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"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-73 में प्रस्तुत एवं स्वीकृत रचनाओं का संकलन

श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-73, जोकि दिनांक 12 नवम्बर 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.

इस बार के आयोजन का विषय था – "प्रदूषण".

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

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1.आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

विषय आधारित प्रस्तुति

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उद्योगपति औ’ नेता अफसर, भारत के कुलभूषण हैं।

लेकिन इनकी नासमझी से, चारों ओर प्रदूषण है॥

भुगत रही है जनता सारी, महानगर से डरती हैं।

जल थल वायु सभी दूषित हैं, साँसे रुक रुक चलती हैं॥

खूब बढ़ा निर्यात मांस का, पेप्सी कोला यहीं बनाते।

खर्च बहुत पानी का इसमें, खेतों में भी जहर उगाते॥

 

बिके हुए नेता अफसर हैं, बड़ी कम्पनी का दबाव है।

नहीं सोचते भारत हित में, राष्ट्र प्रेम का भी अभाव है॥

सारे धनपति अफसर नेता, कलियुग के खर दूषण हैं।

पद्मश्री हैं इन्हीं में कोई, कोई पद्म विभूषण हैं॥

इन तीनों का गठबंधन है, ये ही भाग्य विधाता हैं।

पूरा शासन तंत्र भ्रष्ट है, रोती भारत माता हैं॥

 

गलत नीति से धूल धुँआ है, वातावरण प्रदूषित है।

गंदे नालों के मिलने से, पवित्र नदियाँ दूषित हैं॥

प्रदूषणकारी उद्योगों को, वही इजाजत देते हैं।

नेता अफसर भर भर के जो, सूटकेस में लेते हैं॥ 

अफसर नेता लतखोर हुए, समझें न कभी बातों से।

टूटती है इनकी खुमारी, न्यायालय की लातों से॥

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2.आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी

दिल्ली के दिल से (गीत)

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हर रोज हादसों से

मै काँपता शहर हूँ

 उखड़ रही हैं साँसें

मै हाँफता शहर हूँ

 

लाचार इक  पिता हूँ

बच्चों  के ज़ुल्म ढोता

कुहरे में कैद हूँ मै

दिन रात अपने खोता

पीता जहर धुएँ का

मै खाँसता  शहर हूँ 

 

ये गाड़ियों का रेला

क्यों रोज भागता है

भरता है विष हवा में

दिल को ये काटता है

मंजिल पता नहीं है    

मै भागता शहर हूँ

 

जलती हुई नज़र में

इक आस अब भी बाकी

फिर खुश हवा मिलेगी

थपकी बनेगी माँ  की

सोया नहीं हूँ कब से

मै जागता शहर हूँ

 

हर रोज हादसों से

 मै काँपता शहर हूँ

उखड़ रही हैं साँसें

मै हाँफता शहर हूँ

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

कुण्डलियाँ छंद

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चलना पैदल ही भला ,क्यों वाहन से प्यार

सेहत की कुंजी यही ,तन का घटता भार

तन का घटता भार ,प्रदूषण भी कम होता

धुआँ  जनित हैं रोग ,आज जो मानव ढोता

अब इसका उपचार ,हमें ही मिलकर करना

चलो करें आरंभ ,आज से पैदल चलना

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3.आदरणीय समर कबीर जी

ग़ज़ल

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किसको इल्ज़ाम दे रही है फ़ज़ा

कुछ सुनो तुमसे बोलती है फ़ज़ा

 

साँस लेना भी अब तो मुश्किल है

ज़ह्र आलूद हो गई है फ़ज़ा

 

हर तरफ़ फूल से महकते थे

मेरी आँखों में घूमती है फ़ज़ा

 

कारख़ानों की चिमनियों के तुफ़ैल

अलविदा कहके जा रही है फ़ज़ा

 

हो गये ख़त्म सब्ज़ा ज़ार "समर"

उनके दुःख में ही रो रही है फ़ज़ा

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4. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी

विषय आधारित प्रस्तुति (दोहा छंद)

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प्राणवायु के रूप मे, हवा सुलभ सर्वत्र ।

जहरीली फिर क्यों हुई, दिल्ली सह अन्यत्र ।१।

 

दिल्ली की आबो-हवा, पर ना हो इतबार ।  

जहाँ साँस लेना हुआ, जन जन को दुश्वार ।२।

 

धुंध धुएँ की दोहरी, दिल्ली ओढ़े सौर ।

दम जहँ घुटता जीव का, नहीं सुरक्षित ठौर ।३। 

 

जुटे परस्पर होड़ में, महानगर से गाँव ।

अतः आज पर्यावरण, लगा देश का दाँव ।४।

 

