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ग़ज़ल -नूर- कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो

१२१२ /११२२ /१२१२ /२२ (११२)
.
कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.
.
ग़ज़ब सितम है इसे यूँ अलग थलग रखना,
शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.
.
इधर हैं बाढ़ के हालात और उधर सूखा,
हमारी दीदएतर अब, उधर फ़ज़ा में रखो.
.
शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,
है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.
.
तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,
अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.  
.
ज़बां पे जो भी रहे वो निगाह में भी रहे,
ये तालमेल इरादों में ....इल्तिजा में रखो.  
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 876

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 14, 2016 at 7:42am

शुक्रिया आ. दिनेश भाई 

Comment by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:44pm
शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.... सत्य वचन
हर शेर जलवा बिखेर रहा है आदरणीय निलेश भाई। वाह वाह
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2016 at 5:19pm

शुक्रिया आ. सौरभ सर, सुनील जी, समर सर , रवि सर ...ग़ज़ल पर इतनी विस्तृत चर्चा से मंच लाभान्वित हुआ है ...तीन चार दिन प्रवास में था अत: ऑनलाइन नहीं हो पाया ....
आप सब के स्नेह का आभार  

Comment by Ravi Shukla on May 3, 2016 at 2:49pm

आदरणीय नीलेश जी बहुत अच्‍छी गजल पेश की आपने इसी बहाने इस पर इतनी चर्चा हुई जानकारी मिली विद्वत जनों  के साथ आपको भी श्‍ेार दर शेर दिली मुबारक बाद । सादर

Comment by Sushil Sarna on May 3, 2016 at 1:20pm

शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,
है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.
.
तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,
अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.

वाह आदरणीय नीलेश जी वाह .... क्या खूबसूरत अहसास उतारे हैं आपने .... दिलकश अशआर की इस ग़ज़ल के लिए दिल से शेर-दर-शेर बधाई स्वीकार करें।

Comment by Samar kabeer on May 2, 2016 at 9:40pm
जी नहीं,मुझे मॉलूम है कि निलेश जी डरने वाले नहीं,डराने वालों में हैं,हा हा हा...

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 8:26pm

आदरणीय नीलेश भाई .. इतनी ज़ोरदार तरफ़दारी हमने किसी की नहीं की थी. आप अब हमें मिठाई भिजावाइये ..

:-))))

हा हा हा...............


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 8:24pm

:-))))

जय हो....  .. लेकिन अर्थ मेरे लिए यह निस्सृत हो गया कि ऐसे में ’ग़ज़ब’ का ’बड़ा’ हो जाय तो कमाल हो जाये. बस मुझे लगा आप ग़ज़लकार को क्लैस्ट्रोफोबिक (कम जगह में दम घुटने का) आतंक दे रहे हैं..

हा हा हा हा ........... 

अब हम भी सोरहो आने सुखी-सुखी हैं, हुज़ूर.. :-))

शुभ-शुभ

Comment by Samar kabeer on May 2, 2016 at 8:16pm
जनाब मेरी बात फिर से देखें,मेने निलेश जी पर ही छोड़ा था फैसला कि क्या 'ग़ज़ब'की जगह 'बड़ा'शब्द मुनासिब लगता है,ये ग्रेस मार्क ही तो था जनाब ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 8:08pm

दुरुस्त ! 

हम दीद और दीदा (दीदः) से गड्डमड्ड कर रहे थे. कारण, दीदएतर में मेरा दीदः दीदा नहीं देख पा रहा था.. :-))

अब दिख गया !

अलबत्ता, ’ग़ज़ब’शब्द के प्रयोग पर आपने सही फ़रमाया है. लेकिन जिस अंदाज़ से ग़ज़लकार ने इस शब्द का प्रयोग किया है, उससे उसको ग्रेस मार्क मिल सकता है, मेरा निवेदन मात्र इतना ही है..

समर साब, दिल खुश कर दित्ता जी. .. :-)) 

सादर

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