आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया अपराजिता जी, जबरदस्त लघुकथा लिखी है आपने. कथानक भी खूब बुना है. इस सफल लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई. आदरणीय योगराज सर के मार्गदर्शन अनुसार परिमार्जन से 'एक अद्भुत लघुकथा' निकल कर आएगी. सादर
हिम्मते मरदे मददे खुदा" तूफ़ान से निपटने का साहस बटोर रमुआ की बेटी ने जो कार्य किया वह इस कहानी को सफल बना रहा है | सुंदर लघु कथा बनी है अपराजिता जी
बहुत बढ़िया और प्रभावी रचना विषय पर, बधाई आपको
(धारा के विपरीत विषयान्तर्गत)
नूरजहाँ--
"क्या हुआ? आज़ नूरजहाँ बेनूर क्यूँ है? मनोज़ ने आदतन अपनी भाभी से चुहल की। पर हर बार के उलट भाभी ने आज़ कोई करारा ज़वाब नहीं दिया। बस उनकी मोटी-मोटी आँखें छलछला आईं। "हाँ आती हूँ...' वे एकायक बोलीं जैसे उन्हें किसी ने पुकारा हो, और आगे बढ़ गईं। मनोज़ ने उन्हें इस तरह कतराते हुए पहली बार देखा था, नहीं तो भाभी उसकी चुहल का जवाब देने से आज़ तक नहीं चूकीं।
छोटी बहन की शादी के कारण घर में जश्न का माहौल था। चारों तरफ़ हँसी-खिलखिलाहट बिखरी हुई थी। भाभी भी पूरे उत्साह से तैयारियो को मुक्कमल अंजाम पर पहुँचा रही थीं। अपनें इन्ही गुणों के बलबूते उन्होंने ख़ुद को अच्छी पत्नी, एक क़ाबिल बहू और अपने ननद-देवरों की पसंदीदा भाभी के रूप में साबित किया था। पूरे घर में रौशनी सी बिखरी रहती थी ,उनके होने से। शायद इसीलिए मनोज़ उन्हें नूरजहाँ पुकारता है।
बस जब मनोज़ उनसे ऊंट-पटाँग चुहल करता तो वे खिसिया जातीं और माक़ूल ज़वाब से उसकी बखिया उधेड़ देतीं। पर मनोज़.. अपनी आदत से बाज़ न आता।
आज़ 'पहरावन' की रस्म निभाने का दिन था। मामा -मामी माँ के लिये बनारसी साड़ी, और बाबा के लिए उनकी पसन्द का भागलपुरी सिल्क का कपड़ा लाए थे। माँ के लिए तो उनके भाई-भावज की आमद ही सब कुछ थी। पर रस्म निभाने के बाद वे वहां बैठी महिलाओं को उनके द्वारा लाई गई बनारसी साड़ी को इतराते हुए दिखाना नहीं भूलीं थीं। और बाबू जी! उन्हें कपड़े का रंग कम पसन्द था,पर माँ के आगे वे कुछ कह नहीं पा रहे थे। अनमने से अपनी आरामकुर्सी पर चाय सुड़कते वे कुछ बड़बड़ाते जा रहे थे।
भाभी के इस रवैये से मनोज़ परेशान हो उठा। इस समय माँ से कुछ पूछना उसे उचित नहीं लगा। वह बहन के पास जा पहुंचा। " बिंदिया ! यह नूरजहाँ आज़ कुछ उदास क्यों हैं?" बाहर आँगन में रिश्तेदारों को चाय परोसती भाभी के उदास चेहरे को टटोलते हुए उसने अलमारी में कुछ तलाशती हुई अपनी बहन से सवाल किया। " भाई ! आज़ 'पहरावन' की रस्म का दिन है। आज के दिन हर बहन यह चाहती है कि उसका भाई उसके ससुराल में मौजूद हो ! पर भाभी का तो कोई भाई ही नहीं..." कहते हुए बिंदिया जैसे ही पलटी मनोज़ वहाँ नहीं था।
" बहू ! तुम्हे 'पहरावन' की रस्म नहीं पूरी करनीं! चलो जल्दी करो।" बूढ़ी बुआ ने कपड़े तह करती भाभी के हाथ से कपड़े छुड़वाये और लगभग घसीटते हुए उन्हें मंडप की ओर ले चलीं। "पर बुआ...आप तो जानती है न कि मेरा कोई भाई..." बोलते हुए भाभी का गला रुंध आया।
बुआ मुस्कुराईं और ऊँगली से मंडप की ओर इशारा कर दिया। "मैं हूँ न!" कहता हुआ मनोज़ हाथ में साड़ियों के कई पैकेट समेटे मंडप के नीचे खड़ा मुस्कुरा रहा था। भाभी की आँखों की कोरें छलक उठीं। सहमति में सिर हिलाकर आँखों की कोरे पोंछती हुई वे मंडप में आ खड़ी हुईं।
" रस्म अदायगी के लिए भाभी के सिर पर साड़ी रखते हुए मनोज़ उनके कान में फुसफुसाया " भइया का भाई तो मैं जन्म से ही हूँ, तो सोचा आपका भाई भी बन जाऊं। जस्ट फॉर चेन्ज ।" भाभी रुंधे गले से कुछ कह न पाई बस स्नेह से उन्होंने मनोज का सिर सहला दिया। "पर सिर्फ आज़ भर के लिए ही...कल से फ़िर आप मेरी नूरजहाँ और मैं आपका..." मनोज़ अपनी शरारतें फ़िर शुरू कर पाता इससे पहले भाभी ने वही साड़ी का पैकेट पकड़ा और मनोज़ की पीठ पर हौले से दे मारा। घर का जर्रा-जर्रा भाभी-देवर की खिलखिलाहट के नूर से एक बार फ़िर से जगमगा उठा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
नूर जहाँ .....वाह्ह्ह्ह पहले तो शीर्षक के लिए ही बधाई लीजिये .बहुत सुंदर सार्थक लघु कथा हुई है जहाँ एक और समाज देवर भाभी की चुहलपन का भी गलत अर्थ लगा लेते हैं वहीँ आपकी ये लघु कथा जिसका नायक एक साहसिक पावन कर्म को अंजाम देता है देवर भी भाई ऐसा होता है इस बात को साबित करता है यही बात इस लघु कथा को स्पेशल बनाती है बहुत अच्छी लगी ये लघु कथा आपको बहुत बहुत बधाई आद० सुधीर द्विवेदी जी
शुक्रिया आ. राजेश कुमारी जी
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