बढे प्रदूषण ना कभी, रखिये इसका ध्यान ।

इसे रोक यदि ना सके, खतरे मे फिर जान ।५।

 

दिल्ली के इस दर्द को, समझ आज इंसान ।

वरना यह अभिशाप कल, भोगे सकल जहान ।६।

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5.आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी

ग़ज़ल/गीतिका (छ्न्द मनोरम आधारित)

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बीज विष के बो रहे हम

जल पवन सब खो रहे हम।

 

पूर्वजों की भूल बातें

गल्तियां बस ढो रहे हम।

 

है दिया जो कुछ प्रकृति ने

आज उसको खो रहे हम।

 

अब प्रदूषित सोच होती

इसलिए तो रो रहे हम।

 

भूल सारी मुश्किलों को

नींद में ही सो रहे हम।

 

धूल ही बस धूल फैली

आँख को हैं धो रहे हम।

 

क्यों रहेगा वायु पानी ?

लालची जब हो रहे हम।

 

ख्याल कुदरत का ही’ ‘राणा’

कर सही अब तो रहे हम।

 

द्वितीय प्रस्तुति

रोला गीत

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जन जीवन है त्रस्त,नहीं कोई रखवाला

मन मरता है देख,नहीं क्यों रहा उजाला?

 

 

दूषित हुए विचार,भयंकर है बीमारी

सद्गुण खाते मात,प्रदूषण है यह भारी

खत्म हुए संस्कार,बढ़ा दुर्गुण का जाला

जनजीवन है त्रस्त, नहीं कोई रखवाला।

 

उत्सव का हो जोर,जोर से शोर कराते

हुआ भयंकर शोर,कर्ण पट हिलते जाते

दूषित सारी वायु,श्वास में अब विष डाला

जनजीवन है त्रस्त नहीं कोई रखवाला।

 

लालच में सब लोग,सोच में बसी कमाई

देखो जल के साथ,गन्दगी खूब मिलाई

गन्दा होता नीर,बना है विष का प्याला

जनजीवन है त्रस्त, नहीं कोई रखवाला।

 

मान रहें हैं मातु,भूमि को देखो सारे

हावी होते स्वार्थ,उन्हीं के आगे हारे

करते वृक्ष विहीन,इसे हरते वनमाला

जनजीवन है त्रस्त,नहीं कोई रखवाला

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6.आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी

विषय आधारित प्रस्तुति (कुकुभ छंद)

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सागर पर्वत दरिया पादप, सुंदर सब झरना नाला

थे सुन्दर वन जंगल जैसे, हरा पीला फुल माला |

शुद्ध हवा निर्मल जल धरती, सब प्रसाद हमने पाया

काला धुआँ दूषित वायु सब, हैं स्वार्थी मनष्य जाया ||

 

पागलों ने काट पौधे सब, वातावरण को उजाड़ा

बे मौसम अब वर्षा होती, बे मौसम गर्मी जाडा |

ववंडर कहीं तूफ़ान कहीं, है प्रदुषण का नतीजा

कहीं सुखा तो कही जल प्रलय, होगी विध्वंस उर्वीजा* ||

 

समझे नहीं इंसान अब तक, अब तो समझना पडेगा

वरना बहुत देर न हो जाय, तब जीवन खोना पडेगा |

हवा पानी सब प्रदूषित है, सुरक्षित नहीं है दिल्ली

इन्द्रप्रस्थ बन गया अब तो, सब मूढ़ का शेखचिल्ली ||

 

द्वितीय प्रस्तुति

प्रदूषण (अतुकांत)

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ब्रह्म राक्षस अब

नहीं निकलता है घड़े से

डर गया है मानव निर्मित

ब्रह्म राक्षस से |

वह जान गया है

मानव ने पैदा किया है

एक और ब्रह्म राक्षस

जो है समग्र ग्राही

धरा के विनाश के आग्रही |

यह राक्षस नहीं खर दूषण

यह है प्रदूषण |

काला गहरा धुआं

निकलता है दिन रात

कारखाने की चमनी से,

मोटर गाड़ियों से,

फ़ैल जाता है आसमान में|

धुंध बन शहर गाँव को

ले लेता है अपने आगोश में |

दिखता नहीं कुछ आखों से

लोग मलते हैं आखें,

गिरते आँसू लगातार

रोते सब गाँव शहर |

डरावना नहीं रूप इसका

डरावना है काम इसका |

घुस कर चुपके से

जीव शरीर के अन्दर

दिल, फेफड़े को करता है पंचर |

मानव की मूर्खता देखो ...

