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किसकी आजमाईश (लघुकथा ) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (51)

"देख लिया न तुमने , वह बूढ़ी ग़रीब औरत बेहोश पड़ी थी, कितनों ने उस पर ध्यान दिया ?" - पत्रकार ने वीडियो कैमरा बंद करते हुए मित्र से कहा ।

"हाँ, सही कहते हो, ये चचाजान ही रुके वहां। पानी उस बच्ची से लिया, पानी छिड़क कर उसे होश मे ला कर उसे बिठाया , कौन करता है आजकल इतना ?"

परिस्थिति पर एक आजमाईश करते हुए दृश्य को कैमरे में क़ैद करके दोनों उनके नज़दीक पहुंचे। हालचाल पूछते हुए नाम वगैरह पूछे । बच्ची ईसाई थी, बूढ़ी औरत हिन्दू और चचाजान मुस्लिम । जल था, जुड़ाव था, ज़िम्मेदारी थी, जज़्बात थे ! सड़क पर आवाजाही थी , मानवता यहाँ ठहरी ।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2017 at 6:51am
इस रचना पटल पर उपस्थित हो कर हौसला अफ़ज़ाई हेतु सभी पाठकगण को सादर हार्दिक धन्यवाद।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 3, 2016 at 12:36am
मेरी इस ब्लोग पोस्ट पर उपस्थित हो कर स्नेहिल टिप्पणियों द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी व आदरणीया राजेश कुमारी जी ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 2, 2016 at 8:38pm

एक बहुत अच्छी प्रेरणास्पद लघु कथा जिसकी अंतिम पंक्ति ने इसे और ऊँचाई बख्शी  है हार्दिक बधाई आपको आ० उस्मानी जी .

Comment by pratibha pande on January 2, 2016 at 6:35pm

 कसे हुए शिल्प के साथ अच्छी रचना है आदरणीय ,बधाई स्वीकार करें आप 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 1, 2016 at 5:17pm
मेरी इस रचना के भाव को महसूस कर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया नीता कसार जी ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 1, 2016 at 5:15pm
तहे दिल बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब मेरी इस गद्य शतकीय रचना पर उपस्थित हो कर प्रोत्साहित करने के लिए। गोष्ठी में व्यस्त रहते हुए हम एकदूसरे से टिप्पणियों के माध्यम से जुड़े रहे हैं रचना तो संकलन में भी पढ़ लेंगे । सादर
Comment by Samar kabeer on January 1, 2016 at 3:50pm
जनाब शेख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब,आपकी रचना अच्छा सन्देश दे रही है,बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें|गोष्ठी में आपकी रचना तक नहीं पहुंच स्का इसका मलाल रहेगा |
Comment by Nita Kasar on January 1, 2016 at 2:08pm
जल थ जुड़ाव था ज़िम्मेदारी थी जज़्बात थे शब्दों का कुशल समायोजन।मानवता यहाँ ठहरी ।ज़िंदगी बचाने की जद्दोजहद ज़्यादा ज़रूरी ।बाकी तो ग़ैरज़रूरी बातें है ।बेहद सारगर्भित कथा के लिये बधाई आद०शेख शहज़ाद उस्मानी जी ।

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