आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय - दोनों कथाये बढ़िया हैं . आपको बधाई
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
भाई मुज़फ्फर इकबाल सिद्दीक़ी जी, पोस्ट की हुई रचनाओं की पंकचुएशन इतनी पूअर है कि संवाद आपस में इतनी बुरी तरह गड्ड-मड्ड हो गए हैं कि कुछ समझ नहीं आ रहाI
आ. मैं एक बार फिर ध्यान से पढ़ता हूँ। मार्गदर्शन हेतु धन्यवाद।
ज़रा देखकर बताएं भाईजान सम्प्रेष्ण कुछ बेहतर हुआ या नहीं?
(1). फर्ज"
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”देख रुचि! अंश बहुत अच्छा लड़का है। घर के लोग भी कुलीन हैं और फिर बैंगलोर में ही है। शादी के बाद तुझे जॉब भी स्विच नहीं करना पड़ेगा। तेरे पिताजी ने तो पंडित जी से कुंडली भी मिलवा ली है। अब तू ना मत करना। इन्हें भी तेरी बहुत चिंता है। एक ही साल तो रह गया है रिटायर होने में।“
“नहीं माँ! मैं कितनी बार बोल चुकीं हूँ। अभी मुझे शादी नहीं करनी। जब करनी होगी तो बता दूँगी।"
"क्यों नहीं करनी? आखिर , तेरे हाथ पीले करना हमारा फर्ज है। धीरे-धीरे समय भी गुज़रता जा रहा है। हर काम का एक समय नियत है। समय रहते काम हो, तभी अच्छा लगता है। यदि तेरे दिल में कोई और बात है तो खुल कर बोल न। हम तेरी हर खुशी में राजी हैं। मैं मना लूँगी तेरे पिताजी को, तू बोल तो सही।"
“नहीं माँ! ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है। तू मुझे गलत समझ रही है।"
“तो फिर सही क्या है?”
“अरे माँ! अब तू नहीं मानती तो सुन! आप लोगों ने हम दोनों बहनों को बड़े लाड़-दुलार से पाला-पोसा। हमारी शिक्षा दीक्षा से लेकर हमारे शौक, पसंद-नापसंद में कभी कोई कमी नहीं आने दी। इसी कारण पिताजी ने अपने मकान बनाने तक के बारे में कभी नहीं सोचा। अब पिताजी के रिटायर होने पर ये क्वार्टर खाली करना ही पड़ेगा न?"
”हाँ!”
“फिर श्रेया की पढ़ाई भी शेष है। अब तू ही बता. मेरा भी कुछ फर्ज बनता है कि नहीं?"
“----“
“माँ मैंने तो प्रण किया है कि जब तक हम अपने घर में नहीं पहुँच जाएँगे, तब तक मैं शादी नहीं करूँगी।"
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(2). सृष्टि
"गुड मॉर्निंग डार्लिंग।“
"मॉर्निंग सूरज! आजकल तुम्हारा मॉर्निंग वॉक भी कुछ ज़्यादा ही लम्बा होता जा रहा है। वॉक तो अपनी जगह है, फिर ये कभी शुक्ला जी तो कभी वर्मा जी के यहाँ टी पार्टी? और मोबाइल भी नहीं ले जाते। कभी ,कुछ लौटते समय मंगाना हो तो, किस से कहूँ?"
"आज तो मैडम कुछ ज़्यादा ही नाराज़ लग रही हैं। ये तुम्हारी बगीचे की चिड़ियाँ भी लगता है तुम्हारा गुस्सा भांप चुकीं हैं। बड़ी खामोश बैठीं हैं। नहीं तो सुबह से ही इस डाली से उस डाली पर चह -चहाती फिरतीं हैं। और ये गुलाब का फूल कितना शानदार खिला है, भई मान गए। बहुत मेहनत करती हो इन सब पर। तभी तो सुबह- सुबह यहाँ बैठ कर काफी पीने का आनन्द अलग ही होता है।“
"अच्छा, अब जल्दी बताओ क्या हुआ है ?"
"तुम जान कर भी क्या करोगे सूरज? तुम्हें मेरी परवाह तो है नहींI आज काफी बनाने के लिए जैसे ही फ्रिज से दूध निकालना चाहा, पतीली हाथ से फिसल गई। सारा दूध किचिन में फैल गया। एक तो मुझे रात भर नींद भी तो नहीं आती। सर वैसे ही भारी था। सोचा काफी पींने से तबीयत हलकी हो जाएगी। मेरा मूड ख़राब हो गया, तुम्हारा फोन भी यहीं पड़ा था। मैं दूध किस से मंगाती?”
"मैं अभी ला देता हूँ। "
“सृष्टि, मैं कुछ दिन से देख रहा हूँ तुम देर रात तक जागती रहती हो,कभी कैंडी क्रेश तो कभी फेसबुकI"
"क्या बताऊँ सूरज, ये सब तो, किसी तरह दिल को बहलाने के तरीके हैंI अंदर से एक बेचैनी है,एक खालीपन, तुम तो समझते हो न। मैं लाख चाह कर भी तुम्हें एक वारिस नही दे पाई। अब तो सारी आस भी टूट चुकी है।"
“सृष्टि मैं कितने बार कह चुका हूँ। भूल जाओ इन सब बातों को। मुझे नहीं चाहिए वारिस।मैं ने सदा तुम्हें चाहा है। तुम भूल गईं जब मैंने तुम्हें कालेज के गार्डन में प्रपोज़ किया था और तुम जैसे, बिना सुने ही चल दीं थीं। मैं रात भर यही सोचता रहा था - "काश ! तुम एक बार मेरी हो जाओ।"
“हाँ सूरज फिर एक बार कालेज से लौटते समय तुमने अपनी बाइक ,मेरी कार के सामने अड़ा दी थी। और कहा था कि या तो हाँ कर दो या.. मैं तुम्हारी ज़िद के आगे ....."
"फिर मुझे तुम मिल चुकी थीं। तुम ही मेरी सृष्टि हो।"
आ नीता जी आभार
दोनों कथाएँ बढ़िया है. बधाई आदरणीय मुज्जफर जी.
ओमप्रकाश जी बहुत बहुत शुक्रिया
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