उसे जो बचा सकता है

उस जीवन दाता जंगल को

काट काट कर खात्मा किया है |

दिखाने झूठी शान

मूर्खता से काटता वही डाल

जिस पर खुद बैठा है इंसान |

दीवाली में अर्थ करता बर्बाद

पटाखे जलाते हैं बे-हिसाब

दूषित करते पर्यावरण को

जल्दी आने का निमंत्रण

भेजते हैं यमराज को |

अफसर मंत्री सब मौन क्यों हैं ?

पटाखें पर बैन क्यों नहीं हैं ?

जल जीवन है,

और

वायु प्राण है,

दोनों प्रदूषित हैं |

रे इंसान ! सोच ...

जल वायु बिन तू कैसे जियेगा ?

न तू रहेगा, न कोई इंसान

धरती हो जायगी बेजान |

यह सत्य है ...

अब भी गर तू रहता

स्वार्थ की नींद में   

तो धरती से प्राणी का

विलुप्त होना निश्चित है |

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7.आदरणीय बोधिसत्व कस्तूरिया जी

विषय आधारित प्रस्तुति

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कभी दिल्ली दिल वालों की हुआ करती थी!

अमा यार अब तो केवल गन्दगी और धुएँ के गुबार हैं!

दोपहर बाद तक या मौला ५० मीटर पर नजर आता नही!

समझ कुछ आता नही हम इन्सान हैं, या रगे हुए सियार है!

जो जानबूझकर अनदेखा करते रहे और काटकर पेड पौधे बनाते रहे, एक नया ससार है!!

है अजब दास्तान इस मुल्क की दौडते है, आख मूदकर!

और बाद इसके दूसरो पर थोपते है, जो दूसरों के आशार है!!आनेवाली पीढी के लिये तैयार कर दिए है!

मौत के जो हजारों आसार है!!

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8.आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी

प्रदूषण पर लघु–कविताएं (अतुकांत)

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तरक्की का यह आलम है

हर मर्ज की दवा है ,

सांस लेने को नहीं हवा है ,

तो क्या , सिलेंडरों में हवा है ,

ख़रीदिये और जीईये। ........ 1 .

 

बाढ़ हर साल आती है ,

ढेरों गन्दगी बहा ले जाती है ,

फिर भी नदी नदी , सफाई को

खुद तरसती रह जाती है। ........ 2 .

 

बहता पानी

निर्मल पानी ,

पर पीने को

बोतल पानी। ........ 3 .

 

आशाओं का संकेत

नीला आसमान ,

बीमारियों सा

दूर दूर तक फैला ,

पीला आसमान।........ 4 .

 

जीवन एक संघर्ष

जीवन के लिए ,

साँसों के लिए। ........ 5 .

 

द्वितीय प्रस्तुति

प्रदूषण , लघु-कविताएं ,जल एवं वायु (अतुकांत)

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जल

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जल जीवन है ,

निर्मल प्रवाहित रहे

तो जीवन दायिनी है

हमें जीवन देता है।

बाधित हो , दूषित हो ,

तो कीड़ों को जन्म देता है ,

जीवन देने की उसकी क्षमता

अबाध्य है , निर्बाध्य है।

निर्णय आपके हाथ है।........ 1.

 

वायु

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गुबार धूल के उड़ाना भूल जाइये।

धूल का एक एक कण कीमती है ,

लेकिन खेत में ,और कहीं नहीं ,

मिट्टी से प्यार करें उसे खेत में ही रहने दे।

 

रुख हवा का ज़रा सा बिगड़ जाएगा

तो अच्छा खासा काम बिगड़ जाएगा।

हवा में ज़हर न घोलें

वो आपकी ही सांस में जाएगा ,

फिर बताइये , क्या रह जाएगा। ........ 2.

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9.आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’

ग़ज़ल

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राम कहाँ हो खरदूषण नें फिर से पाँव पसारा है

सवा अरब शीशों वाले रावण ने पाँव पसारा है

 

आग लगी है धूलि भरी है धुंध चतुर्दिक छायी है

प्राण-वायु में कर्क रोग ने ऐसे पाँव पसारा है

 

जल-जीवन दाता अब खुद ही जीवन अपना ढूंढ रहा

विष ने अमृत बूँद बूँद में मिलके पाँव पसारा है

 

मात्र शेष ध्वनि सुर हैं लापता, विस्तृत है अवसाद सगर

शोर रूप धर कुम्भकर्ण नें मन पे पाँव पसारा है

 

बाँझ हो रही कोख धरा की फटे कलेजे से कहती

मनुज रखो चद्दर के अंदर जो ये पाँव पसारा है

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10.आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

