आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
सादर अभिवादन ।
पिछले 64 कामयाब आयोजनों में रचनाकारों ने विभिन्न विषयों पर बड़े जोशोखरोश के साथ बढ़-चढ़ कर कलम आज़माई की है. जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी सिलसिले की अगली कड़ी में प्रस्तुत है :
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-65
विषय - "धूप"
आयोजन की अवधि- 11 मार्च 2016, दिन शुक्रवार से 12 मार्च 2016, दिन शनिवार की समाप्ति तक
(यानि, आयोजन की कुल अवधि दो दिन)
बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.
उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --
तुकांत कविता
अतुकांत आधुनिक कविता
हास्य कविता
गीत-नवगीत
ग़ज़ल
हाइकू
व्यंग्य काव्य
मुक्तक
शास्त्रीय-छंद (दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि-आदि)
अति आवश्यक सूचना :-
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर एक बार संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.
आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है.
इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.
(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 11 मार्च 2016, दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा)
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महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
मिथिलेश वामनकर
(सदस्य कार्यकारिणी टीम)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम.
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धूप के विभिन्न मौसम के अनुरूप रूप बताए आपने, वहीं नारियों को आगाह भी कर दिया इसके दुश्प्रभावों से। बहुत खूब। बधाई आ. Sachin Dev जी।
काफी दिनों बाद आपको रचना पर पाकर अच्छा लगा आ. डॉ नीरज शर्मा जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आपका !
आ0 भाई सचिन जी सुंदर कुंडलिया हुई है हार्दिक बधाई ।
बहुत बहुत आभार आ. भाई लच्छमन धामी जी !
दोनों कुण्डलिया छन्द शिल्प और भाव से सम्यक हैं. बधाइयाँ और शुभकामनाएँ.
आदरणीयाखिलेश भाईजी के कहे का अवश्य संज्ञान लें . .
कुंडलियों पर आपका स्नेहाशीष सदा ही मुग्धकारी होता है आ. सौरभ जी, आ. अखिलेश जी के सुझावों को ध्यान मैं रखकर संकलन मैं सुधार का प्रयास रहेगा ! ह्रदय से आभार आपका !
भाई सचिन देव जी सादर, प्रदत्त विषय पर बहुत सुंदर कुण्डलिया छंद रचे हैं.एक दो जगह अवश्य सुधार की गुंजाइश है. प्रथम छंद के प्रथम सम चरण में मात्रा वृद्धि है. दुसरे छंद में 'धुल सकता मेक-अप' में गेयता कम है और 'कुँवारी सारीं बाला' यहाँ 'कुँवारी हर इक बाला' होना चाहिए था. आपकी सुंदर प्रस्तुति पर बहुत-बहुत बधाई.
रहें धूप से दूर, कुँवारी सारीं बाला
रिश्ते में तकलीफ, अगर मुखड़ा हो काला :-)))))))))
बहुत खूब आदरणीय सचिन देव जी, अच्छी कुण्डलियाँ हुई हैं बधाई आपको.
दोहे.
जो थी कभी गुलाब वह, लगती आज बबूल |
धूप दिनोदिन तीव्र हो , चुभो रही है शूल ||
हुआ स्नेह कम देश में, सहे पीर हर गाँव |
बैर भाव की धूप ने , जहाँ पसारे पाँव ||
बदले का वातावरण, पनप रहा है नित्य |
कहती है यह धूप भी, क्रोधित है आदित्य ||
कहती है यह सभ्यता, उसको आज कुरूप |
जिसने जीवन की सही , यहाँ तीव्रतर धूप ||
बढ़ी धूप पर जब धरा, करने लगी विलाप |
सागर से उठने लगी , हौले-हौले भाप ||
मौलिक/अप्रकाशित.
आदरणीय अशोक भाईजी
कहती है यह सभ्यता, उसको आज कुरूप |
जिसने जीवन की सही , यहाँ तीव्रतर धूप || ... सही कहा आपने कर्मठ और तपे हुए व्यक्ति को लोग समझ नहीं पाते और ऊपरी तौर से देखकर निर्णय लेते है।
बढ़ी धूप पर जब धरा, .... बहुत घुमावदार है भाई [ अर्थ भावार्थ लगाते माथा गरम हो गया ] .... क्या इस अर्थ में है .... .................. बढ़ी धूप तो ये धरा, करने लगी विलाप |
हृदय से बधाई सभी दोहे के लिए ।
//बढ़ी धूप पर जब धरा, .... बहुत घुमावदार है भाई [ अर्थ भावार्थ लगाते माथा गरम हो गया ]//.....हा हा हा .
आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर प्रणाम, //क्या इस अर्थ में है .... .................. बढ़ी धूप तो ये धरा, करने लगी विलाप |//एकदम यह नहीं है किन्तु लगभग यही है.मैं धरती और समुद्र के आमने-सामने होने का आभास भी लाना चाहता था.
'धुप पर' लगातार दो प आने की गलती पर प्रधान जी के टोकने की तो मुझे आशा थी किन्तु मुझे कोई और सटीक शब्द नहीं मिला इसलिए ऐसा लिखना पडा. अन्य दोहे आपको अच्छे लगे इसके लिए आपका हृदयातल से आभार.सादर.
आदरणीय रक्ताले भाई , धूप का अलग अलग बिम्बों मे बहुत बढिया प्रयोग हुआ है । दोहावली के लिये बधाई आपको ।
बदले का वातावरण, पनप रहा है नित्य |
कहती है यह धूप भी, क्रोधित है आदित्य || क्या बात है
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