मसूरी जाना चाहती थी ना ! क्या रिजर्वेशन हो गया ? तुम आज खोई-खोई सी लग रही हो। क्या बात है?" मधु ने मालती से ऑफिस में पूछा ।
"क्या ख़ाक मसूरी ?" धर्मसंकट में फंसी मालती बोली "नहीं यार उसके पहले ही गांव से मेरे सांस-ससुर जी लंबी बीमारी के साथ मेरी बीमारी बनकर आ धमके। डॉक्टर ने छः माह का इलाज व बेड रेस्ट दिया है।"
"तो तुम्हारी वर्षों की मसूरी घूमने की अभिलाषा का क्या होगा?"
"मुझसे उनकी आकांक्षाऐं तो सुरसा के मुख जैसी हैं, यात्रा क्या मेरी नौकरी को लील जाएँ । ये बड़े श्रावण कुमार बनते फिरते है। जैसे तैसे उनको गांव के दलदल से निकल कर लाई। आज उन्हें यहाँ फिर उठा लाये। कहते है कि अपने सिवा कौन है इनका।"
"फिर तुम्हारी यात्रा सखी?"
"मैंने भी कह दिया कि यात्रा तो मैं जाऊँगी ही, चाहे जो हो जाये। मेरी भी वर्षों की अभिलाषाएं है। आज वह माँ बाबूजी का वृद्धाश्रम का फार्म भर आये। और मसूरी का रिजर्वेशन फार्म भी।"
कथा अब एकदम से स्पष्ट होकर निकली है। वाक्य विन्यास का सुन्दरतम उदहारण। सादर
आदरनीय योगराज जी आप ने लघुकथा में जान डाल दी. बधाई. आप को .
वाह सर आनंद ही आनंद ..
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