ग़ज़ल

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फज़ा ये रो रही है

ये दुनिया सो रही है

 

हमारी आधुनिकता

पुरातन खो रही है

 

हमारे पाप कब से

ज़मी ये ढो रही है

 

कहाँ है अब हवा वो

वो पहले जो रही है 

 

नई तहज़ीब भी तो

क़हत ही बो रही है   

 

हरी थी कल जो पत्ती

वो पीली हो रही है

 

जवानी ना समझ थी

ज़ईफी रो रही है

 

धुआँ पी कर हरिक जाँ

कज़ा संजो रही है

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11.आदरणीय डॉ टी.आर. शुक्ल जी

अतुकांत

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तुम जलाओ दीप... और करो प्रदर्शित अन्तरंग की अनुपम खुशियाँ ,

झिलमिल झिलमिल जीवन घड़ियां।

हम तो कहेंगे .... बाती जल रही है, तेल अस्तित्व हीन हो रहा है,

फिर भी ये, तुम्हें खुश करने वाला .... उजाला.... दिये जा रहा है.....

देते जाने का संकल्प किये जा रहा है।

राम के एतिहासिक वन से घर आने पर तुम फोड़ते रहो बम !

और, आनन्द मनाओ गूंजी हुई ध्वनियों के साथ,

मुझे तो बेचारे,

वायुमण्डल पर तरस आता है जो,

अनन्त गूँजों को समेटे,

धुएं को बटोरे,

अपने प्राणों की सुध खोये, संजोये है हमारे लिये जीवन।

राम आये और चले गये,

कष्टों को लेकर खुशियों को देकर, बस इतना ही याद रखो तुम.....

मैं तो आज उन की धुन में खोया हॅूं बार बार,

जो मूलशंकर से दयानन्द हो गए,

वर्धमान से महावीर हो गए,

तीर्थराम से राम तीर्थ हो गए,

गोपाल से योगीराज कृष्ण हो गए और,

अमावश्या के इस घटाटोप अँध में तुम्हारी लाख रोशनी के तले ही,

वे आंखों से ओझल हो गए ! ! !

 

(द्वितीय प्रस्तुति)

 

अरे ! यहां तो पानी ही पानी है !

रोटी को किस्मत है खोटी

आओ इसे जी भर के पी लें।

सिसकियां उगलकर आंखों को धो लें

जाने फिर कब मिले, न मिले।

राजा जू के राज में, सेठ जू के व्याज में

खूब तो घिसे पिटे। अब सुस्ताने के लिये,

क्या ये बबूल भी छांह का किराया लेगा ?

आओ सुकुल ! सुनो,

चलो, जहां चैन की सांस तो मिले।

रागजनित काया को माया ने कैसा ललकारा,

जब तक सबल थी सब ने पुकारा

अब जाने क्यों अपनों ने ही ऐंसा दुतकारा,

कि तिलमिला गया मन।

सब में तो खूब रहा जीवन भर,

अब शेष बचा ऐंसे ही जी ले।

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12.आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी

प्रदूषण (अहीर छंद- 4 चरण सम तुकांत, 11 मात्रा अंत जगण 121 से आवश्यक)

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बढ़ा प्रदूषण जोर,

मचा चतुर्दिक शोर,

विपदा है अति घोर,

कोई चले न जोर।

 

दिल्ली जा अब जाग,

करो न भागमभाग,

लगी प्रदूषण आग,

हम सब पर यह दाग।

 

अन्धाधुन्ध विकास,

आया ना कछु रास,

नहीं नीति कुछ खास,

जिससे जागत आश।

 

सबको है दरकार,

ठोस करे सरकार,

ना मानें हम हार,

हो मिलजुल प्रतिकार।

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13.आदरणीया राजेश कुमारी जी

प्रदूषण (दोहा छंद)

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वाहन अंधाधुंध कर,दूभर कर ली साँस|

वायु प्रदूषण झेल अब ,जोर जोर से खाँस||

 

गाँव गाँव कंक्रीट में, बदल दिए हैं आज|

काली काली चिमनियाँ ,करती तुझ पर राज||

 

नदियों तालों में मिला, आज जहर भरपूर|

कल खुद पीने के लिए ,होगा तू मजबूर||

 

खूब पटाखे फोड़ अब,खूब मचाले शोर|

क्या डरना जब हो गई ,श्रवण शक्ति कमजोर||

 

नदी तीर जंगल गिरी ,काट छांट कर  रोज|

शुद्ध हवा गायब हुई ,किसे रहा अब ख़ोज||

 

