आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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परिस्थितियां बदलते ही भावनायें और विचार कैसे बदल जाते यही मानसिकता का प्रदर्शन ही मेरी कथा का मकसद था. धन्यवाद सखी.
सही बोल रहें है आदरणीय ये बिलकुल वास्तविकता ही है, हर कोई कही न कही दो-चार होता रहता है. धन्यवाद.
सच में यही होता है किसी को किसी की मजबूरी दिखाई नहीं देती जो भाव दुसरे हमारे लिए रखते हैं हम भी तो वही करते हैं बस तमाशबीन बन कर देखते रहते हैं |बहुत अच्छी लघु कथा हुई आ० रीता जी हार्दिक बधाई
बहुत बहुत आभार आदरणीया.
धन्यवाद आदरणीय उस्मानी जी. परिस्थितियां बदलते ही भावनायें और विचार कैसे बदल जाते , यही दिखाना मेरा मकसद था .
वाह ! बहुत खूब ! साहित्य समाज का आईना होता है ,वो दस्तावेज होता है उस समय-काल की घटनाओं और परिवेश को इतिहास में स्थापित करने में . जो विषम परिस्थितियाँ आज यातायात के दौरान उपजती है ,हो सकता है कि आने वाले पचास या सौ साल बाद नहीं रहे ,उस वक्त लोग आज की परिस्थितियों को इन्हीं साहित्यिक दस्तावेज , धरोहरों में से निकाल कर जानकारी ग्रहण करेंगे ,इस लिहाज से आपकी ये लघुकथा विशिष्ट दर्ज़ा रखती है .
ट्रेन में भीड़ ,उस भीड़ में इंसान भेड-बकरियों सा होने पर मजबूर और बैठे हुए यात्रियों में संवेदनहीनता को बहुत ही सार्थक तरीके से अपनी इस प्रस्तुति में कथ्य स्वरुप उभारा है . ह्रदय से बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय रीता जी .
आपकी हार्दिक बधाई को मैं पारितोष समझ ग्रहण करती हूँ, धन्यवाद सखी .
आदरणीया रीता गुप्ताजी,
प्रस्तुति पर कुछ कहने के पहले एक आवश्यक सुझाव - आप व्याकरण सम्मत भाषा का अभ्यास करें.
ऐसा मैं बहुत ही गंभीर हो कर सादर निवेदन कर रहा हूँ, आदरणीया.
यह मंच सदस्यों की प्रस्तुतियों पर पारस्परिकता के मद्देनज़र बहाव में आये हुए कुछ पाठकों के ’समूह’ को प्रोत्साहन देता हुआ कत्तई प्रतीत नहीं होना चाहिए. हालाँकि, यह भी सही है, कि ’नीर-क्षीर विवेक’ व्यक्तिगत लेखन-तप से ही सधता है. इसके लिए सार्थक और दीर्घकालिक अभ्यास की आवश्यकता होती है.
ओबीओ कोई ब्लॉग नहीं है, जिस पर आपसी वाहवाहियों से प्रतिक्रियाओं की संख्या को बढ़ाने के लिए जुगत लगानी होती है.
विश्वासहै, आप कहे का मर्म समझेंगीं.
कथा का तथ्य अत्यंत प्रभावी और व्यावहारिक है. विन्दु आम जीवन से उठाये गये हैं. अलबत्ता प्रस्तुतीकरण के संदर्भ में मैंने ऊपर ही निवेदन कर दिया है.
सादर
एक बात :
जनरल बॉगी में बर्थ का होना सही नहीं लगा. अलबत्ता, उन बॉगियों में सीट होते हैं या सामान रखने के रेक, जिनपर कुछ दबंग टाइप यात्री ज़बरदस्ती का कब्ज़ा बना लेते हैं.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी , आपने इस कथा में भी वो देखा जिसे हम नहीं देख पाए थे . आपकी प्रतिक्रया से हमारी दृष्टि में भी ग्रहण-क्षमता का विकास होगा , ऐसा मुझे प्रतीत होता है
आपकी प्रबुध्दता , वर्षों की साहित्य-साधना आपके द्वारा दिए गए समस्त मार्गदर्शन से ही परिलक्षित हो जाते है , जिन बातों को आप सूक्ष्मता से अवलोकित कर लेते है वो हम सबको मुग्ध करता है , मैं भी नई अभ्यासी हूँ ,अभी सीखने के लिए अग्रसर हूँ , कई -कई जगह स्वयं को कमतर पाती हूँ गूढ़ तकनीकों के सन्दर्भ में . आपकी निष्पक्ष प्रतिक्रिया हमारे प्रयास कर्म में मार्गदर्शन के तहत उजालों के विशाल पुंज सा काम कर जाती है . साहित्य साधना में व्यक्ति से ऊपर रचना -कर्म को महत्व दिया गया है , इसलिए रचना पर बेबाक टिपण्णी रचनाधर्मिता को सही दिशा निर्देश देगी .
हम सभी नव -प्रशिक्षुओं की तरफ से अभिनन्दन आपको . __/\__/\__/\__
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