आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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तमाशबीन
सेहरा
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"सुनो ,मुरारी जी बहुत हो गयी मैं बारात वापिस ले जा रहा हूँ | उठ सूरज, यह शादी नहीं होगी |" घनश्याम बाबू ने गुस्से से अपना निर्णय सुना दिया |
"घनश्याम बाबू ,तनिक मेरी पगड़ी की भी लाज रख लो | आपको आपके दहेज़ की रकम मिल जाएगी | शादी तो हो जाने दो |"
"तुमसे पहले ही कह दिया था, की शादी के वक़्त ही बचे हुए दस लाख रुपये देने होंगे | और तुमने हामी भरी थी | वो श्याम बाबू की बिटिया से भी बात चली थी , वे तो तैयार थे शादी के लिए पर मैंने तुमको जुबां दी थी सो, अब या तो पैसे दो नहीं तो मैं तो यह चला | मेरी भी बिरादरी में इज़्ज़त है | "
शादी के वक़्त यह तमाशा तो अक़्सर दिखाई दे जाता है | मुरारी जी के घर भी यही हो रहा था | शादी में आये हुए मेहमान चुप्पी साधे खड़े थे | मुरारी बाबू की बेटी यह सब सुन रही थी | अपने पिता की इज़्ज़त दाव पर लगी थी| उसने अपने होने वाले दूल्हे की तरफ देखा| उसके सपाट चेहरे को देखा, यकायक उसने दूल्हे के सर से सेहरा निकाल दिया और अपना गठ बंधन तोड़ कर, अपने पिता के पास गयी |
"बाबा , इस सेहरे की कीमत लग चुकी है | मुझे नहीं खरीदना यह सेहराI"
भीड़ अब तक जो की त्यों थी |
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मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीया कल्पना जी प्रदत्त विषय को सार्थक करती इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई।
सादर धन्यवाद आदरणीय Sushil Sarna जी
बहुत अच्छे कल्पना जी, प्रदत्त विषय को लघुकथा के माध्यम से परिभाषित करने का सुन्दर प्रयास हुआ है, प्रयासरत रहें और अभ्यासरत रहें I इस सद्प्रयास पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें I
उत्साह बढ़ाने के लिए आभारी हूँ सर ।
धन्यवाद आदरणीय शहज़ाद भाई ।
सादर धन्यवाद आदरणीय पंकज जी ।
सादर धन्यवाद आदरणीया नीता दी ।
इसी की जरुरत है आजकल, जब तक लड़कियां खुद विरोध नहीं करेंगी, सेहरे की बोली लगती रहेगी| बढ़िया रचना विषय पर, बधाई
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