दोषारोपण ठेल कर ,पीट प्रदूषण ढोल|

कुदरत भी अब ना सुने ,बंदे तेरी रोल||   

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14.आदरणीय मनन कुमार सिंह जी

ग़ज़ल

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ढ़ेर बढ़ा है आज प्रदूषण

चोट हुआ है आज प्रदूषण।1

 

खूब सँजोये धन्ना जी ने

नोट बड़ा है आज प्रदूषण।2

 

रूप्पे लेकर घूम रहे सब

लोट रहा है आज प्रदूषण।3

 

लोग धुँआ-सा फैलाते हैं

बिखर पड़ा है आज प्रदूषण।4

 

त्याग रहे हैं आज बड़ों को

यार बड़ा है आज प्रदूषण।।5

 

लोग बदलते नोट सहमकर

घेर खड़ा है आज प्रदूषण।6

 

रोज नकद का सौदा करते

खेल रहा है आज प्रदूषण।7

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15.आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी

प्रदूषण (दोहा छन्द)

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शोर शराबा गंदगी,  धूँधर की भरमार।

जनता बेपरवाह है, बेबस है सरकार।1।

 

सुख सुविधा की लालसा, दौलत का अरमान।

सांस नहीं विष ले रहे, ना समझें नादान।2।

 

नहीं मानता जीव जड़, होता फिर बीमार।

पैदल चल सकता नहीं, चाहे मोटर कार।3।

 

दीवाली की आड़ में, लगा रहे हैं आग।

काया दुर्बल हो रही, रोग रहे हैं जाग।4।

 

जहरीली ये है हवा, जहरीला है आब।

अब तो लेना सांस भी, सबको लगता ख्वाब।5।

 

धुंध नहीं ये है धुआं, फैला चारों ओर।

जीव जंतु सब मर रहे, चिड़िया रही न मोर।6।

 

इक दूजे को कोसते, जनता औ सरकार।

समाधान अवशेष हों, सबकी है दरकार।7।

 

प्रदूषण (द्वितीय प्रस्तुति )

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दिखावा करते रहो बेशक

बाहरी प्रदूषण मिटाने का

मगर मन का प्रदूषण

मिटा नहीं सके अभी तलक।

गीत तो सुना था

काले गोरे का भेद नहीं

मगर यहाँ तो जात पात से

ऊपर नहीं उठे अभी तलक।

तुम पैरों से चलते हो तो

हम भी सिर के बल नहीं चलते

मगर ओछी मानसिकता से

ऊबरे नहीं हो अभी तलक।

तुम मखमली तकिये पे सिर रखोगे

हम पत्थर को सिरहाना बना लेंगे

मगर अपने मन का मैल

मिटा नहीं सके हो अभी तलक।

आज तो रूखों की रूह से

रूह कांपने लगी है

मगर तेरा वादा

साकार हुआ क्यों नहीं अभी तलक।

सुना था शेर बकरी

एक ही घाट पे पानी पीते हैं

मगर यहाँ तो

बकरी ही कटती आई है अभी तलक।

खुदा ने दी हैं दो आँखें

देखने के लिए सभी को

मगर ऊँच नीच का फर्क

मिटा नहीं सके अभी तलक।

मन का मैल धोने को

साबुन नहीं बाजार में

क्या तभी ये प्रदूषण

मिटा नहीं सके अभी तलक?

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16.आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी

क्षणिकाएँ

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(1)

बढ़ता प्रदूषण

फेफड़ों में

कुंडली मारकर

बैठ गया है

शायद उसे

सुरक्षित ठिकाना

मिल गया हो जैसे।

 

(2)

प्रदूषण के खिलाफ

उठती

विभिन्न आवाज़ें

शोर गुल में

तब्दिल होकर

स्वयं ध्वनि प्रदूषण बन गई हैं।

 

(3)

कचरे के ढेर में

पन्नी-प्लास्टिक

बीनने वाले बच्चे

देश के

भावी भविष्य को

मुँह चिढ़ रहे हैं।

 

(4)

बढ़ते प्रदूषणों ने

बाज़ारवाद के

नये द्वार खोल दिए हैं

नये आंदोलनों के।

 

(5)

कट्टरवाद की

चिमनी से

निकला प्रदूषण

सभी धर्माें के

फेफड़ों में समा गया है।

 

(6)

गंदगी को

खाते-पचाते, पचाते

अब धरती को भी

बदहजमी

हो रही है।

 

(7)

लगातार

कूड़े-कर्कट

और शवों को

निगलते-निगलते

मोक्षदायिनी नदियाँ

अब खुद

मोक्ष तलाश रही हैं।

 

(8)

