आदरणीय साथिओ,
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मुह्तरम जनाब सुधीर साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुंदर लघु कथा हुई है जिस
के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---
आह
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"अरे रमुआ, इधर तो आ। ये बता बाहर इतना शोर क्यों हो रहा है।"
"मालिक, बहुरानी रसोई के लिए एक नयी मशीन लायी हैं जिसमे सारे बर्तन एक साथ धुल जाते हैं। कम्पनी से आदमी आया है लगाने।"
"वाह कपड़ों के लिए मशीन, खाना बनाने के लिए मशीन, बर्तन धोने के लिए मशीन, साफ़ सफाई के लिए मशीन। पूरे घर में मशीन ही मशीन !"
"हाँ मालिक। आजकल सभी के घर मशीनों से ही काम होने लगा है। हमारी बहुरानी भी ले आयीं। महरियों की छुट्टी हो गयी इस सोसाइटी से।"
"रमुआ, ये कोई सोसायटी है? मुझे तो श्मशान लगता है! महरियों और धोबियों के आने से कम से कम थोड़ी बहुत चहलपहल तो होती थी। उनलोगों से बाहर की दुनियाँ का भी कुछ हालचाल पता चल जाता था।"
"हाँ मालिक, सही कह रहे हैं। आप तो बिस्तर पर ही पड़े रहते हैं और मैं भी आपके साथ इसी कमरे में।" कहते कहते झेंप गया रमुआ।
"इनसे कहो कोई ऐसी मशीन भी ले आये जिसमे इंसानों को डाल कर भी धोया जा सके ताकि ये जो अकेलापन और उम्मीदें हैं न, वो भी पूरी तरह धुल जाए। कम्बख़्त बुढापे में तकलीफ बहुत देते हैं।"
करवट बदलते हुए एक हल्की सी आह निकल गयी उनके मुँह से।
"सुन, जरा इधर आकर पानी तो पिला मुझे, खिड़की से क्या झाँक रहा है बाहर?"
"कुछ नही बड़े मालिक, देख रहा हूँ सूरज कैसे धीरे धीरे ढलता जा रहा है।"
"हाँ रमुआ, और शायद हम भी"
इस बार बड़े मालिक की आह कुछ ज्यादा ही लम्बी थी।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीया माला जी, वक़्त बदल रहा है, हालात बदल रहे हैं, मशीनीकरण ने व्यक्ति को सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं तो कुछ श्रमिकों से उनकी आजीविका भी छीनी है. मशीनी एकान्तता ने सामाजिकता को भी प्रभावित किया है. बुजुर्गों को एकांतवास हेतु विवश किया है. एक बुजुर्ग के कथन से प्रदत्त विषय को सार्थकता देता बढ़िया कथानक बुना है आपने. इस सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई. सादर
आभार आपका
मशीनी युग में मानव से अधिक महत्व मशीनों को दिया जा रहा है और यह मानव द्वारा ही किया जा रहा है। एक महत्वपूर्ण प्रश्न को आपने एक खूबसूरत जामा पहनाया है आ. माला दीदी ! बधाई स्वीकारें।
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