आदरणीय साथिओ,
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आप मेरी एक पुकार पर आयोजन में तशरीफ़ लाए और साथिओं का उत्साहवर्धन किया, इसके लिए मैं आपका दिल से आभारी हूँ आ० प्रदीप नील भाई जीI
सादर धन्यवाद् आदरणीय
( 1 ) पत्थर दिल
पुत्रबघू के कहे शब्दों ने उन्हें इस कदर चोट पहुँचाई थी कि उनका मन स्वयं को घर लौटने के लिए तैयार नही कर पा रहा था। शाम ढलने लगी थी और वे काफी देर से इस पार्क में बैठे थे जहां अधिकतर वृद्ध लोगों का ही जमघट देखने में आता था। कुछ देर से उनकी नजरें सामने की एक बेंच पर लगी हुयी थी जहां दो वृद्ध आपस में अपने परिजनों की बातें कर रहे थे।
"केशू भाई, अब नही सहा जाता बच्चों का बेरुखा व्यवहार। कभी कभी मन करता है कि वृद्धाश्रम में ही चला जाऊं।"
"अरे सतबीर भाई तुम भी बच्चों की बातों को दिल से लगा लेते हो। मुझे देखो हर रोज 'बहू' कुछ न कुछ जला-कटा सुना ही देती है लेकिन मैंने कभी बुरा नही माना।"
"अब भाई तुम्हारे जैसा पत्थर दिल तो है नहीं अपना दिल।" कहते हुए सतबीर फीकी हँसी हँस दिया।
"हाँ भाई सतबीर!" दिल तो पत्थर का ही बना लिया है मैंने" अपनी बात कहते हुए केशू सहज ही गंभीर हो गया था। "....पर 'लिखने वाली' स्लेट के पत्थर जैसा। जिस पर लिखा हुआ सब कुछ अपने बच्चों की दिन में कही एक मीठी बात से ही साफ़ हो जाता है।अरे भाई हम भी तो बच्चों को गुस्से में न जाने कितना कुछ कह देते थे तो क्या वे घर छोड़ चले जाते थे।"
चाहे अनचाहे केशू की बातें उनके दिल को ठंडक दे रही थी पर मन अभी अशांत था। घर लौटने के निर्णय पर वे अभी पशोपश में ही थे कि सामने बहू पोते का हाथ थामें आ खड़ी हुयी।
"ओह 'थैंकस गॉड' आप यहाँ है! बाऊजी आप भी न.. मेरी बात पर बच्चों की तरह नाराज हो जाते है। पता है आप के बिना हमें घर कितना सूना लगता है।" चेहरे पर याचना, शिकायत और अपनत्व सभी झलक रहे थे।
"नहीं बहू नही, ऐसा कुछ भी तो नहीं। बस जरा हमउम्र लोगों के बीच वक़्त भूल गया था।" कहते हुए सहज ही, वे भी अपना दिल स्लेटी पत्थर का बना महसूस करने लगे थे।
( 2 ) संबंध
"अतीत मन का होता है तन का नहीं। डरो मत तान्या, इन अंधेरी गलियों से निकलने की कोशिश करो। यही कहा था न तुमने....." तान्या अपनी बात कहते हुए कुछ उदास हो गयी। "...और आज जब मैं इन अंधेरों से बाहर आना चाहती हूँ तो सब से पहले तुम ही मेरा साथ नही देना चाहते।"
छोटी उम्र से ही गलियों में, पान चबाती रंगीन कपड़ों वाली औरतों को देख वह चमकीले जीवन के सपने देखने लगी थी। 'रंगीन जीवन जीती है वे सब' माँ के बार बार ये बात दोहराने पर वह अक्सर खुद से कहा करती थी। "मैं भी यही सब करूंगी।" और फिर समय बीतने के साथ वह खुद ही एक ऐसे रास्ते पर आ खड़ी हुयी थी जहां कभी किसी काम के लिये 'न' नहीं बोला जाता था। ऐसे में वही तो पहला इंसान था जिसने उसके अहसासों को जगाया था।
"हां, मैंने कहा था।" वह शांत था। "लेकिन जिंदगी हमेशा दूसरों के सहारे नही जी जाती, हिम्मत करो और आगे बढ़ो।"
"मैं तुम्हारे साथ के बिना तो अपनी कल्पना भी नहीं कर सकती।"
"नहीं तान्या, हम दोनों के रास्ते बिलकुल अलग है। मेरी अच्छाई ने तुम्हें रास्ता दिखाया और तुम्हारे प्रेम ने मुझे मेरे परिवार का अर्थ समझाया। बस यही संबंध था हमारा।" वह अब गंभीर हो चुका था।
"लेकिन तुम्हारा बार बार मेरे पास आना और वह सब....।" तान्या उलझन में थी।
"सिर्फ एक जरूरत! हाँ तान्या, हमारे बीच सिर्फ तन और धन का रिश्ता था और..." अपनी बात पूरी कहता हुआ वह पलट चुका था। ".... और मुझे ख़ुशी है कि हम दोनों इससे आगे निकल अपने अस्तित्व को पाने की राह पर आ चुके है।
( दोनों रचनाएँ मौलिक व् अप्रकाशित)
वाह मेहता जी दूसरी कहानी के मनोविज्ञान ने तो स्तब्ध ही कर दिया . अच्छी प्रस्तुतियों के लिए बधाई .
भाई वीर मेहता जी, वाह! की कमाल के कथानक चुने हैं आपनेI "पत्थर दिल" कथा तो सीधे दिल में उतरती हैI दरअसल, एकल पैवार के फैशन ने संबंधों को एक नई ही परिभाषा दे दी हैI जहाँ बुज़र्गों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गईI न तो बुज़ुर्ग अपनी खोई गद्दी की सच्चाई को ही मानने को तैयार होते हैं और न ही बच्चे भूतपूर्व मुखिया के बर्चस्व को मानने के लिए तैयार होते हैंI बस यही समस्या की जड़ बन जाती हैI मज़े की बात ये है कि दोनों पक्षों का एक दूसरे के बगैर गुज़ारा भी नहींI इन्हीं बिन्दुओं को बहुत ही शिद्दत से उठाती इस लघुकथा पर हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
"सम्बन्ध" का कथानक प्रथम दृश्या बहुत ही जाना पहचाना लगता हैI लेकिन इसकी ट्रीटमेंट बहुत ही विलक्ष्ण तरीके से की गई हैI आप थोपे हुए आदर्शवाद से बचे रहेI आपने इसमें तथाकथित सार्थकता ठूंसने की कोशिश नहीं कीI वरना कोई मेरे जैसा अनाड़ी लघुकथाकार सारी दुनिया से लोहा लेकर तान्या को उस गलीज़ माहौल से निकाल कर अपने साथ ले जाताI इसी कारण यह रचना बेहद मारक और दीर्घजीवी बन पाई है जिस हेतु आपको मेरी तरफ से एक्स्ट्रा वाह वाह!!
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