आदरणीय साथिओ,
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//"कितनी बार कहा है नीरा तुम्हें ..कि अपने इस अधूरेपन का यूँ घर भर में प्रदर्शन मत किया करो। इतने सालों में इतना भी नहीं समझी !"// यहाँ सुकेश जो समझाना चाहता वह दुनियादारी वाली चीज है. दुनिया में दिमाग वाले पाए जाते हैं दिलवाले नहीं. इस दृष्टिकोण से सुकेश के पास दिमाग तो है ही. इसलिए मेरे अनुसार //हाँ अधूरे ! मैं शरीर से और तुम दिल और दिमाग से // की जगह यह कहना ज्यादा उचित होगा, "हाँ अधूरे! मैं शरीर से और तुम दिल से!" सादर.
लघुकथा के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह तीक्ष्ण वेग से चलते हुए चरम पर पहुँच कर समाप्त हो जाती है और पाठकीय चेतना को झंकझकोरते हुए गहन चिंतन बीज छोड़ जाती है। /सही मायनों में तो आज ही उसे ब्रैस्ट कैंसर से मुक्ति मिली थी !/ एकदम चलती कथा के अंत में यह पंक्ित पाठक को अंदर तक हिला के रख देने में सक्षम है। क्योंकि लघुकथा पठन के दौरान इस अंत के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता । सो जो 'एलीमेंट ऑफ सरप्राइज़' लघुकथा के अंत में उद्घाटित होता है वह पाठक को चौंका देता है। शीर्षक चयन भी प्रभावशाली । सादर शुभकामनाएं स्वीकारें।
इंसानियत
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मौलवी रहीम सुबह की नमाज़ पढ़ा कर मस्जिद से बाहर निकलते हैं और ठीक सामने पुजारी राम मंदिर से पूजा और आरती करके बाहर आते हैं | अचानक पुजारी के सामने एक कबूतर उड़ता हुआ आया और मंदिर की छत पर बैठ गया | पुजारी ने तुरंत दो लड़कों को इशारा करके कहा
" इसे पत्थर मार कर भगा दो ,यह किसी मुसलमान का पाला हुआ कबूतर है "
जैसे ही लड़कों ने पत्थर मारा कबूतर सामने मस्जिद की छत पर जा कर बैठ गया | यह देख कर मौलवी ने भी दो लड़कों को आवाज़ देकर कहा
" यह मंदिर से आया है इसे पत्थर मार कर भगा दो "
दोनो तरफ से सितम का सिलसिला चलता रहा ,बे ज़ुबान कबूतर पत्थर पर पत्थर खा कर ,घायल और लहू लुहान हो कर आख़िरकार ज़मीन पर गिर पड़ा | धीरे धीरे वहाँ देखने वालों की भीड़ जमा हो गई |
अचानक भीड़ को चीरता हुआ एक आदमी कबूतर को हाथ में उठा कर मौलवी और पुजारी को मुखातिब करता हुआ कहने लगा "मेरा नाम माइकल है ,यह मेरा कबूतर है आप लोगों ने मेरे कबूतर को हिंदू और मुसलमान में बाँट दिया है ,इस से पहले भी आप दोनो लोगों को धरम के नाम पर आपस में लड़वा चुके हैं " वो थोड़ा रुक कर फिरकहने लगा "लेकिन आज तो आप दोनो ने हद कर दी,एक बे ज़ुबान कबूतर को मोहरा बना दिया ,क्या बता सकते हो इसके खून को देख कर कि यह हिंदू के खून जैसा है या मुसलमान के लहू जैसा "
यह सुनते ही भीड़ में खामोशी छा गई ,मौलवी और पुजारी चुप चाप सर झुकाए वहाँ से चले गये
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(मौलिक व अप्रकाशित )
ये तो मेरा कवुतर है इसे भी आप ने नफरत का मोहरा बना दिया- सुंदर व शानदार लघुकथा आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी. बधाई आप को .
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