गंदगी के ढेर

बदबूदार रास्तें

धुआँ उगलते शहर

धूल उड़ाती गाड़ियाँ

स्वच्छता

अभियान के कांधों पर

सवार होकर

अपनी मंज़िल

तय कर रही हैं।

 

(9)

सांस्कृतिक

आध्यात्मिक प्रवचन

पाण्डालों से

आते शोर गुल को सुनकर

ध्वनि-प्रदूषण की

साँसे भी धमने लगी है।

 

(10)

आतंकवाद के

मुँह से निकला

भयानक विस्फोट

दूसरे  प्रदूषणों के

अस्तित्व को

खत्म कर रहा है।

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17. आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी

विषय आधारित प्रस्तुति (ताटंक छंद)

आज प्रदूषण ने इस जग में, तांडव खूब मचाया है।

चारो ओर धुएँ की केवल, दिखती काली छाया है।।

 

हुआ जगत को मिलना दुर्लभ, शुद्ध हवा का झोंका है।

हे मानव! अपने कदमो को, क्यों ना तुमने रोका है।

 

ज्ञान और तकनीकी के जो, करता तर्क अनोखा है।

मास्क पहन के घूम रहा वह, खुद को देता धोखा है।।

 

यही हाल जो रहा जहां का, संकट में घिर जायेंगे।

नही बचेंगे जीव धरा पर, ऐसे दिन भी आयेंगे।।

 

ज्ञान और विज्ञान लिए ये, कैसी आंधी आई है।

खुद अपने हाथो ही हमने, अपनी चिता सजाई हैं।।

 

कुछ पाने की मँहगी कीमत, सबने खूब चुकाई है।

है नभ जल थल में जहर घुला, प्राणों पर आफ़त पाई है।

 

उन्नति एक बहाना नर ने, जग का ताप बढ़ाया है।

काट रहा नित वृक्ष धरा पर, ग्लोबल वार्मिंग लाया है।।

 

आओ हम संकल्प करे मिल, बिरवे खूब लगायेंगे।

देश प्रदूषण मुक्त बनाकर, नेक मनुज कहायेंगे।।

 

प्रदुषण (द्वितीय प्रस्तुति)

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आज प्रदूषण कर गया, हर सीमा को पार।

लोग अभी भी मस्त है, ये कैसा संसार।।

 

शुद्ध हवा मिलती नही, जल थल या आकाश।

जीवन निस दिन घट रहा, आया निकट विनाश।।

 

ग्लोबल वार्मिंग ला रही, सूखा बाढ़ अकाल।

अंधी दौड़ विकास की, हर कोई बेहाल।।

 

झुकी पत्तियाँ पेड़ की, करती क्रंदन आज

हरियाली गायब हुई, चिंतित नही समाज।

 

धुँआ उड़ाती गाडियाँ, फैलाती हैं शोर

जहर उगलती चिमनियाँ, नही किसी का जोर।।

 

घटे पर्त ओजोन की, बढ़ता जाता ताप।

त्राहि त्राहि मानव करे, प्रगति बनी अभिशाप।।

 

नाभिकीय हथियार से, जन जीवन है त्रस्त।

हैरानी इस बात की, फिर भी मानव मस्त

 

रसायन के प्रकोप से, दूषित हुई जमीन।

धरती बंजर हो रही, मनुज स्वार्थ में लीन।।

 

विभिन्न जीव जन्तु भी, पर्यावरण के अंग।

दूषित वातावरण से, हुए सभी बेरंग।।

 

गौरैया गायब हुई, दिखे नही अब चील

पत्थर के जंगल दिखें, लुप्त हो गयी झील।।

 

लिये पॉलिथिन हाथ में, घूम रहे श्रीमान।

यत्र तत्र बिखरा दिए, किसको कहें सुजान।।

 

ईश्वर ने हमको दिए, नदियाँ पर्वत झील।

अनुचित दोहन से गया, मानव सबको लील।।

 

कंक्रीट के नगर बने, खत्म हो रहे गाँव

राही को सपना हुआ, अब बरगद का छाँव।।

 

कुम्भकरण के नीद में, सोयें क्यों दिन रात।

देख अभी कुछ सोचिये, बिन मौसम बरसात।।

 

