आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय आशुतोष् मिश्राजी, प्रणाम. आप की प्रतिक्रिया पा कर अच्छा लगा. इस से लघुकथा कैसी लिखी गई है. इस की जानकारी मिली. कृपया, भविष्य में इसी तरह अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराते रहे. तहेदिल से आप का आभार आदरणीय.
आदरणीय भाई Sunil Verma ji प्रणाम. अब देखिए- कुछ परिमार्जन हुआ है या नहीं.
लघुकथा – परम्परा
''यह असंभव है. हमारे यहां ऐसा नही होता है,'' उस के ताऊजी ने जम कर विरोध किया.
'' तुम्हारी मां और तुम जो चाहे जो करो, हमें कोई ऐतराज नहीं है. मगर, यह नया रिवाज यहाँ नहीं चल सकता है,'' काका ने भी अपना आदेश सुना दिया.
'' क्यों नहीं चला सकता है. जब हमारा समाज में ‘कन्यादान’ हो सकता है तो ‘पुत्रदान’ क्यों नहीं हो सकता हैं ?''
'' यह हमारी परंपरा के खिलाफ है. हम ऐसा नहीं होने देंगे.'' ताऊजी ने काका के सुर में सुर मिलाए ताकि विधवा के मरने के बाद सारी जायदाद उन की हो सके.
'' यह मेरी मां के जीवन सवाल है. हम जैसा चाहे वैसा कर सकती हैं .'' रीना ने प्रतिरोध किया तो ताऊजी दबंगाई से बोले, '' कभी अपनी मां से पूछा है. वह ऐसा करना चाहती है या नहीं ?'' जैसे उन की बात खत्म हुई कि मां आ गर्इ्, '' तुम्हारे ताऊजी ठीक कह रहे हैं. मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगी.''
'' हां मां ! मुझे पता है. आप ऐसा क्यों कह रही हो, क्यों कि आप अपनी होने वाली दुर्दशा नहीं देख सकती है. मगर मैं देख रही हूँ इसलिए आप से कह रही है कि आप यह शादी कर ले.''
फिर माँ को चुपचाप देख कर रीना बोली , '' मां ! आप जवानी में नानाजी के डर से अपने प्रेम का इजहार नहीं कर सकी. मगर, अब जब पापा ही नहीं रहे हैं तब आप अपने प्रेम को इजहार करने से क्यों डर रही है ?''
'' समाज क्या कहेगा ? यह तो सोचो बेटी ?''मां ने बड़ी मुश्किल से इतना ही कहा.
'' मां ! हमें उस की परवाह करना चाहिए जो हमारी परवाह करता है. फिर हमारे नए पापा, खुद शादी कर की इस नई परंपरा ‘पुत्रदान’ को निभा कर हमारे घर आने को तैयार है.''
यह सुन कर मां धम्म से जमीन पर बैठ गर्इ् और धीरे से बोली,'' बेटी ! मुझ में धारा के विपरीत बहने की ताकत न पहले थी और न अब है.''
यह सुन कर रीना ने माँ को हौसला बढ़ाना चाहा , “ माँ ! किसी को तो परम्परा बदलने के लिए हिम्मत व जोश दिखाना ही पड़ेगा ना .” और माँ उन की बात को सुन कर विचारमग्न हो गई कि क्या निर्णय लूं ?
विधवा विवाह /माँ के विवाह ....को लेकर बहुत ऊँचा सार्थक सन्देश देने में लघु कथा कामयाब है किन्तु संपत्ति इसका कारण बनी ये बात समझ से परे है विधवा के मरने के पश्चात् संपत्ति पर तो कानूनन औलाद का ही हक बनता है है चाहे बच्चे कुंआरे हो या नहीं लड़का हो या लडकियाँ | संपत्ति की बजाय कोई और कारण जैसे माँ के एकाकीपन को मुद्दा बनाया होता तो बात अलग होती बहरहाल बहुत बहुत बधाई आद० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
आदरणीय Rajesh Kumari ji प्रणाम. अब देखिए- कुछ परिमार्जन हुआ है या नहीं.
