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सच्चे साथी
-जी,जी साहब! जी अभी ज़नाब को ख़बर कर देते हैं।जय हिन्द सर।
थाने में मुंशी ने फ़ोन रखा।
"ज़नाब!हेड ऑफिस से फ़ोन आया है कि सरकार से अपनी मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों ने उग्र रास्ता अख्तियार कर लिया है।उनका एक दल बाजार में घुसकर लूटपाट कर रहा है।किसी दुकान में आग भी......."
मुंशी ने माथे से पसीना पोंछते हुए बोलते-बोलते साँस भरी।
"हालात ज्यादा बिगड़ न जाएं वहाँ तुरंत पहुंचने का आदेश है।"
अब एक सांस में बोल गया।
"हूँsssss।"
एस आई साहब ने बेफिक्री से सिर हिलाते हुए।
"ज़नाब!ऊपर से आदेश हैं वहाँ पहुँच कर मामला नियंत्रित करना है।जल्दी चलना बेहतर होगा।"
"अरे!चल पड़ेंगे अभी क्या जल्दी है?तू आराम से चाय पी फिर देखते हैं।"
"परर....ज़नाब....अ...पनी ड्यूटी तो...."
"अरे!ड्यूटी गई तेल लेने।यूँ बता जो लोग प्रदर्शन कर रहे हैं वो कौन हैं?किसके लिए ऐसा कर रहे हैं?"
"जी!हैं तो अपनी ही बिरादरी के और बिरादरी के हक़ में ही...."
"बस फिर!अपनी बिरादरी के लोग ही अपने सुख-दुःख के सच्चे साथी होते हैं।अब उन पर ही हमला बोलदें क्या?"
मौलिक एवम् अप्रकाशित
बधाई आपको बढ़िया कथा | अपनी विरादरी के लोग ही अपने सुख-दुःख के सच्चे साथी होते हैं।
अपनों का साथ, अपनों के लिए- सुन्दर भाव . बधाई आदरणीय सतविंदर जी .
अपनी विरादरी ,बहुत सुंदर ।अपने पन के नाम पर की जा रही कारगुजारी का बढिय़ा चित्रण बधाई आदरणीय।
बढिया कथा ! पर सिर्फ जाती-बिरादरी के नाम पर प्रदर्शनकारियों द्वारा की जा रही आगजनी को रोकने न जाना कहां उचित है ? सादर
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