आज सभी संकल्प ले, नही असम्भव काम।

नाथ प्रदूषण अब मिटे, हो सबको आराम।।

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18. आदरणीय मुनीश तन्हा जी

विषय आधारित प्रस्तुति

चीख पुकारें देखो सारे

क्या इसका सल्यूशन है

मिट्टी धुआं कचरा फैला

हर सू अब पलयूशन है

बर्गर टिक्की टेस्ट करते

कागज़ कितने वेस्ट करते

आधुनिकता का रोना रोते

कैसी ये सिचुएशन है

मोबाइल पे टाक करेंगे

जीन पहन के वाक् करेंगे

मम्मी पापा हो गये नौकर

पढ़ते रोज़ ट्यूशन है

सडकों पर है कचरा फैला

निकलो घर से लेकर थैला

अपने कल को आज संवारो

ये सच्चा रेवल्युशन है

गंदगी मल का जो है कचरा

सबसे ज्यादा इसका खतरा

बन के माली इसे दबाओ

क्या इसमें कन्फ्यूजन है

देश हमारा कितना प्यारा

सबकी आँखों का है तारा

घर बाहर की करो सफाई

मौसम में डिफ्यूसन है

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

19.आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

ग़ज़ल

=======================================

दुशमने जांं बना है पृदूषण।

हर तरफ छा गया है पृदूषण।

 

और उलफत बढाओ आपस में

नफरतों से बढा है पृदूषण।

 

बीडी सिगरेट मत पियो यारो

जिसम में पल रहा है पृदूषण।

 

आलमे इशक में सुना है यह

बे वफाई दगा है पृदूषण।

 

खैर हो या खुदा सियासत की

इस में भी जा घुसा है पृदूषण।

 

यूं हवाऐं हुई न जहरीली

वाहनों से हुआ है पृदूषण।

 

किस को तसदीक है खबर इसकी

मौत का रासता है पृदूषण ।

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

20. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

गीत

======================================

बढ़ा प्रदूषण-तडक भड़क का

 

भौतिकता की चमक बढ़ी है, नैतिकता बेजार

बढ़ा प्रदूषण-तडक भड़क का, देख रहा संसार |

 

धन लालच में लिप्त सभी है, महँगाई की मार

दो नम्बर की करें कमाई, जेब भरे हर बार |

बेच रहे सब नकली चीजें, करे स्वास्थ पर मार

बढ़ा प्रदूषण तडक-भड़क का,- - - - -

 

राजनीति में फ़ैल रहा है, नोटों का व्यापार ,

वोट खरीदतें पैसे देकर, बढ़ता भ्रष्टाचार |

नैतिकता का बाते करते, झूठों का व्यापार

बढ़ा प्रदूषण तडक-भड़क का, ------- - -

 

विद्यालय में नहीं पढातें, सदाचार सोपान

कैसे फिर बन सकता कोई, ग्यानी गुणी महान |

पतन रोकना होगा नैतिक, हो शिक्षा से प्यार

बढ़ा प्रदूषण-तडक भड़क का, - - - - - --

 