लघुकथा – परम्परा
''यह असंभव है. हमारे यहां ऐसा नही होता है,'' उस के ताऊजी ने जम कर विरोध किया.
'' तुम्हारी मां और तुम जो चाहे जो करो, हमें कोई ऐतराज नहीं है. मगर, यह नया रिवाज यहाँ नहीं चल सकता है,'' काका ने भी अपना आदेश सुना दिया.
'' क्यों नहीं चला सकता है. जब हमारा समाज में ‘कन्यादान’ हो सकता है तो ‘पुत्रदान’ क्यों नहीं हो सकता हैं ?''
'' यह हमारी परंपरा के खिलाफ है. हम ऐसा नहीं होने देंगे.'' ताऊजी ने काका के सुर में सुर मिलाए ताकि विधवा के मरने के बाद सारी जायदाद उन की हो सके.
'' यह मेरी मां के जीवन सवाल है. हम जैसा चाहे वैसा कर सकती हैं .'' रीना ने प्रतिरोध किया तो ताऊजी दबंगाई से बोले, '' कभी अपनी मां से पूछा है. वह ऐसा करना चाहती है या नहीं ?'' जैसे उन की बात खत्म हुई कि मां आ गर्इ्, '' तुम्हारे ताऊजी ठीक कह रहे हैं. मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगी.''
'' हां मां ! मुझे पता है. आप ऐसा क्यों कह रही हो, क्यों कि आप अपनी होने वाली दुर्दशा नहीं देख सकती है. मगर मैं देख रही हूँ इसलिए आप से कह रही है कि आप यह शादी कर ले.''
फिर माँ को चुपचाप देख कर रीना बोली , '' मां ! आप जवानी में नानाजी के डर से अपने प्रेम का इजहार नहीं कर सकी. मगर, अब जब पापा ही नहीं रहे हैं तब आप अपने प्रेम को इजहार करने से क्यों डर रही है ?''
'' समाज क्या कहेगा ? यह तो सोचो बेटी ?''मां ने बड़ी मुश्किल से इतना ही कहा.
'' मां ! हमें उस की परवाह करना चाहिए जो हमारी परवाह करता है. फिर हमारे नए पापा, खुद शादी कर की इस नई परंपरा ‘पुत्रदान’ को निभा कर हमारे घर आने को तैयार है.''
यह सुन कर मां धम्म से जमीन पर बैठ गर्इ् और धीरे से बोली,'' बेटी ! मुझ में धारा के विपरीत बहने की ताकत न पहले थी और न अब है.''
यह सुन कर रीना ने माँ को हौसला बढ़ाना चाहा , “ माँ ! किसी को तो परम्परा बदलने के लिए हिम्मत व जोश दिखाना ही पड़ेगा ना .” और माँ उन की बात को सुन कर विचारमग्न हो गई कि क्या निर्णय लूं ?
आद० योगराज जी के सुझाव अनुसार संशोधन के पश्चात् लघु कथा और चुस्त और सधी हुई लग रही है पुनः बधाई लीजिये संकलन के वक़्त इसी से ही प्रतिस्थापित करवा लीजियेगा
आदरणीय राजेश कुमारीजी आप का कहना सही है. आदरणीय योगराजजी के कथनानुसार लघुकथा में संशोधन करने से इस का प्रभाव वाकई बढ़ गया है. शुक्रिया आदरणीय योगराज भाई साहब. आप के अमूल्य सुझाव के लिए आभारण.
//''यह असंभव है. हमारे यहां ऐसा नही होता है,'' उस के बड़े पापा ने जम कर विरोध किया.//
लघुकथा यदि यहाँ से प्रारंभ की जाती तो और चुस्त हो जातीI
"बड़े पापा" का क्या अर्थ हुआ, यह भी समझ नहीं आयाI मामूली सी मंजाई के बाद कथा और निखरेगी बहरहाल कथा के भाव उत्तम और सार्थक एवं विषयानुकूल हैं, जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
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