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वाह !बच्चों की मासूमियत भरे रंगों से लबरेज़ एक सशक्त रचना के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीया नयना जी।
आदरणीया नयनाजी, आपकी प्रस्तुति का विन्यास तो वास्तव में बहुत ही भावभरा हुआ है. परन्तु, प्रदत्त विषय को यह दूर से संतुष्ट कर पाती है. कारण यही है कि प्रस्तुतीकरण के क्रम में कथ्य-विन्दु कुछ विशेष ही हो गया है. दूसरे, वातावरण का प्रसंग कुछ अधिक ही काव्यमय हो गया है. विश्वास है, अन्य विद्व्द्जनों की टिप्पणियों से अब तक आप समझ गयी होंगी कि इस तरह के कथ्य को विस्तार देने में आयाम तनिक भिन्न हो गया है. फिर भी बाल मन की मासूमीयत विशेष रंग तो अवश्य है.
प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ.
बहुत प्यारी सी और मासूम रचना, बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीया जी प्रदत विषय को सार्थक करती इस सुंदर लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई।
रंगीन साडी
"चुप हो जाओ बेटी ! कब तक रोओगी ? लो ये पहन लो , अब तो सारी उम्र ऐसे ही रहना है ।" एक बूढ़ी महिला ने उसकी और सफ़ेद साडी बढ़ाते हुए कहा ।
"सफ़ेद साडी , उफ़्फ़ !" सहसा पति के कहे शब्द उसके कानों में रस घोलने लगे , " वीरा ! तुम्हारे हाथों में खनखनाती , रंग - बिरंगी कांच की चूड़ियाँ और शोख चटक रंगीन कपड़ो में तुम कितनी सुन्दर लगती हो , हमेशा यूँ ही महकती चहकती रहा करो ।"
"नहीं माँ ! तुम ये साडी पहनो , मैं घर से तुम्हारे लिए पापा की पसंद की साडी लाया हूँ ।" मासूम अभिषेक ने साडी माँ की तरफ बढ़ाते हुए कहा ।
बच्चे की मासूमियत पर वहां उपस्थित स्त्री-पुरुष सभी नम आँखों से एक दूसरे की तरफ देखने लगे । तभी भीड़ में से एक कर्कश आवाज आई । "किसी स्त्री के जीवन के रंग उसके पति की मौत के साथ ही चले जाते हैं । यह तो अबोध बालक है , इसको जल्दी से सफ़ेद साडी पहनाओ देर हो रही है ।"
वीरा ने बालक के हाथ से साडी ली और पहनते हुए कहने लगी -- "पति के बाद , अब मेरी जिम्मेदारियां पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं । सफ़ेद साडी पहचान है कटी पतंग की और मुझे ये पहचान नही चाहिए ।"
मौलिक व अप्रकाशित
वाह नीता जी सार्थक रचना रंग पे बधाई आपको
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