आदरणीय साथिओ,
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लम्बा सफ़र (लघुकथा) :
ट्रेन में अपनी आरक्षित सीटों पर बैठने के बाद सभी दोस्तों ने दो-दो हज़ार रुपये चुने गए अपने 'बैंक मैनेजर' साथी को सौंप दिए और अच्छी लॉज में ठहरने व बेहतरीन मनचाही व्यवस्थाओं के प्रस्ताव रखने लगे। फिर कुछ साथी अपनी कसी हुई पोषाकों में से स्मार्ट फोन निकाल कर इन्टरनेट की आभासी दुनिया में व्यस्त हो गए । कुछ सेल्फी (फोटो) लेने में व्यस्त हो गए। कुछ अपने बैगों में से प्रतियोगिता परीक्षाओं की क़िताबें निकाल कर पन्ने पलटने लगे। किन्तु उनके कुछ साथी मस्ती का माहौल बनाने की कोशिश करने लगे। सफ़र बहुत लम्बा था। ये सभी स्नातकोत्तर उपाधिधारी युवक एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए पहली बार लखनऊ जा रहे थे। तभी एक युवक ने कोहनी मारते हुए अपने दोस्त से कहा"
"अबे, उधर तो देख, क्या नज़ारे हैं!"
"श..श..श.. चुप रह, अभी कुछ करता हूँ!" कुछ संकेत कर वह दोस्त अपने दो साथियों से खुसुर-पुसुर करने लगा।
एक थकी-हारी सी युवती मासूम बच्ची की तरह पास की ही एक सीट (बर्थ) पर बेसुध सो रही थी। दो युवकों ने उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों को थोड़ा-थोड़ा सरकाते हुए अपने कैमरों से फोटो लिए। एक-दो ने उसे छूने की कोशिश भी की। क़िताब पढ़ रहे एक साथी ने आपत्ति की।
"लल्लू, या तो तू चुप रह कर कुछ सीख ले हमसे, या सीट बदलवा ले अपनी!" एक युवक बोला।
फिर दूसरे ने सिगरेट का कश लेते हुए कहा- "लगता है कि पहली बार निकले हो ऐसी टोली के साथ! जितना मिलता जाये, मज़े लेते चलो! लम्बा सफ़र है!"
"लम्बा सफ़र! करिअर का, बेरोज़गारी का या मौज़-मस्ती का!" उस युवक ने अपनी क़िताब बंद करते हुए कहा:
"लल्लूू, उल्लू ख़ुद को बना लो या माँ-बाप को!"
.
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदरणीय उस्मानी जी, प्रदत्त विषय पर एक बढ़िया कथानक बुना है आपने. लघुकथा भी बढ़िया है और प्रभावित भी कर रही है लेकिन जाने क्यों, तनिक अधूरापन लग रहा है. बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई. सादर
जल्दीबाजी में लिखी गयी रचना है शायद...बैगों शब्द ठीक है क्या?? रचना को सकारात्मक दिशा में भी लिया जा सकता था... अंतिम पंक्ति कोई अच्छा सन्देश भी नहीं दे रही... अगर वहीँ कोई दूसरा व्यक्ति मिले और उन्हें उसी ट्रेन का एक विडियो दिखाए...जिसमें उनकी बहन हो...तब थोड़ी फ़िल्मी ज़रूर हो जायेगी...लेकिन आप जैसे पुराने सधे हुए लघुकथाकार से मैं यह उम्मीद तो रख ही सकता हूँ कि इस रचना को अपने शिल्प द्वारा बेस्ट बना देंगे...
बहुत ही अर्थगर्भित लघुकथा कही है भाई उस्मानी जी, माँ बाप के पैसे यूँ मौज-मस्ती में उड़ाने वालों की आजकल कोई कमी नहीं हैI जो अपने इस तरह की हरकतों से अपने उन मासूम माँ बाप को धोखा दे रहे होते हैं जो अपनी गाढ़ी कमाई खुद का पेट काट कर बच्चों के भविष्य के लिए खर्च करते हैंI लेकिन वास्तव में वे इस बात से नावाकिफ हैं कि वे धोखा स्वयं को दे रहे हैंI इस सार्थक सन्देश देती लघुकथा पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI कुछ बातों की तरफ आपका ध्यानाकर्षण चाहूँगा:
1. //ट्रेन में अपनी आरक्षित सीटों पर बैठने के बाद// यहाँ आरक्षित या अनारक्षित से कोई फर्म पड़ता था क्या?
2. //चुने गए अपने 'बैंक मैनेजर' साथी// से ऐसा प्रतीत होता है कि एक आदमी है जोकि बैंक मेनेजर चुना जा चुका हैI इसकी जगह कोई और शब्द इस्तेमाल करना बेहतर रहेगाI
3. जब आप किसी शब्द के अर्थ ब्रेकेट में लिखते हैं तो ऐसे लगता है कि या तो आप स्वयं उसके अर्थ को लेकर स्पष्ट नहीं या फिर आप पढने वाले को इतना सक्षम नहीं समझ रहे कि वह उस शब्द के मायने नहीं जानताI इस ओर भी ध्यान देंI
करियर और पढाई के बहाने हमारे युवा क्या क्या कर रहे हैं ,अपने माँ बाप को अँधेरे में रखकर .. आपकी कथा का मर्म विशायानूकूल है जिसके लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है आपको आदरणीय शहजाद उस्मानी जी ... शिल्प में कसावट से सन्देश और भी प्रभावशाली बन सकता था .
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