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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

सादर अभिवादन ।
 
पिछले 67 कामयाब आयोजनों में रचनाकारों ने विभिन्न विषयों पर बड़े जोशोखरोश के साथ बढ़-चढ़ कर कलम आज़माई की है. जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी सिलसिले की अगली कड़ी में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-68

विषय - "प्रकृति और पर्यावरण"

आयोजन की अवधि- 10 जून 2016, दिन शुक्रवार से 11 जून 2016, दिन शनिवार की समाप्ति तक

(यानि, आयोजन की कुल अवधि दो दिन)

 
बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

 

तुकांत कविता
अतुकांत आधुनिक कविता
हास्य कविता
गीत-नवगीत
ग़ज़ल
हाइकू
व्यंग्य काव्य
मुक्तक
शास्त्रीय-छंद (दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि-आदि)

अति आवश्यक सूचना :- 

  • सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान मात्र दो ही प्रविष्टियाँ दे सकेंगे. 
  • रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
  • रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
  • रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
  • प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
  • नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
  • सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.


आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता आपेक्षित है. 

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं. 

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.   

(फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 10 जून 2016, दिन शुक्रवार लगते ही खोल दिया जायेगा) 

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महा-उत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"OBO लाइव महा उत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
 

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" के पिछ्ले अंकों को पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें
मंच संचालक
मिथिलेश वामनकर 
(सदस्य कार्यकारिणी टीम)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम.

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Replies to This Discussion

आदरणीया प्रतिभा जी , रचना के अनुमोदन के लिये आपका हृदय से आभार ।

बहुत बढ़िया प्रस्तुति आदरणीय सर जी! बहुत अच्छी रचना । बहुत बधाई । सादर

आदरणीया राहिला जी , हौसला अफ्ज़ाई का शुक्रिया ।

कर सुरक्षा प्रदान करते हैं

सम्वेदनायें पूरी इकाई में सफर कर सकती है /करती है
बिना रोक टोक , जीवंतता से , गहराई से
यहाँ से वहाँ तक-------- अद्वितीय सम्प्रेषण है यहाँ भी आपका आदरणीय गिरीराज जी । एक नई दृष्टिकोण से आपने प्रकृति तत्व को जोड़ा है । अभिनंदन आपको इस सृजन के लिए ।

आदरणीया कांता जी , सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।

आदरणीय गिरिराज भाईजी, प्रकृति और मानव-जगत के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को रेखांकित करती यह प्रस्तुति प्रकृति की समझ में आध्यात्मिक ऊँचाई तक जाती है. व्यष्टि का समष्टि और आगे ब्रह्मेष्टि की समझ लटेरल ही होता है. इसे टुकड़ों में नहीं देखा जा सकता है. मनुष्य़ जब अपने होने का अर्थ पा जाय तभी वह ब्रह्माण्ड की तार्किक मीमांसा कर सकता है. यहाँ हम अपनी ही परिचयात्मकता से अनजान हैं. फिर अपनी प्रकृति क्या समझेंगे ? और जब स्वयं की प्रकृति नहीं समझे तो बाह्यजगत में व्यापी प्रकृति के प्रति क्या नज़रिया होगा ? जो कुछ आज दिख रहा है वह इसी नासमझी का परिणाम है. कल तक प्रक्रुति सामिप्य पर हमारे पारम्परिक आचार-व्यवहार पर खिल्ली उड़ाने वाले आज ’वृक्ष लगाओ, नदी बचाओ’ की चीख-पुकार मचाये हुए हैं. हम ऐसे क्या शिक्षित हुए कि नदियों को मात्र बहता पानी-सोता का दर्ज़ा दे कर उनके अस्तित्व तक को मिटाने पर तुल गये हैं जबकि हमारे तथाकथित ’अशिक्षित’ पूर्वज नदियों को माता कह कर उनकी ’गोद’ में जीते थे. 
आप यह सही कहते है, कि जबतक प्रकृति को अपनी व्यक्तिगत इकाई का एक्स्टेण्डेड प्रारूप नहीं समझा जायेगा, जैसा कि अपनी परम्परा के माध्यम से हम कहते रहे हैं, प्रकृति-कल्याण नहीं होने वाला. प्रदूषण और कुछ नहीं हमारी सोच और हमारे व्यवहार का खुल्लमखुल्ला नतीजा है.

आपकी इस कविता केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय. .. साधु-साधु

शैल्पिक तौर पर यही कहूँगा, कि भाव निरुपण के क्रम में पर्यायवाची शब्दों का विपुल प्रयोग उचित नहीं है. ऐसा तबतक नहीं किया जाना चाहिए जबतक दोनो तरह के शब्दों का प्रयोग अत्यंत परिहार्य हो. 

सँवेदना को सम्वेदना कर लिया जाय.

सादर धन्यवाद

आदरणीय सौरभ भाई , वैचारिक रचना को आपने मान मिला तो रचना सार्थक हो गई , आपका हृदय से आभारी हूँ ।

सम्वेदना सही है , जानते भी कहीं गलती हो गई है , सुधार लूँगा , आभार आपका । पर्यायवाची शब्द आदतन लिख डालता हूँ , आदत छोड़नी पड़ेगी , ग़लतियाँ समझाने के लिये आपका आभार ।

सादर धन्यवाद आदरणीय गिरिराज भाई

आपने सत्य कहा है आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , "अंश और पूर्ण" में तत्वतः कोई भिन्नता नहीं है।  पूर्ण की ही क्रियाशीला शक्ति  "प्र  करोति यः  सः प्रकृति " उसी के आदेश पर अपने विविध  रूप रचती रहती है और अंश समझने लगता है कि वे सब उससे और वह सबसे भिन्न है। यही सोच उसे अपने ही रचे जंजाल में भटकाती है और जब प्रकृति अपना संतुलन स्थापित करने का कार्य करती है तो "पूर्ण" को दोष देता है।  यथार्थतः अपने कृत्यों के लिए दूसरों को दोष देना आज के मनुष्यों का प्रधान लक्षण बन गया है।  रचना में इसी उन्नत भावना को सजाकर प्रस्तुत करने के लिए बहुत बधाई प्रेषित है। 

आदरनीय टी आर सुकुल भाई , सराहना और वैचारिक सहमति के लिये आपका हार्दिक आभार ।

आदरनीय टी आर सुकुल भाई , सराहना और वैचारिक सहमति के लिये आपका हार्दिक आभार ।

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सादर, एक गहन सोच के परिणाम के रूप में दिखती यह अभिव्यक्ति.सच  है कुछ परिवर्तन हमें बदलाव के लिए मजबूर करते हैं और प्रकृति में आये विषम परिवर्तन के लिए जहाँ हम जिम्मेदार है वहां सुधार भी हमें ही  करना है. सार्थक प्रस्तुति. सादर.

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