फँसा रहे लालच देकर ये, करें दुधारी मार |

व्यापारी की कठपुतली हो, जब कोई सरकार

ऊपर से नीचे तक फैला, जग में भ्रष्टाचार

बढ़ा प्रदूषण-तडक भड़क का, - - - - -

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

21. आदरणीया नयना(आरती)कानिटकर जी

विषय आधारित प्रस्तुति

===================================

अल्हड हवा बहती थी,

घूमती वन उप वन

हो गई कलुषित जबसे,

नहीं आया  है बसंत

कर दिया मुश्किल प्रदूषण ने

लोगो का अब जीना

कीमती हो रहा धरा पे

 अब स्वच्छ जल का पीना

घट रही है दिन पर दिन

लोगो की खुशहाली

संकट से है  घिर गई

धरती की हरियाली

अंत संसार का निकट

सुख गई है नदियाँ

दूषित है वातावरण

कैसे बचे चिड़िया

कट रहे है वृक्ष चहूँ ओर

उजड गये है वन

प्रलय की ओर ले जा रहा

बढ़ता ये पर्यावरण

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

22.आदरणीय इंद्र विद्या वाचस्पति तिवारी जी

अतुकांत

=========================================

सोच में है प्रदूषण

कहूं प्रदूषण पर मैं कविता

उसके बारे में मैं रहा सोच

ऐसी है यह स्थिति की

हम सोचने की स्थिति में

भी नहीं हैं

कि क्या प्रदूषण के प्रति

हम गम्भीर हैं।

प्रदूषण शब्द है तो बहुत आकर्षक

उसके प्रचार में सरकारी तंत्र भी काफी

प्रयास कर रहा है।

जगह -जगह प्रशासनिक कर्मी लगे हैं

प्रदूषण हटाने के लिए जागरूक करने में

जनता का ध्यान इधर कम ही जाता हैं

क्योंकि जब बात होती है सामान खरीदने की

तो वह भूल जाती है सरकारी सिखावनों को

दुकानदार से मांग की जाती है प्लास्टिक थैलियों की

चाहे उस पर प्रतिबंध ही क्यों न लगा हो

दुकानदार भी विवश है अपना माल बेचने को

वह देता है प्लास्टिक की थैली में सामान

जनता लाती है खुशी-खुशी अपना सामान

सरकारी कर्मचारी भी इस बात को देखते है

हैरान होकर नहीं

जैसे हो यह रोजमर्रा की बात

जब हम प्रदूषण के बारे में विचार करते हैं

गंगा नदी का ध्यान ही हमारे जेहन में आता है

गंगा से भी जरूरी है हमारे आस-पास के वातावरण

का प्रदूषण जिसे हम आप ही

बढाते हैं

इसके प्रति जागरूक होने की

जरूरत है।

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

23. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी

अतुकांत

======================================

सुई में धागा डालना, निकालना!

धरा पर सृजन, फिर धता दिखाना!

सुई चुभोना विज्ञान की,

या फिर सुई से टांके लगाना

करनी पर अपनी पछताना!

माँ-बाप की उँगली पकड़कर

उठना, चलना और दौड़ना!

माँ-बाप की ही माफ़िक़ फिर

पर्यावरण को

तरसाना और तड़पाना!

आधुनिकता की चकाचौंध से,

भौतिकता की अंधाधुँध में,

प्रकृति माँ का दिल, छाती

छलनी कर

विकसित होने पर इतराना!

अपने स्वार्थी 'ज़ोन' में रहकर,

'ओज़ोन परत' को घायल कर

प्रदूषित मन से प्रदूषण करके

दोहन और शोषण करना!

भाषण-प्रवचन बहुत हुए अब,

वृक्षों से बस धरा श्रंगार कर

सदकर्मों से तुम जनकल्याण करना!

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

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ओबीओ महाउत्सव-73/'प्रदूषण'- के सफल आयोजन, संचालन व त्वरित संकलन प्रस्तुति के लिए तहे दिल से बहुत बहुत मुबारकबाद और आभार मोहतरम जनाब मंच संचालक, मिथिलेश वामनकर साहब। सभी सम्मानित रचनाकारों की बेहतरीन रचनाओं के साथ मेरी नवीन रचना को संकलन में स्थापित करने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद। सभी सहभागी रचनाकारों को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। मेरी रचना पर त्वरित प्रतिक्रिया कर हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी, सतविंद्र कुमार राणा जी, सत्यनारायण सिंह जी, समर कबीर साहब व मंच संचालक महोदय।

आदरणीय उस्मानी जी, हार्दिक धन्यवाद आपका.

आदरणीय मंच संचालक महोदय,मिथिलेश वामनकर जी ओ बी ओ लाइव महा उत्सव अंक ७३ के आयोजन एवं सफल संचलन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें तथा आयोजन में सम्मिलित समस्त रचनाओं को संकलित कर मंच पटल पर उन्हें त्वरित प्रस्तुत करने के लिए आपका मन से आभार व्यक्त करता हूँ. आयोजन कालावधी में आदरणीय प्रधान संपादक योगराज जी तथा आ.राजेश कुमार जी के अनमोल मार्गदर्शन से मै लाभान्वित हुआ हूँ अतएव मैं उनका भी दिल से आभार व्यक्त करता हूँ. सादर

हार्दिक धन्यवाद आपका 

  आदरणीय मिथिलेश जी , सफल आयोजन व् त्वरित संकलन के लिए हार्दिक बधाई व् आभार  

हार्दिक धन्यवाद आपका 

श्रद्धेय श्री मिथिलेश वामनकर जी सादर नमन! ओ बी ओ लाईव महा उत्सव अंक-73 के सफल आयोजन एवं त्वरित संकलन के लिए हृदयतल से बहुत-बहुत बधाई स्वीकार करें । आपसे विनम्र निवेदन है कि मेरी दोहा रचना में निम्न प्रकार से बदलाव करने की कृपा करें:-
दोहा -1
धूएं की भरमार
के स्थान पर
धूँधर की भरमार।
जन समझाए न समझे
के स्थान पर :-
जनता बेपरवाह है
दोहा -5
जहरीली ये पवन है
के स्थान पर :-
जहरीली है ये हवा
दोहा-7
किसान अरु सरकार
के स्थान पर :-
जनता अरु सरकार।
कृपया उपरोक्त प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें । सादर ।

यथा निवेदित तथा संशोधित 

मोहतरम जनाब मिथिलेश साहिब ,ओ बी ओ लाइव महाउतसव अंक 73 के तवरित संकलन तथा कामयाब सं चालन के लिए मुबारकबाद कुबूल फरमाएं

हार्दिक धन्यवाद आपका 

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